Wednesday 22 August 2012

मारुती सुजुकी के आन्दोलनरत मजदूरों के साथ हम भी


हम लड़ेंगे साथी 
( मारुती सुजुकी के आन्दोलनरत मजदूरों के साथ हम भी )


शिक्षा और समाज का एक गहरा रिश्ता है.,समाज शिक्षा और शिक्षक से ये उम्मीद करता है की वह सकारात्मक  सामाजिक बदलाव में अपनी भूमिका अदा करेंगे .समाज का अंग होने के नाते हमारा कर्त्तव्य बनता है कि हम समाज में घटने वाली घटनाओं को समझकर अपनी राय कायम करें और इस पर अपनी प्रतिक्रिया दें . समाज हमसे यह अपेक्षा करता है कि हम अपनी एकता गरीब मजलूम और शोषित तबके के साथ बनायेंगे .

मारुती सुजुकी की घटना आखिर घटी क्यों ?

मारुती सुजुकी की मानेसर  कारखाने  में मजदूर  लम्बे  समय  से आन्दोलनरत  हैं  .पिछले  एक साल  में ही  यूनियन   बनाने  और सम्मानजनक   वेतन  इत्यादि  को लेकर  मजदूर  तीन  बार  हडताल  कर  चुके  थे . इन  आंदोलनों  को दबाने  के लिए  मारुती प्रबंधन  ,हरियाणा   व  केंद्र  सरकार  ने मजदूरों  की छटनी  , उन  पर झूठे  मुक़दमे  लगाना  तथा  मजदूर  नेताओं  को प्रलोभन  देने  जैसे  कृत्य  किये . मारुती सुजुकी के मजदूरों  ने इससे  लड़ते  हुए  अपनी एकता को कायम रखा .18 जुलाई  2012 के दिन एक  सुपरवाईजर   ने एक मजदूर  को जाति  सूचक  गाली  दी  जब  उस  मजदूर  ने इसका  विरोध  किया  तो  उस  पर अभ्दर्ता  का आरोप  लगाकर  उसे  निलंबित  कर  दिया . इसके  समाधान  के लिए  मजदूर   यूनियन    के नेताओं  ने प्रबंधन  से वार्ता  की और घटना की निष्पक्ष  जाँच  कराने  तथा  उस  मजदूर  के निलंबन  पर रोक  लगाने  की मांग  रखी , लेकिन  प्रबंधन  अपनी जिद  पर अदा रहा  तथा  लगातार   यूनियन    के नेताओं  पर दबाब  बनता  रहा .  यूनियन    के नेता  इस दबाब  को अस्वीकार  करते  हुए  अपनी जायज  मांग  रखते  रहे  .यह वार्ता  लगभग  तीन  बजे  दोपहर  तक  चलती  रही  लेकिन  इसका  कोई  नतीजा  नहीं  निकला  . इसी  बीच  दूसरा  शिफ्ट  शुरू  हो  गया  और अन्य  मजदूर  भी  कम्पनी  में पहुच  गये  . वार्ता  के दौरान  ही   मारुती  प्रबंधन  ने पूर्व  नियोजित  और जैसे   की चलन  रहा  है 150  बौसरों(गुंडों )  को बुला  लिया  ,चूकि  मजदूर  भी  आक्रोशित  थे  तो  इस मारपीट  में प्रबंधन   के कुछ  लोगों  को चोटें   आयीं  तथा  एक मनेजर   की मौत  हो  गयी  तथा  बहुत से   मजदूर  भी  घायल  हुए  .इस सन्दर्भ  में सरकार   व  श्रम  विभाग  का रवैया   एक तरफ़ा  और मजदूरों  के विपक्ष  में रहा  . 

क्या मीडिया ने अपनी निष्पक्ष भूमिका निभाई ?
 

