Tuesday 27 September 2011

प्रतिक्रियाएं


मित्रों,
'शिक्षक दिवस: एक पुनर्विचार' पर्चे पर हमें कुछ आलोचनात्मक प्रतिक्रियाएं भी मिली हैं. आलोचनाओ को मुख्य रूप से चार भागों मै बांटा जा सकता है-
१. शिक्षक दिवस मनाया ही क्यों जाये?
२. टैगोरे का महिमामंडन क्यों?
३. बुद्ध, ज्योतिबा या अम्बेडकर का उल्लेख क्यों नहीं?
४. संगठन में पदों व उनको सँभालने वालों के नामों का जिक्र क्यों नहीं?
पर्चे का मूल उद्देश्य व तर्क मात्र औपचारिक दिवस-आयोजनों पर प्रश्नचिंह खड़ा करना नहीं था. यह सच है कि एक स्वस्थ व आदर्श सामाजिक व्यवस्था में किसी औपचारिक आयोजन की जरुरत नहीं होगी. यह भी सच है कि अपने पेशे को 'दिवस' के रूप में मनाना मनोवैज्ञानिक परिपक्वता का परिचायक नहीं है. सोचिये, अगर हमें यह बहस खड़ी करनी होती कि 'दिवस' मनाया ही न जाये तो वह किस तरह की भूमि पर खड़ी होती. हमारे विचार से यह एक दार्शनिक-राजनैतिक किस्म का सवाल होता. उस तक सीधे पहुँच जाना, बिना संवाद की लम्बी प्रक्रिया के स्वयं एक राजनैतिक अपरिपक्विता होती. फिर पर्चे का मुख्य उद्देश्य एक औपचारिकता की जगह दूसरी औपचारिकता स्थापित करना नहीं था, जैसा कि समझा गया. यह शिक्षक दिवस के माध्यम से इतिहास से भुलाये दबाये गए प्रसंगों-व्यक्तित्वों के महत्व को रेखांकित करना था. फिर उत्सव सरकारी/नीरस सत्ता प्रधान व लोक (जिवंत) दोनों तरह के हो सकते हैं, होते हैं. मजदुर दिवस का उदहारण हमारे सामने है कि कैसे यह इतिहास से प्रेरणा लेने, उसे जिन्दा रखने और बनाने का प्रतीक है, इसी तरह हम शिक्षक दिवस को अफसरशाही सरकारी प्रयोजनों से पुनर्स्थापित करके इतिहास बोध, लोक संघर्ष व पेशागत परम्परा से जोड़ना चाह रहे हैं. आज के समय के शब्दों में कहे तो वर्तमान 'समारोही' दिवस में हम अपना विस्वास प्रकट नहीं कर पा रहे हैं, न उसमे अपने पेशे को, स्वयं को देख पा रहें हैं. यह एक ध्यानकर्षण प्रस्ताव था- ऐसा नहीं है कि हम शिक्षक दिवस मनाएं तो अपने सुझाये हुए नामों में से एक (या तीनो) से जोड़कर ही मनाएं. इस दिवस का भी स्थानिक स्वरुप हो सकता है, राष्ट्रीय के साथ साथ. हर क्षेत्र में ऐसे संघर्षों, व्यक्तित्वों की कमी नहीं होगी जिनसे समतावादी विमर्श प्रेरणा ले सकें- तो प्रत्येक पड़ोस अपने जीवंत उदाहरण स्वयं सामने रखें. हमें लगता है कि दिवस के वर्तमान स्वरुप में और हमारे द्वारा प्रस्तावित उदाहरणों से मिलने वाले दिवस के संभावित दर्शन में जमीन-आसमान का अंतर हैं. अगर शिक्षण दिवस न मनाएं तो भी वो सारे काम किये जा सकते हैं जिन्हें हम राजनैतिक रूप से बेहतर/जरुरी मानते हैं पर इसे पुनर्व्याख्यायित करके न सिर्फ हम हावी परंपरा/वर्चस्व को चुनौती देते हैं वरन इतिहास व शिक्षा से सम्बंधित एक बहस खड़ी करने के मौकों का भी इस्तेमाल करते हैं. फिर यह आलोचना भूल रहीं है कि किसी सार्वजनिक कर्म/प्रयास का आंकलन मात्र उसकी रचना से नहीं वरन राजनैतिक नियत से भी लगाना चाहिए. इस सन्दर्भ में हम वैकल्पिक शिक्षक दिवस की अवधारणा को श्रेष्ठ नहीं तो निर्दोष तो मान ही सकते हैं.
जहाँ तक टैगोर के महिमामंडन का सवाल है हम मानते हैं कि किसी का भी महिमामंडन करना परिपक्व ऐतिहासिक बोध के अनुकूल नहीं है. अगर पर्चे में ऐसा भाव आया तो वह निश्चित ही सायास नहीं था. अन्य ऐतिहासिक व्यक्तित्वों की तरह ही, न सिर्फ टैगोर वरन सावित्रीबाई व गिजुभाई पर सवाल खड़े करने पर कोई अतिसंवेदनशील आपत्ति नहीं की जानी चाहिए. इतिहास में टैगोर की भूमिका का मूल्याङ्कन आलोचनाओं से कतरा नहीं सकता (स्वयं महात्मा गाँधी के साथ उनका असह्मतिपूर्ण पर सहृदय संवाद लम्बे समय तक चला था). फिर यह साधारण तथ्य भी याद रखना चाहिए कि एक ऐसे पर्चे में जिसके द्वारा हम रविंद्रनाथ के शैक्षणिक कार्यों की और ध्यानाकृष्ट कर रहे थे, यह अपेक्षित ही था कि हम राष्ट्रगान पर उठाये गए व अन्य सवालों को जगह नहीं दे पाते. इसी मुद्दे से बुद्ध, ज्योतिबा आदि को नजरंदाज करने वाली आपत्ति का जवाब जुड़ा है. ऐसे व्यक्तित्व को शिक्षक दिवस के माध्यम से याद करना जोकि बेशक क्रन्तिकारी परिवर्तनों का नायक/प्रेरणास्रोत रहा हो हमारा उद्देश्य नहीं था जिसे श्रद्धेय मानने का खतरा हो व उसके अनुयायी हों. फिर हमारे तीनों उदाहरण जीवंत इतिहास से लिए गए थे और उनका आधुनिक, औपचारिक शिक्षा में व्यवस्थित, पेशागत योगदान था. सुझाये गए विकल्पों के बारे में यह नहीं कहा जा सकता. हमें विशेष ध्यान था कि हम आज की शिक्षा प्रणाली के सन्दर्भ में बात कर रहें हैं- स्कूलों में प्रशिक्षित शिक्षिकों की विशिष्ठ परिस्थितियों, अनुभवों व भूमिकाओं के सापेक्ष. आज के अप्रशिक्षित पैरा-शिक्षकों के सन्दर्भ में यह महत्वपूर्ण है कि सावित्रीबाई और गिजुभाई दोनों प्रशिक्षित शिक्षक थे.

