Saturday 19 January 2013

बिखरते समुदाय ,विभाजित स्कूल और बिचौलिया राज्य: नन्ही कली कार्यक्रम के सबक

सत्र 2011-12 के आरम्भ में दिल्ली नगर निगम के शिक्षा विभाग ने  keshub mahindra trust और naandi foundation द्वारा चलाये जा रहे "नन्ही कली" कार्यक्रम  को 15 प्राथमिक स्कूलों में चलाने की मंजूरी दी. इस कार्यक्रम के  तहत प्रथम से पाँचवी तक की छात्राओं को छुट्टी के बाद स्कूल में ही 2 घंटों के "academic support" देने की व्यवस्था है. साथ ही "kit" देने की व्यवस्था भी है. kit में एक बस्ता, दो जोड़ी वर्दियां, जूते, मोज़े, कुछ अन्तःवस्त्र, कॉपियाँ, बेल्ट और कुछ स्टेश्नरी होती हैं. नंदी की एक रिपोर्ट के अनुसार ये कार्यक्रम 9 राज्यों में चलाया जा रहा है और इसमें  लगभग 70000 लडकियां शामिल हैं.
  
नन्ही कली एक ऐसा प्रायोजित कार्यक्रम है जिसमें निजी व संस्थाई स्तर पे लोग भारत में किसी लड़की की स्कूली शिक्षा को आर्थिक समर्थन देकर, प्रचार के अनुसार, उसके "पालक" बन सकते हैं. वो लड़की दानदाता की नन्ही कली कहलाती है और संस्था द्वारा समय-समय पर लड़की की फोटो व निजी, शैक्षिक  जानकारियाँ प्रायोजित करने वाले को भेजी जाती हैं. इसका प्रचार seminar पत्रिका में नियमित रूप से आता है और कहता है, 'यह श्रेया है. इसके माता-पिता इसे छोड़कर ग़ायब हो गए', 'इसका दुनिया में कोई नहीं है', 'इसके माता-पिता इसे स्कूल नहीं भेज सकते' आदि. 'academic support', जोकि tuition के नाम से ही प्रचलित है, 12वीं पास लडकियाँ देती हैं जिनमें से अधिकतर पत्राचार से कोई कोर्स कर रही हैं और जिनके पास शिक्षण का कोई प्रशिक्षण नहीं है. इन्हें 1200-1400 रूपये महीना मिलता है और संस्था इन्हें कहीं community volunteer तो कहीं tutor कहती है. पहले साल स्कूल की हर छात्रा को kit दी गयी जबकि tuition के लिए रुकने वाली छात्राओं की संख्या औसतन 15% रही. इसी तरह हर छात्रा की फोटो खींची गई जबकि इसके बारे में अभिभावकों को कोई जानकारी नहीं दी गई और शिक्षकों को यही बताया गया कि इनसे आई-कार्ड बनेंगे, जोकि झूठ साबित हुआ. जिस स्कूल के बारे में हमारे पास करीबी अनुभव हैं उसमें दूसरे साल kits सिर्फ उन्हीं छात्राओं को दी गईं जिनका नाम कार्यक्रम में किसी न किसी समय नामांकित था. उक्त स्कूल में, शायद हमारे निरंतर विरोध के चलते संख्या में आई गिरावट के कारण, जब kits इस शर्त पर भी बाँटी गई कि tuitions में नाम लिखवाकर रुकना होगा तब भी रुकने वाली छात्राओं की संख्या कभी 40% से ऊपर नहीं गई - वो भी 3-4 दिन। 