मुख्या धारा की पत्रकारिता  से तो ये उम्मीद भी नहीं की जा सकती की जा सकती की वो मजदूरों का पक्ष लेगी पर पत्रकारिता   के नूनतम  मानदंडों के तकाजे से हम उनसे यह उम्मीद तो कर ही सकते हैं की वो कम से कम मजदूरों के पक्ष को भी अपनी खबरों मै शामिल करेगी ,पर इस घटना के सन्दर्भ मै इसका आभाव ही दिखा. मीडिया मारुती मै हुई आगजनी और एक प्रबंधक की मृत्यु  की खबर को ही लगातार दिखाती - छापती रही, उसके पीछे की घटना और मजदूरों के पक्ष को कभी दिखने छापने का कोई प्रयास नहीं किया. पर्बंधक की मौत कैसे हुई ये तो जांच का विषय है पर मीडिया लगातार इस घटना के लिए मजदूरों को ही दोषी साबित करती रही जबकि मजदूरों तथा जानकर लोगों  का कहना है की मजदूर   यूनियन   ने लगातार वार्ता के द्वारा समस्या समाधान की कोशिश की और दोषी व्यक्तियों को सजा देने की मांग रखी .मीडिया की किसी भी खबर मै प्रबंधक द्वारा बौन्सरों को बुलाने का जिक्र तक नहीं था जबकि मजदूरों को धमकाने का ये तरीका अक्सर इस्तेमाल किया जाता है. मीडिया लगातार मारुती सुजुकी पर्बंधन द्वारा अपनी कंपनी को अन्य जगह ले जाने तथा इस घटना का निवेश पर पड़ने वाले नकारात्मक असर को प्रचारित प्रसारित करता रहा.

सरकारों की क्या भूमिका रही ?

सरकारों ने नव उदारवाद की नीतियों को आंख मूँद कर अपने यहाँ लागु  किया और हमारे देश को देशी विदेशी पुजीपतियों के लिए आसान चारागाह बना डाला है . पुजीपतियों  को  ये  हर  सुविधाएँ  देने  को  तत्पर  हैं -सस्ती  जमीन ,टैक्स  की  छूट , सस्ती  बिजली  -पानी  और  करोड़ों   की  कर्ज  माफ़ी  .सरकारों  ने  मजदूरों  द्वारा  लड़कर  प्राप्त  किये  गये  अधिकारों  को न  मानने  की  खुली  छूट  दे  दी  है  . जब  भी  देश  के  शोषित  उत्पीडित  लोग  अपने  हक़  अधिकारों  के  लिए  संघर्ष  करते  हैं  तो  उनपर  बर्बर  दमन  चला  कर  कुचल  दिया  जाता  है . ग्रेजियानो ,निप्पों  हो  या  मारुती  सुजुकी  के  मजदूर  आन्दोलन  मै  सरकारों  की  भूमिका  दमनात्मक  ही  रही  है .

ऐसा  नहीं  है  की  ये शोषण  दमन  की  नीति  सिर्फ  मजदूरों  पर  ही  जारी  है  देश  मै  ऐसा  कोई  भी  तबका  नहीं  है  जिसपर  सरकार  ने  दमन  न  ढाया  हो , पिछले  दिनों  पंजाब   के  शिक्षकों  को दौड़ा  दौड़ा   कर  पीटने  की  घटना  हो  या  पटना  मै  अनुबंध  अद्यापक  संघ  द्वारा  किया  जाने  वाला  सम्मानजनक  वेतन  और  परमानेंट  करने  की  मांग  को लेकर  किया  जाने  वाला  पर्दशन   सभी  को सरकार   ने  बेरहमी  से  कुचला  है . दिल्ली  की  बात  करें  तो  हमारे  ही  विभाग  मै  अनुबंध  आधार   पर  शिक्षकों  को कम  वेतन  पर  काम   कराया  जाता  है  और  उन्हें  अन्य  सुविधाएँ  भी  नहीं  मिलती  हैं , जहाँ  स्थाई    महिला  कर्मी  को मातृत्व   अवकाश  180 दिनों  का  मिलता  है  वहीँ  अनुबंधित  महिला  शिक्षिकाओं  को मात्र  90 दिनों  का , हर  साल  नये  सीरे  से  उनकी  नियुक्ति  की  जाती  है  क्या  उन्हें  भी  अन्य  शिक्षिकों  की  तरह  सम्मानजनक  कार्य  परिस्थिति  उपलब्ध  नहीं  कराया  जाना  चाहिए . इसलिए  हम  मजदूरों  व  अन्य  मेहनतकशों  के   शोषण  दमन  के  खिलाफ  और   मारुती  सुजुकी  के  संघर्षरत  मजदूरों  के  साथ  अपनी  एकजूटता  पर्दर्शित  करते  हैं  और  साथ  ही  निम्न  मांगें  रखते  हैं  :