अंतिम प्रश्न अलग किस्म का है और यह मंच के ढांचे के स्वरुप को लेकर है. अपेक्षा की गई कि इसकी संगठनिक रचना पारंपरिक/प्रचलित प्रकार की होगी, जिसमे भिन्न जिम्मेदारियों का निर्वाह भिन्न पदों पर कार्यरत व्यक्ति कर रहें होंगे. इसके विपरीत हमने सायास इसे श्रेणीबद्ध-औपचारिक ढांचों से मुक्त रखने की कोशिश की है. हमारा मानना है कि राजनैतिक प्रयासों को व्यवस्थित, संगठित तो होना चाहिए पर साथ ही सहज भी. वैसे भी मित्रता से श्रेष्ठ संगठन कुछ नहीं. हाँ, काम को अंजाम देने के लिए विशिष्ठ जिम्मेदारियों को बाँटना तो होगा पर यह रूढ़िबद्ध न होकर लचीला रहे. अभी हम मात्र एक समन्वयक की भूमिका स्वीकार कर रहे है जोकि बैठकों, कार्ययोजना आदि को व्यवस्थित करने का दायित्व उठाएगा. पर इसे भी हम दीर्घकालीन या स्थायी न ठहराकर रोटेशन के आधार पर इस्तेमाल करने की सोच रहें है. इस योजना में लोकतंत्र से जुडी जिम्मेदारी की बराबरी की समझ व साझे प्रयास का अहसास का विस्वास निहित है. फिर यह उस परंपरा से बचने की कवायद भी है जिसमे पर्चों/पोस्टरों पर सन्देश/अपील से ज्यादा नहीं तो बराबर जगह उसे प्रचारित करने वाले निजी/व्यक्तिगत रूप से पाते हैं. यह मंच के दर्शन के विरुद्ध होगा कि हम अपनी बात का, अपने काम का महत्व पदों/व्यक्तियों के नामों के अनिवार्य साथ/आलोक में समझें/समझायें