पूरा कार्यक्रम घोषित रूप से PPP के राजनीतिक दर्शन पे खड़ा है. इसे हमें वर्तमान दौर की उस स्थिति  में समझना होगा जिसमें उत्तरी दिल्ली नगर निगम की शिक्षा समिति की अध्यक्षा लगातार स्कूलों को सुधारने के नाम पे कॉरपोरेट संस्थाओं और NGOs को आमंत्रित कर रही हैं. इसका एक उदाहरण वह घोषणा है जिसमें उत्तरी निगम के कुछ 'मॉडल' स्कूलों के विद्यार्थियों की वर्दी सिलवाकर देने का काम किसी 'प्रतिष्ठित ' NGO के हवाले करने की बात की गई थी. यह इसलिए भी उल्लेखनीय है क्योंकि पिछले साल तक तो निगम के हर विद्यार्थी को जनकोष से वर्दी उपलब्ध कराने की ज़िम्मेदारी निगम निभा रही थी. PPP की नीति का कलमा पढ़ती सरकारों से ये उम्मीद करना भी बेमानी है कि वे प्राथमिक अधिकारों तक की संवैधानिक व सम्मानपूर्ण व्यवस्था करेंगी। 


चूंकि सरकारी स्कूल व्यवस्था में इस तरह के CSR प्रायोजित कार्यक्रमों की सुनियोजित घुसपैठ करायी जा रही है इसलिए इस उदाहरण से हम इस नीति के जनविरोधी चरित्र को समझ सकते हैं। न केवल उक्त कॉर्पोरेट संस्था ने वरन स्वयं निगम के शिक्षा विभाग ने इस बात को स्वीकार कर लिया कि 5 से 11  साल की किसी छात्रा का रोज सुबह 7 बजे घर से निकल कर स्कूल के बाद दोपहर साढ़े तीन बजे तक घर पहुंचना स्वास्थ्य और अधिगम की दृष्टि से कोई बुरा असर नहीं डालेगा। फिर जिस काम को प्रशिक्षित, नियमित शिक्षक 4-5 घंटे पढ़ाकर अगर नहीं कर पा रहें हैं तो उसे कम शिक्षित, अप्रशिक्षित व न्यूनतम मेहनताने से भी कम पाने वाले व्यक्ति 2 घंटों में कैसे अंजाम दे देंगे? ऐसे में शिक्षक प्रशिक्षण के महत्व और अनिवार्यता को ऐसे कार्यक्रम तथा नीतियां निरर्थक साबित करने का प्रयास कर रहीं हैं। छात्राओं व उनके अभिभावकों को,पूछना तो दूर , बिना बताये ही  छात्राओं की फोटो दानदाताओं को भेज कर उन्हें अजनबी रईसों की नन्ही कलियाँ करार देना केवल 'सूचित सहमति' (INFORMED CONSENT ) को दरकिनार करने का प्रश्न ही नहीं है बल्कि  निजता का हनन  भी  है। यह भी देखने में आया कि जब कोई छात्रा  छुट्टी के बाद ट्यूशन के लिए रुकना नहीं चाहती थी तो उसे जबरन रोका जाता था और कभी बैग वापिस करने के ताने भी सुनाये जाते थे। नि:संदेह इसमें ट्यूटर्स से कहीं अधिक जिम्मेवार कार्यक्रम के संचालक व इसका दर्शन है। संस्था की मैनेजमेंट को भेजे गए 3 ईमेल में  से किसी का भी जवाब नहीं आया और इस तरह संस्था ने वह नहीं स्वीकारा  जो कि ज़मीन  पर होता दिख रहा था- कि छात्राएं इन ट्यूशन को  छोडती भी रहती थी, चाहे थकान और भूख के कारण  या फिर  पढ़ाई  के असंतोषजनक स्तर के कारण। वहीँ किट में दी गयी बेल्ट (जिसपे स्कूल या निगम की पहचान नहीं है बल्कि, कॉपियों की ही तरह, ट्रस्ट व फ़ौंडेशन के नाम लिखे हैं) को पहने हुयी छात्राओं  को देखकर एक साथी शिक्षिका के ही शब्दों में, "कोई नहीं कह सकता कि ये हमारे (निगम के ) स्कूल में पढ़ती हैं।" इस प्रकार छात्राओं को 'प्रायोजित' करके निजी संस्था का चलता- फिरता इश्तेहार बना दिया गया । 
इन विद्रूपताओं को एक सूत्र में समेंटें तो नज़र आता है कि इनका आधार वह विचार और व्यवस्था है जिसमें कुछ विशेष वर्गों के बच्चों के लिए तो श्रेष्ठ पैमाने हैं और अन्य बच्चों के लिए कामचलाऊ तरकीबों के झुनझुने. निजी पूँजी की लुभावनी छवि बनाते कॉरपोरेट NGOs और खुद सरकारें भी  निजता, अधिकार, चयन, आत्म-सम्मान, प्रशिक्षित नियमित शिक्षक और समग्र-आलोचनात्मक शिक्षा जैसे अनिवार्य मूल्यों को सरकारी स्कूलों में पढने वाले बच्चों के लिए निरर्थक साबित करने में लगी हुई  हैं. शिक्षा को बाज़ार की राजनीति के सहारे ख़रीद-फ़रोख्त और मुनाफे की वस्तु बनाने पर आमादा शक्तियाँ बड़े गर्व व उदारता से ये प्रचारित कर रही हैं कि मेहनतकश वर्गों के बच्चों को अमीरों के परोपकार से (दोयम दर्जे की ) शिक्षा दी जाएगी. इन बच्चों के लिए तो दान-खैरात से पढना-लिखना-हिसाब सीखकर रोज़गार के नाम पर निजी पूँजी को तुष्ट और संतुष्ट करने वाली नौकरी पाना ही मुक्ति, विकास व सफलता का एहसान है.