1.   मारुती  सुजुकी  के  मानेसर  कारखाने  मै  हुई  घटना  की  निष्पक्ष  जाँच  की  जाए .
2.   मारुती  सुजुकी  व  अन्य  कारखानों  मै  श्रम   कानूनों  को सख्ती  से  लागू   करवाया  जाए  .
3.    एस  सी  /एस . टी  कानून  के  अंतर्गत  दोषी   सुपरवाईजर   पर  मुकदमा  दर्ज  किया  जाए  .
4.     बौन्सेरों  की  इस  घटना  मै  भूमिका  की  जाँच  की  जाए  तथा  उनको  बुला  वाले  पर्बंधाकों  के  खिलाफ  मुकदमा  दर्ज  किया  जाए  . 
5 .   मजदूरों का निलंबन तुरंत प्रभाव से समाप्त किया जाए .

Tuesday 14 August 2012

एनजीओ आंदोलनों को नष्ट करता है.


एनजीओ आंदोलनों को नष्ट करता है.

अनिल चमड़िया

एनजीओ का उद्देश्य राजनीतिक विकल्प तैयार करना कतई नहीं होता है. उसकी गतिविधियां राजनैतिक विकल्प वाले आंदोलनों को कमजोर करती हैं. एनजीओ की अवधारणा पूंजीवादी देशों की तैयार की गई है. राजनीतिक विकल्प की जब हम बात करते हैं तो उसमें यह निहित होता है कि जिन लोगों द्वारा अपने हितों में व्यवस्था चलाई जा रही है, सत्ता के उस आधार को बदला जाए. जिनका शोषण हो रहा है अपनी व्यवस्था का निर्माण करें.
एनजीओ का बड़ा हिस्सा इसी वर्ग को विभिन्न तरह के वैसे कार्यक्रमों में सक्रिय करता है, जिनसे उनके जीवन का कोई हिस्सा प्रभावित होता है. अपने देश में बड़े एनजीओ विदेशों की मदद से चलते हैं.
विदेशी मदद को यहां राष्ट्रवाद के चश्मे से नहीं देखें बल्कि विदेशी सहयोग के अर्थों को पहले समझने की कोशिश करें. कई स्तरों पर एक देश दूसरे देश की मदद करते हैं और उन सबको विदेशी मदद कहा जा सकता है. लेकिन विदेशी मदद शब्द के इस्तेमाल से उसके साथ जो ध्वनि निकलती है, वह तय करती है कि उसका उस संदर्भ में क्या मायने हैं? क्या ये आरोप की शक्ल में हैं? अपने देश में राजनीतिक स्तर पर जब विदेशी मदद का आरोप लगाया जाता है तो वह राष्ट्र की सार्वभौमिकता और स्वतंत्रता में हस्तपेक्ष की कोशिश का विरोध होता है.
डा. राममनोहर लोहिया ने 11 जून से 15 जून 1962 में गोरखपुर में समाजवादियों के एक सम्मेलन को संबोधित किया और राजनीतिक तौर पर विदेशी मदद की जो व्याख्या एक घटना से की, उसे देखा जाना चाहिए. लोहिया के अनुसार 1951 में वे अमेरिका में नॉर्मन टामस से मिलें. टामस समाजवादी आंदोलनकारी थे. लोहिया की मानें तो सारी दुनिया के पैमाने पर नार्मन टामस से ज्यादा बड़ा और बढ़िया समाजवादी ढूंढना मुश्किल था.
टामस ने लोहिया से कहा कि अमरीकी समाजवादी अपने देश में सिर्फ कुछ विचार फैलाने के अलावा कुछ कर नहीं पाए हैं-“तुम्हारे यहां चुनाव आ रहा है. तुम गरीब हो लेकिन तुमसे जनता का सहयोग मिला हुआ है. अगर तुम हमारा पैसा लेकर चुनाव में ज्यादा सफलता लेते हो तो उसमें मुझे क्यों नहीं खुशी लेने देते हो कि मैंने एक समाजवादी भाई की मदद की.”
डाक्टर लोहिया ने जवाब दिया, “यह आपकी बड़ी मेहरबानी है लेकिन हमलोगों का यह तरीका नहीं है. इसके बाद राजनीति बिगड़ जाया करती है.”