लोक शिक्षक मंच

शिक्षक दिवस :एक पुनर्विचार


  शिक्षक दिवस :एक पुनर्विचार

साथियों,

प्रत्येक वर्ष की भांति इस वर्ष भी हम 5 सितम्बर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाएंगे .यह सोचने का विषय है की हम इस दिन शिक्षक दिवस क्यों मानते हैं और क्या यह दिन शिक्षकों का दिन है .इसी सन्दर्भ में हम आपके साथ शिक्षक दिवस (5 सितम्बर ) के बारे में कुछ विचार साझा करना चाहते हैं .यह दिन भारत के द्वितीय राष्ट्रपति सर्वपल्ली डाक्टर राधाकृष्णन का जन्मदिन है. जब राधाकृष्णन भारत के राष्ट्रपति बने उसी समय उनके विद्यार्थी और मित्रों ने उनका जन्मदिवस मनाने की बात उनसे की और उन्होंने स्वयं ही अपने जन्मदिवस को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने का सुझाव दिया. हमारे अनुसार शिक्षक दिवस के रूप में हमे उस दिन को मनाना चिहिए जिस दिन की शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षक ने कोई महत्वपूर्ण कार्य किया हो या उस दिन शिक्षा के क्षेत्र में कोई महत्वपूर्ण उपलब्धि रही हो. सर्वपल्ली राधाकृष्णन दर्शनशास्त्र के एक बड़े विद्वान माने जाते है पर क्या विद्वान होना ही पर्याप्त है? इनके विश्वविद्यालयी अध्यापन के समय आजादी की लड़ाई चरम पर थी. डाक्टर राधाकृष्णन को सन 1931 में नाईटहुड की उपाधि दी जाती है और यह वही वर्ष है जब हिन्दुस्तान के क्रांतिकारियों भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी की सजा दी गयी. ऐसे समय में ब्रिटिश उपाधि को स्वीकार करना किस प्रकार की संवेदनशीलता को दर्शाता है?
दूसरी ओर, हिन्दुस्तान में ऐसे बहुत से व्यक्तित्व रहे है जिन्होंने समाज के प्रति समर्पित रहते हुए शिक्षा के क्षेत्र में मौलिक कार्य किया. इसमें सर्वप्रथम क्रान्तिजोत सावित्रीबाई फूले का नाम लिया जा सकता है, जिन्हें भारत की प्रथम महिला शिक्षिका होने का गौरव प्राप्त है इनका जन्म 3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र में एक दलित परिवार में हुआ. इन्होने ज्योतिबा फूले के साथ जातिगत भेदभाव व अन्याय के खिलाफ संघर्ष किया और इसी क्रम में 14 जनवरी 1848 में लड़कियों के लिए पुणे [महाराष्ट्र] में एक विद्यालय खोला. इसी क्रम में गुरु रविन्द्रनाथ टैगोर को भी याद किया जा सकता है. गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोरे का जन्म 7 मई 1861 में हुआ. गुरु रविन्द्रनाथ कवि, संगीतकार, चित्रकार, दार्शनिक, लेखक व शिक्षक थे. तात्कालीन राजनीति से उनके गहरे सरोकार का परिचय इस बात से मिलता है कि 1919 के जलियावाला बाग़ नरसंहार के विरोध में उन्होंने अपनी नाईटहुड की उपाधि वापस कर दी. उन्होंने प्रकृतिवाद और विश्व बंधुत्व को शिक्षा में स्थापित करने हेतु २२ दिसंबर १९०१ को शांति निकेतन में एक विद्यालय कि स्थापना की. इसी कड़ी में एक और व्यक्तित्व गिजुभाई बधेका है. गिजूभाई का जन्म १४ नवम्बर १८८५ को गुजरात में हुआ. पेशे से वकील गिजुभाई ने मांटेसरी पद्धति की शिक्षा को भारतीय शिक्षा व्यवस्था में स्थान दिलाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया और शिक्षा की पुरातनपंथी पद्धति पर कुठाराघात किया. बाल स्वतंत्रता एवं प्रेम जैसे मूल्यों का उनके जीवन में इतना गहरा स्थान था की बच्चों द्वारा उन्हें '' मूछों वाली माँ '' कहकर संबोधित किया जाता था. गिजुभाई ने बच्चों, शिक्षको व अभिभावकों के लिए काफी साहित्य रचा जो आज भी प्रेरणा का श्रोत है.
साथियो, हम शिक्षकों को इस पर विचार करना चाहिए कि शिक्षक दिवस मनाने के कौन सा दिन उपयुक्त होगा. किसी का जन्मदिवस या शिक्षा के क्षेत्र में कोई ऐतिहासिक दिवस?

