Friday 1 March 2013

शिक्षक डायरी : सरस्वती पूजा: कुछ अवलोकन

सरस्वती पूजा: कुछ अवलोकन

15 फ़रवरी को मुझे याद नहीं था कि बसंत पंचमी है पर एक साथी के याद दिलाने और सुझाव पर आदतन मैंने सभा- जी हाँ, प्रार्थना सभा- के बाद इसपे कुछ कहा। मैंने साधारण बातें हीं कहीं मगर ये जोर देकर कहा कि यह धार्मिक त्योहार नहीं है। जब मैंने माइक छोड़ा तो एक साथी ने मुड़कर मुझसे कहा,'फिरोज़, आज सरस्वती पूजा भी है'. उन्होंने यह बात बहुत ही सामान्य लहजे में कही। पिछले 13 सालों में स्कूल में इस अवसर को सिर्फ एक बार किसी शिक्षक ने औपचारिक रूप से विद्यार्थियों के समक्ष सभा के स्तर पे रखकर प्रोत्साहित व आरोपित किया था - उन्हें कहा गया था कि वे दीवार पे टाइल्स से चित्रित सरस्वती को फूल अर्पित और नमन करते हुए जाएँ. इसके पूर्व दिवाली पर तो कुछ छात्राओं द्वारा आरती लेकर घूमने और लगभग हर कक्षा में, विशेषकर त्योहारों पर, देवी-देवताओं के चित्र-कैलेण्डर लगाने का चलन रहा है। मगर ये भी हमेशा से नहीं हो रहा था बल्कि पिछले कुछ सालों में शुरु होकर बढ़ा है। आज भी हमारे अपने स्कूल के अन्दर ही यह लोकप्रिय तो है पर सार्वभौमिक नहीं. इस तरह के अनुभव बताते हैं कि जिन परिघटनाओं को हम स्वतःस्फूर्त मान रहे होते हैं उनमें से सभी वैसे नहीं होते. कई सांस्कृतिक -धार्मिक अभिव्यक्तियाँ सत्ता द्वारा प्रायोजित होती हैं.हाँ,होली के प्रति बहुत से विद्यार्थियों में उत्सव की प्रतिक्रिया होती है जो कि सीधे शिक्षकों द्वारा प्रेरित नहीं होती. शायद इसी तरह हम दिवाली पे कुछ विद्यार्थियों द्वारा पटाखे चलाने को देख सकते हैं। उस दिन मेरी कक्षा में छात्राओं के दो समूह आरती लेकर आये। यहाँ यह याद दिलाना ज़रूरी है कि हमारे स्कूल की हर कक्षा के 5-10 sections हैं। मैंने थोड़ी सी मिठाई उठा ली और बिना आरती लिए उन्हें क्लास में उपस्थित दूसरे शिक्षक के पास भेज दिया। कई साल पहले जब एक बार कुछ छात्राओं ने कक्षा से बाहर, अन्य शिक्षकों के सामने मेरे सामने आरती प्रस्तुत की थी तो मैंने बहुत साहस करके, एक छात्रा के सर पे हाथ फेरते हुए, कहा कि मैं तो इसे नहीं मानता हूँ. इस तरह की चुनौती हमारे स्कूलों में हर उस व्यक्ति के सामने आती रहती है जो अपने विश्वास को यूँ ही नहीं लेता। ज़रूरी नहीं कि ये सभी अवसर धार्मिक प्रकार के हों-कई सांस्कृतिक कहलाने वाले कार्यक्रमों व सामान्य बातचीत में भी ऐसे बहुत कुछ होता है जिससे हमें गहरी असहमति होती है और कई दफा तो उस वक़्त प्रतिक्रिया करने का मौक़ा नहीं होता। फिर उस दिन दिल्ली प्रशासन  के पड़ोसी स्कूल में छठी कक्षा के कुछ विद्यार्थी -जोकि पांचवीं तक हमारे स्कूल में पढ़ते थे-एक बजे के बाद अपने पुराने शिक्षक से मिलने हमारे स्कूल आए। मेरे पूछने पर कि उनके बस्ते कहाँ थे, उन्होंने बताया कि उस दिन उनको बस्ते लाने के लिए मना किया गया था और स्कूल में पूजा के बाद ही छुट्टी होनी थी। इतने सालों के अवलोकनों के बाद भी यह घटना अभूतपूर्व लगी। स्कूल में प्रशासन के उस स्कूल में दिए जा रहे संबोधन की आवाज़ आ रही थी. एक वयस्क स्वर -शिक्षक या प्रधानाचार्य-कह रहा था कि  स्कूल में केवल सरस्वती की मूर्ति  लगनी चाहिए. ऐसे में यह जानना रोचक होगा कि फिर वे स्कूल में लगे धार्मिक चित्रों और कैलेंडरों को किस नज़र से देखेंगे. हमें यह भी समझना होगा कि पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार के काल में भी और असम की कॉंग्रेसी नेतृत्व की सरकार के दौरान भी कैसे सरकारी स्कूलों में सरस्वती पूजा मनाई जाती रही है. मेरे पास इसके बारे में कोई पुख्ता जानकारी या अध्ययन नहीं है। इन दोनों राज्यों में अगर यह परम्परा सहज रूप धारण कर चुकी है तो फिर इसका विश्लेषण इस सन्दर्भ में और रोचक हो जाता है कि दोनों जगहों पे मुसलमान बड़ी संख्या में हैं  और राजनीतिक रूप से उतनी असहाय स्थिति में नहीं हैं। अगले दिन एक अन्य विद्यार्थी से मुलाक़ात हुई तो पूछने पे उसने बताया कि 'शुक्ला सर' ने मूर्ति रखकर-शायद उसने 'ऑफिस के बाहर' कहा था -मन्त्र पढ़े थे। विद्यार्थियों को इर्द-गिर्द बिठाया गया था. मेरे यह पूछने  पर - मुझे लगता है कि शिक्षण शास्त्रीय उद्देश्य से , पर हो सकता है उसमें कुछ और पुट भी रहा हो -कि ऐसे में उन विद्यार्थियों का क्या होगा जो इसमें विश्वास नहीं रखते , उसने जवाब दिया कि वे हिस्सा नहीं लेंगे और कोई ज़बरदस्ती नहीं है.