लोहिया ने आग्रह किया तो कहा कि ज्यादा से ज्यादा आप आगे चलकर मान लो स्कूल के काम हैं. इसमें आदान-प्रदान के मतलब गैर हिन्दुस्तानी, अमरीकी हिन्दुस्तानी बाहर जाएं. इन सब चीजों के लिए कुछ कर सकते हो तो करो.
इस प्रसंग का थोड़ा और विस्तार है; पर वह विदेशी मदद वाली राजनीति की पैठ को समझने के लिए जरूरी है. लोहिया ने बताया कि टामस ने उनके सामने विदेशी मदद का प्रस्ताव क्यों रखा? टामस के अनुसार जब वे बम्बई (अब मुंबई) में थे, दिल्ली में थे, तब उन्होंने लोहिया के कुछ साथियों से बात की थी. उन साथियों ने ही टामस से कहा था, ‘ठीक है, पैसा दिलाना.’ विदेशी मदद से देश की राजनीति के बिगड़ने की आशंका किसी राष्ट्र की राजनीति में स्वावलंबन की जरूरत को बुनियादी मूल्य के रूप में स्पष्ट करती है.
विदेशी मदद की राजनीति ने भारतीय समाज को बहुत नुकसान पहुंचाया है. पूर्व रक्षा मंत्री जार्ज फर्नाडीस ने आरोप लगाया था कि 1967 में चुनाव में कोई भी ऐसी पार्टी नहीं थी, जो बिना विदेशी मदद के चुनाव मैदान में उतरी हो. उस विदेशी मदद की जांच के लिए एक संसदीय समिति भी बनी थी लेकिन उसकी रिपोर्ट तब से दबी पड़ी है.
सीपीएम के महासचिव प्रकाश करात ने 1984 में अपने एक लंबे लेख को विस्तार कर विदेशी मदद और स्वयंसेवी संगठन( एनजीओ) के दर्शन पर एक पुस्तिका लिखी थी. उस दौर के बाद विदेशी मदद से गैर सरकारी संगठनों की सक्रियता पर सवाल खड़े किए जाते रहे हैं.
प्रकाश करात के अनुसार स्वैच्छिक संगठनों के लिए वैचारिक आधार सातवें दशक के अंत में ही तैयार करके इस्तेमाल किया जा रहा था. तब प्रकाश करात ने अपनी सूचना के अनुसार स्वैच्छिक संगठनों और एक्शन ग्रुपों की संख्या पांच हजार बताई थी और लिखा था कि ये पश्चिमी साम्राजी मुल्कों की विभिन्न एजेंसियों से अपनी गतिविधियों के लिए पैसा पा रहे हैं. उस दौर में साम्राजी रणनीति में एक नए तत्व के उभरने के संकेत दिए थे.
वास्तव में हमें एनजीओ की पड़ताल आत्मनिर्भरता, स्वावलंबन की राजनीति के विकास के संदर्भ में करनी होगी. किसी भी परिवर्तनगामी आंदोलन की कसौटी यह होती है कि उसके विकास और विस्तार को निर्देशित करने वाली ताकत किसके हाथों में है. जनता विदेशी वित्तीय मदद वाले आंदोलन में भी हो सकती है और अपने संसाधनों के बूते भी वह आंदोलन खड़ी कर सकती है लेकिन दोनों तरह के आंदोलनों की अपनी-अपनी फसल तैयार होती है. एनजीओ की राजनीति पर एक मुक्कमल बहस की जरूरत है लेकिन बहस को कई स्तरों पर घालमेल कर भटकाया जाता रहा है.
आंदोलनों में कैसे परजीविता की भावना बढ़ी है; इसका तो सहज अंदाजा लगाया जा सकता है. राजनीतिक कार्यकर्ता एनजीओ के वेतनभोगी कार्यकर्ता में तब्दील होता दिखाई देता है. सबसे बड़ी तो इस भावना का तेजी के साथ विस्तार का होना है कि राजनीति से पहले पैसे का जुगाड़ होना चाहिए. ऐसे में परिवर्तन क्या खाक हो सकता है?