नवम्बर के प्रथम सप्ताह में शिक्षा विभाग ने  लम्बे पत्राचार की कड़ी में यह सूचित किया कि नन्ही कली कार्यक्रम को इस सत्र के लिए अनुमति नहीं थी जबकि तब तक ये 10-12 स्कूलों में तो चल ही रहा था ! इस दौरान संस्था द्वारा भी रिपोर्ट के आँकड़ों व कार्यकर्ताओं के स्तर पर झूठ बोला जाता रहा. असल में, अभिभावकों को तो क्या अधिकतर शिक्षकों को ही आरम्भ में ये नहीं पता था कि कार्यक्रम निजी व प्रायोजित है और किस दर्शन पे खड़ा है. जिन स्कूलों में कार्यक्रम के विरोध को लेकर अभिभावकों से बात नहीं की जा सकी वहाँ तो अंत तक इसे सरकारी माना जाता रहा. सरकार व कॉरपोरेट ताकतें ठेके की बाजीगरी से निजी और राजकीय के बीच के नैतिक अंतर के बारे में ग़लतफहमी और धुंधलका बढ़ा रही हैं. सार्वजनिक स्थलों व निकायों में निजी ताकतों को CSR के नाम पे जगह देकर, संज्ञानात्मक छल के द्वारा सरकारें निजी शक्तियों को शिक्षा में एकाधिकारवादी वर्चस्व देने के लिए अपने संवैधानिक दायित्व से मुक्त होना चाह रही हैं. चिंताजनक ये है कि राज्य का वर्तमान चरित्र ऐसा है कि न सिर्फ कॉरपोरेट संस्थाओं की ये जुर्रत हो रही है कि             वे 'वंचित' और 'सामाजिक दायित्व ' जैसे राजनीतिक रूप से उचित शब्दों का इस्तेमाल करके लोगों के लिए किसी भी तरह के अपमानजनक कार्यक्रम प्रस्तावित कर रही हैं बल्कि राजकीय व्यवस्था स्वयं बेशर्मी और हिमाक़त से इन्हें प्रगति के नाम पे प्रेरित कर रही है  लोकतंत्र व समानता में विश्वास रखने वाले इसकी मंजूरी नहीं दे सकते और एकजुट होकर इसका  विरोध करते रहेंगे.

Wednesday 9 January 2013

शिक्षक डायरी : कहने भर को सह-शिक्षा विद्यालय

परिवार के स्तर से शुरू होकर स्त्री और पुरुष के बीच बराबरी का मूल्य विद्यालय स्तर पर पैदा और पुख्ता किया जा सकता है, जिससे दोनों लिंगों के बीच समझदारी और सम्मान का भाव विकसित हो सके, पर हमारे समाज में इस पर विचार नहीं हो रहा है। परिवार से जो गैर बराबरी के मूल्य लड़के - लड़कियों को मिलते हैं विद्यालयों में भी उन पर अमल किया जा रहा है, अगर कोई अध्यापक स्कूल के स्तर पर बराबरी का मूल्य  देना चाहे तो अक्सर उसे निराश होना पड़ता है ......