                                                                               लोक शिक्षक मंच
                                                                                    

Monday 26 September 2011

लोक शिक्षक मंच: एक परिचय

शिक्षक होने के नाते समाज से हमारा गहरा सरोकार है और हम समझते हैं की हम दायित्व समाज में व्याप्त असमानताओं व शोषण के खिलाफ उठ रही आवाजों में अपनी आवाज़ मिलाना हैं. भारतीय समाज में महिलाओं, दलितों, आदिवासियों एवं अन्य मेहनतकश वर्गों के विरुद्ध शोषण व उत्पीडन की व्यवस्था लगातार बनी हुई है. भारत के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य को जल, जंगल और जमीन के किसान-मजदूर-आदिवासी संघर्षों के सन्दर्भ से काटकर नहीं समझा जा सकता है. हम इन असमानताओं के विरुद्ध लड़ने और एक समतामूलक समाज के निर्माण में अपनी हिस्सेदारी निभाने की कोशिश करेंगे. न्याय, समता, भ्रातृत्व और स्वतंत्रता संवैधानिक आदर्श हैं. हम इनका दायरा बढाने के लिए संघर्ष करने वाले लोगों को अपना समर्थन व सहयोग देंगे.

हम निम्न मूल्यों में विश्वास रखते हैं:
समता - लैंगिक व अन्य
लोकतांत्रिकता - व्यवहार व निर्णय प्रक्रिया में
पारदर्शिता- समाज के प्रति जवाबदेही, पेशागत स्वायत्तता के साथ
अंतरात्मा की गरिमा - विश्वासों की निजता
इह्लौकिकता व तार्किकता - सार्वजानिक तंत्र में
पंथनिरपेक्षता - सार्वजनिक व्यवस्था में
समाजवाद- शिक्षा व्यवस्था में मुनाफाखोर, निजी, दान संस्थाओं व एन. जी. ओ के हस्तक्षेप का विरोध
सहजता- स्कूलों में गैर प्रतिस्पर्धी, सहयोगधर्मी संस्कृति को प्रोत्साहन
संवाद- अभिभावकों, पडोसी क्षेत्र व व्यवस्था के साथ

उपरोक्त उद्देश्यों के सन्दर्भ में, विशेषकर शिक्षा के क्षेत्र में हम भिन्न मुद्दों पर अध्ययन समूह, पर्चा, पोस्टर, फिल्म प्रदर्शनी, शोध कार्य, ज्ञापन, पत्रिका आदि को माध्यम बनायेंगे और प्रयासरत रहेंगे की सांझी सोच रखने वाले साथियों को जोड़ें व उनके साथ जुड़ें तथा असहमत साथियों के साथ संवाद जारी रखें.

हम आपसे अपील करते हैं कि आप अपने सवालों, प्रतिक्रियाओं, आलोचनाओं व सुझाओं के द्वारा इस मुहिम का हिस्सा बनें.

लोक शिक्षक मंच