( दखल की दुनिया से साभार )

Wednesday 8 August 2012


शिक्षा अधिकार का सचPDFPrintE-mail
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Tuesday, 07 August 2012 11:27
नरेश गोस्वामी 

जनसत्ता 7 अगस्त, 2012: मानव संसाधन विकास मंत्रालय से संबद्ध संसदीय समिति की रिपोर्ट बताती है कि शिक्षा अधिकार के कार्यान्वयन के लिए स्कूली शिक्षा और साक्षरता विभाग को बजट की निर्धारित राशि का केवल साठ फीसद दिया गया है। इसका मतलब यह है कि शिक्षा अधिकार योजना को इस साल पंद्रह हजार करोड़ रुपयों की कमी पडेÞगी। योजना की जरूरतों और बजटीय आबंटन के इस अंतर को देखते हुए संसदीय समिति ने आशंका जताई है कि इस संकट के कारण शिक्षा अधिकार को पूरी तरह और सही समय पर लागू करना दिक्कततलब रहेगा।
समिति के अनुसार, मंत्रालय के स्कूली शिक्षा विभाग ने स्कूलों में आधारभूत संरचना मुहैया कराने और अध्यापक-छात्रों का सही अनुपात कायम करने के लिए चालीस हजार करोड़ रुपयों की मांग की है। जबकि बजट में इसके वास्ते कुल साढ़े पचीस हजार करोड़ रुपए निर्धारित किए गए थे। इसी असंगति के चलते स्कूली शिक्षा विभाग को कई योजनाओं में कांट-छांट करनी पड़ रही है। शिक्षा अधिकार को लेकर केंद्र के अलावा राज्य सरकारों के सरोकार का अंदाजा भी इस बात से लगाया जा सकता है कि कानून पर अमल करने के लिए धन जुटाने का जो फार्मूला तय किया गया था उसमें बारह राज्यों ने अभी तक अपना हिस्सा नहीं दिया है। गौरतलब है कि राज्यों पर आयद यह रकम पिछले साल ही लगभग पंद्रह सौ करोड़ पहुंच गई थी।
यह हश्र उस कानून का हो रहा है जिसे दो साल पहले ऐतिहासिक और युगांतरकारी बताया जा रहा था। विधेयक से लेकर कानून बनने तक सरकार और नागरिक समाज इसे लेकर इस कदर मुदित थे कि अधिकार के प्रावधानों को समग्रता में देखने के बजाय उसके केवल एक-दो पहलुओं पर खयालगोई करते रहे। बात करने का अंदाज ऐसा था गोया यह कोई बुनियादी अधिकार है जिसे भारी जद््दोजहद के बाद हासिल किया गया है। निस्संदेह यह एक जनपक्षधर कदम था, लेकिन इतना आमूल भी नहीं कि उसकी अपूर्णताओं को नजरअंदाज कर दिया जाए। अगर शिक्षा का अधिकार सरकार के लिए वाकई इतना प्राथमिक था तो उसका आकलन कैसे गड़बड़ा गया कि तैयारियों के निमित्त कितने धन की जरूरत होगी और वह कैसे जुटाया जाएगा। गौरतलब है कि इस कानून को पूरी तरह लागू करने के लिए तीन साल का समय दिया गया था। प्रावधानों के मुताबिक इस वक्फे में स्कूलों में कमरों के निर्माण, लड़कियों के लिए शौचालय और पानी का इंतजाम पूरा हो जाना चाहिए।