 लोक शिक्षक मंच ब्लॉग के लिए शिक्षक साथियों को अपने विद्यालयी अनुभव साझा करने को आमंत्रित करता है। इस कड़ी में निगम विद्यालय के एक शिक्षक साथी की डायरी का अंश प्रस्तुत है।  ......

( यह आवश्यक नहीं है कि इस लेख  में दर्ज विचारों से मंच की सहमति हो।)


साथियों, 

मैं शिक्षक के पेशे को बहुत पसंद करता था और ख़ासतौर पर प्राथमिक शिक्षण को। मुझे एक शिक्षक के रूप में कार्य करते हुए लगभग छ: साल हो गए हैं। वैसे तो इतने समय में काफी खट्टे-मीठे अनुभव रहे हैं लेकिन अभी हाल ही में एक ऐसा अनुभव रहा जिसने मुझे काफी बदल दिया। इस अनुभव को मैं आपके साथ साझा करने जा रहा हूँ।
मैं वर्तमान में एक सह-शिक्षा विद्यालय में कार्यरत हूँ। इस विद्यालय में मैं अप्रैल से कार्य कर रहा हूँ। जब मुझे अपनी कक्षा मिली तो मैंने नोटिस किया की यह सिर्फ कहने भर को सह-शिक्षा विद्यालय है वास्तविकता तो कुछ और है। एक कमरे को दो हिस्सों में, आधा लड़कियों के लिए व आधा लड़कों के लिए, बांटा हुआ था। हमारी संसद ने भी अभी तक पचास प्रतिशत महिला आरक्षण विधेयक पास नहीं किया है लेकिन मेरी कक्षा की भूतपूर्व अध्यापिका ने तो यह नियम कक्षा में लागू भी कर दिया था! मैंने पाया कि कक्षा की लड़कियां लड़कों से दूर रहना ही पसंद करती हैं, एक साथ डेस्क पर बैठना तो उनकी सोच से भी परे है। मैं हमेशा से ही शिक्षकों की बजाय बच्चों के बीच ही रहना पसंद करता हूँ। मैं कक्षा में भी श्यामपट्ट पर कार्य कराने के बाद खाली समय में बच्चों के साथ डेस्क पर बैठ जाया करता हूँ। मैंने धीरे-धीरे लड़के व् लड़कियों दोनों से बात करनी शुरू की और  उनके बीच अंतर को दूर करने की कोशिश की लेकिन कुछ खास कामयाबी हासिल नहीं हो पा रही थी। फिर मैंने एक डेस्क पर एक लड़के और एक लड़की को बैठने को कहा। लड़कों ने तो कोई विरोध नहीं किया। लड़कियों ने सामने तो कोई विरोध नहीं किया लेकिन  उनकी मन: स्थिति को मैं समझ गया था। ऐसा चलता रहा और नवम्बर माह के शुरुआत में मुझे बच्चों का टेस्ट लेना था। मैंने देखा कि कुछ लड़कियों का एक ग्रुप है और वो आपस में नक़ल करती हैं। मैंने उन लड़कियों को दूर-दूर बिठा दिया और उनके साथ एक लड़के को बिठाया ताकि वो आपस में नक़ल न कर सकें। ऐसा करने के बाद उन लड़कियों के काफी कम अंक आये। मुझे पता चला कि कुछ लड़कियों के घरवालों ने पूछा कि  इतने कम अंक क्यों आये हैं। शायद उनकी घर पर व् ट्यूशन में  पिटाई भी हुई हो। उनसे कम अंक आने का कारण पूछा गया तो उन्होंने कहा कि वे कक्षा में पढ़ नहीं पाती क्योंकि सर उनके साथ एक लड़के को बिठाते हैं और इस कारण कक्षा में  उनका मन भी नहीं लगता। सर जबरदस्ती हमें लड़कों के साथ बिठाते हैं और उनसे बात करने को कहते हैं और एक लड़की ने तो यहाँ तक कह दिया कि सर भी हमारे साथ बैठ जाते हैं, कभी हमारे सर पर हाथ रखते है। यह सब बातें उन लड़कियों ने ट्यूशन में बताई क्योंकि वे सभी लड़कियां एक ही जगह ट्यूशन पढ़ती थीं। उनके साथ एक लड़का भी था जिसने मुझे वहां हुई बातचीत के बारे में बताया। उनकी ट्यूटर ने कहा, "मुझे लगता है कि तुम्हारे सर ही बदतमीज हैं, अपने घरवालों को लेकर प्रधानाचार्या के पास जाओ और उनकी शिकायत करो, साथ ही अपना सेक्शन बदल लेना।" अगले दिन उन लड़कियों के माता-पिता विद्यालय आ गए। मैं इस घटना से स्तब्ध रह गया। मेरी प्रधानाचार्या ने मेरा पूरा पक्ष लिया जिसकी मुझे बिलकुल उम्मीद नहीं थी। उन्होंने साफ़ मना कर दिया कि किसी बच्चे का कोई सेक्शन नहीं बदला जाएगा। उनमे से एक लड़की के पिता ने तो कहा कि हमारी लड़की तो इन सर के पास ही पढ़ेगी, सर अच्छा पढ़ाते हैं। मुझे उस दिन अपने आप पर बहुत गुस्सा आया। मुझे लगा कि ज्यादा अच्छे तो  वो लोग हैं जो बच्चों से कोई मतलब नहीं रखते, इन बच्चों को हीन दृष्टि से देखते हैं। मुझे उन अभिभावकों की यह सोच अच्छी नहीं लगी। मैं परेशान इस बात से भी था कि यदि यह मामला क्षेत्रीय कार्यालय पहुँच जाता तो मेरे लिए कितनी शर्मनाक बात होती। मैं किसी से आँखे मिलाने के काबिल नहीं रहता और मेरी बात का कोई यकीन भी नहीं करता। यह सोच कर मैं बहुत परेशान रहने लग गया था। मैं उन बच्चों से नफरत करने लग गया था। मेरा विद्यालय जाने का मन नहीं करता था। एक दो दिन बाद ही मुझे लगभग 10 दिन के लिए अवकाश पर जाना था। मैं यह सोच कर राहत महसूस कर रहा था कि अब दस दिनों के लिए उनकी शक्ल नहीं देखनी पड़ेगी। इस बीच मैंने तय किया कि मैं इस पेशे को जल्द से जल्द छोड़ दूंगा क्योकि चाहे आपने कितने भी साल अच्छा किया हो कोई मायने नहीं रखता। एक छोटी सी गलती आपके कैरियर के साथ आपकी जिन्दगी भी  बर्बाद कर सकती है। मैंने तय किया है कि मैं कोई और पेशा चुनूँगा जहाँ पर कम से कम इज्जत तो सुरक्षित रहेगी। अवकाश पर रहने  के बाद विद्यालय  ज्वाइन करने पर मैंने तटस्थ रहना शुरू कर दिया। अब मुझे बच्चों से ज्यादा मतलब नहीं होता कि वो पढ़ाई कर रहे हैं या अपना समय बर्बाद कर रहे हैं। मेरे लिए वो अब स्लम में रहने वाले बच्चे हैं जैसाकि बाकी के टीचर सोचते हैं। यह मेरी वर्तमान की सोच है। मुझे पता है मेरी यह सोच गलत है। मुझे ऐसा नहीं सोचना चाहिए लेकिन आज भी मैं उस घटना को याद करता हूँ तो लगता है कि एक नई जिन्दगी मिल गई। यदि मामला शांत नहीं होता और क्षेत्रीय कार्यालय पहुँच जाता तो मेरे पास आत्म-हत्या के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। हो सकता है कि वक्त के साथ मेरी सोच बदल जाये क्योंकि कहा जाता है कि वक्त हर घाव और जख्म  को भर देता है। आप सबकी प्रतिक्रियाएं आमंत्रित हैं।