यह भी कम विचित्र नहीं है कि इस बार के बजट में जब शिक्षा की आबंटन राशि में अठारह फीसद का इजाफा किया गया था तो मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा था कि अर्थव्यवस्था के मुश्किल दौर में इस वृद्धि का स्वागत किया जाना चाहिए। आखिर मंत्रालय किस बिना पर इस राशि को पर्याप्त मान रहा था कि तीन-चार महीनों के फेर में ही उसका आकलन गलत साबित हो गया।
जाहिर है कि इसे सिर्फ तकनीकी गलती नहीं माना जा सकता। यह खर्च के गणित की नासमझी नहीं बल्कि जन सरोकारों को आधे-अधूरे ढंग से निपटाने की प्रवृत्ति है। इसलिए इस हीलाहवाली को सिर्फ सरकार के मत्थे मढ़ने के रिवायती तरीके के बजाय उन वृहत्तर कारणों की शिनाख्त की जानी चाहिए जिनके चलते शिक्षा जैसे अधिकार को इस तरह काट-छांट दिया जाता है कि जब कोई उसे बुनियादी अधिकार बताता है तो कोफ्त होती है।
याद करें कि शिक्षा अधिकार कानून को लेकर जो उत्साहपरक माहौल बना था उसकी जड़ में कहीं यह जन-कल्याणकारी आश्वस्ति थी कि सरकार सिर्फ पूंजी, कॉरपोरेट और निजी हितों की संरक्षक नहीं है बल्कि उसे देश के गरीबों की भी चिंता है। और यह भी कि उसने निजी स्कूलों को कानून के दायरे में लाकर अपने जनपक्षधर होने का सबूत दिया है। यहां हमारा आशय कानून के उस प्रावधान से है जिसके तहत निजी स्कूलों को अपनी क्षमता की पचीस फीसद सीटों पर गरीब और वंचित वर्गों के बच्चों को दाखिला देना होगा। लेकिन इसी के साथ यह भी याद करें कि कानून बनते ही शिक्षा में निजीकरण के पैरोकार किस तरह संगठित हो गए थे और उन्होंने इस कानून को उच्चतम न्यायलय में चुनौती दे डाली थी कि यह उनके शिक्षण संस्थाएं चलाने के अधिकार का हनन है। गनीमत यह रही कि न्यायालय ने यह दलील नहीं मानी। इसी साल जब उसका यह फैसला आया कि कुछ अपवादों को छोड़ कर कानून सभी तरह के स्कूलों पर लागू होगा तो उसे एक बार फिर जनता की जीत बताया गया।
तब यह बात एक बार फिर बिसरा दी गई कि सिर्फ छह से चौदह साल के बच्चों को शिक्षा का अवसर देकर कोई कानून कैसे बुनियादी अधिकार की श्रेणी में रखा जा सकता है? क्या बचपन सिर्फ इसी अवधि के बीच फलता-फूलता है? क्या इससे पहले और बाद के वर्षों में बच्चों को शिक्षा की जरूरत नहीं होती? जिन्होंने यह सोचने और कहने की जुर्रत की कि सिर्फ आठ साल की स्कूली शिक्षा के बाद बच्चों का

क्या भला हो जाएगा, उन्हें सनातन सिरफिरे कह कर चुप कर दिया गया।         
असल में देश में शिक्षा की आम स्थिति पर नजर डालें तो शुरुआती धुंधलके के बाद यह साफ होने लगता है कि शिक्षा में निजीकरण की हिमायत करने वाले स्वार्थ समूहों और भारतीय राज्य के चरित्र में कोई खास अंतर नहीं रह गया है। अगर निजीकरण के समर्थक सार्वभौम शिक्षा अधिकार को पहले ही कदम पर सफल होते नहीं देखना चाहते तो खुद सरकार भी अपनी जन-प्रतिबद्धताओं और दबावों के लिहाज से उतना ही करना चाहती है जिससे न आम जनता उसके   विरोध में जाए और न ही वह लॉबी बिफर जाए जो देश के संसाधनों पर परंपरा और कानूनी ढांचे के तहत नियंत्रण करती आई है। गहराई से देखें तो निजी शिक्षा के पैरोकारों द्वारा कानून बनते ही न्यायालय की शरण में जाना विरासत और कानून से मिले उस संरक्षण की ही प्रतिक्रिया थी। इस वर्ग को लगता है यह देश और उसके संसाधन नैसर्गिक रूप से उसी के हैं, जबकि देश के वंचितों को यह नहीं लगता कि वे कुछ भी अधिकार से मांग सकते हैं।
बहुत-से लोगों को लगता है कि सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद अब निजी स्कूल खुलेआम इस कानून का उल्लंघन करने की हिमाकत नहीं करेंगे, लेकिन यह बात कौन नहीं जानता कि शिक्षा के निजीकरण से मुनाफा कूटने वाली लॉबी इस मसले को किसी न किसी बहाने खुद कानून की ही प्रक्रिया में फंसाए रख सकती है। गौर करें कि जैसे-जैसे भारत भौगोलिक अभिव्यक्ति (अंग्रेज प्रशासक ऐसा ही सोचते थे) से उठ कर एक राष्ट्र के रूप स्थिर होता गया है वैसे-वैसे देश के अभिजन समूहों की ताकत बढ़ती गई है।
नतीजतन, इससे पहले कि दुर्बल नागरिक समझ पाएं कि यह देश उनका भी है, अभिजन समूह सत्ता पर अपनी पकड़ और मजबूत करके विकास और प्रगति के मुहावरे गढ़ लेते हैं। देश के रोजमर्रा के लोकतंत्र में ऐसे मुहावरों का जाप चलता रहता है। वर्चस्वशाली समूह संविधान के संकल्प दोहराते हुए ठीक ऐसा करते जाते हैं कि बराबरी, साधनों के न्यायपूर्ण बंटवारे और कमजोर वर्गों को आर्थिक रूप से सबल बनने वाली प्रक्रियाएं मजबूत न होने पाएं। अलग से कहने की जरूरत नहीं कि वर्गीय विशिष्टता के आग्रह से उपजी यह मानसिकता रातोंरात खत्म होने वाली नहीं है। 
गौर से देखें तो शिक्षा अधिकार को मुकम्मल तौर पर लागू करने में सिर्फ धन की कमी एकमात्र समस्या नहीं है। उसके सामने सबसे बड़ी बाधा नवउदारवाद का वह तर्क और नीतिगत माहौल है जो आर्थिक स्वार्थ-समूहों ने अपने पक्ष में खड़ा किया है और जिसमें शिक्षा किसी भी अन्य व्यवसाय की तरह एक आर्थिक उपक्रम यानी मुनाफे का धंधा बन गई है। अब स्कूलों का विज्ञापन इस तरह किया जाता है गोया किसी होटल या रिसोर्ट की सुविधाओं का बखान किया जा रहा हो। देश के छोटे-बडेÞ नगरों और उनसे लगे इलाकों में खुल रहे उच्चवर्गीय स्कूलों को देख कर और सतत प्रचार के चलते निम्नवर्गीय मानस भी इस खुशफहमी का शिकार हो सकता है कि जैसे पूरा देश अमेरिका बन जाएगा। लेकिन हकीकत यह है कि ऐसी संस्थाएं समाज में विषमताओं को गहराने का काम कर रही हैं। नवउदारवाद जनकल्याण के कार्यों को अर्थव्यवस्था पर गैर-जरूरी बोझ मानता है।
पिछले दो दशक में इस सोच के चलते सरकार ने भी जैसे यह मान लिया है कि शिक्षा का कोई सार्वभौम और समान ढांचा जरूरी नहीं है। जिसकी जैसी हैसियत है उसके लिए वैसे स्कूल उपलब्ध हैं। जो महीने में पांच हजार का खर्च वहन कर सकते हैं वे अपने बच्चों को वातानुकूलित और कथित अंतरराष्ट्रीय स्तर वाले स्कूलों में भेज सकते हैं और जिनके पास साधन नहीं हैं उनके लिए सरकारी और गली-मुहल्लों के निम्नवर्गीय स्कूल हैं। कहना न होगा कि भारत जैसे विषमतापूर्ण समाज में बेहतर हैसियत के लोग संसाधनों का बड़ा हिस्सा डकार जाना चाहते हैं। और ऐसा करते हुए उन्हें इस बात की परवाह नहीं होती कि देश-समाज के आम बच्चों को किस तरह की शिक्षा मिल रही है।
बहरहाल, अगर सरकार समाज के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करती है, जो कि सिद्धांतत: उसका दायित्व भी है, तो फिर सवाल उठता है कि उसे समान शिक्षा प्रणाली लागू करने से कौन रोकता है? और यहीं से यह सवाल राज्य की प्राथमिकताओं तक जाता है। आखिर अब जिस शिक्षा अधिकार को संविधान के 21-ए में वर्णित जीवन के अधिकार के समकक्ष दर्जा दिया गया है वह लोकतंत्र के छह दशकों तक क्यों नीति-निर्देशक तत्त्वों में दबा रहा?
लोक में सरकार का एक अर्थ यह भी होता है कि वह जो चाहे कर सकती है। अगर बुनियादी शिक्षा उसके लिए वाकई कोई सरोकार है तो न उस पर होने वाले व्यय के आंकड़ों में गफलत होती और न धन की कमी पड़ती। एक आधे-अधूरे अधिकार को लेकर भी जब सत्ता का रवैया यह है तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि जनता के बाकी मसले उसके एजेंडे में कहां होंगे!

(जनसत्ता से साभार)