उसी दिन जब मैं विश्वविद्यालय आया तो हमेशा की तरह एक हॉस्टल के मुख्य द्वार के कुछ पीछे सरस्वती का पंडाल लगा देख. दो विद्यार्थी बाहर खड़े थे और उन्होंने वहां से गुज़र रही दो छात्राओं को भीतर आमंत्रित किया. वे अन्दर चली गईं. मैं सड़क के दूसरी ओर था. बाद में मैंने सोचा कि अगर वे मुझे बुलाते तो मैं कैसे इंकार करता - टाल जाता कि साफगोई से काम लेता?


कई साल पहले अपने शैक्षणिक अनुभवों और फ़्रांस में राज्य के धर्मनिरपेक्ष होने के अर्थ -जोकि आज भी सरकारी स्कूलों में विद्यार्थियों तक को धार्मिक प्रतीक धारण करने पर प्रतिबन्ध लगाता है और जिसका विरोध पगड़ी व स्कार्फ को लेकर हुआ है -के सन्दर्भ में मैंने एक सिद्धांत गढ़ा था. मैंने विद्यार्थियों की धार्मिक-सांस्कृतिक अभिव्यक्ति को शिक्षण शास्त्र के इस उसूल पे स्वीकारने का अनमना फैसला किया कि यह उनके संसार का हिस्सा है और कम-से-कम प्राथमिक कक्षाओं के विद्यार्थियों के मन में यह सत्ता, प्रभुत्व और हिंसा का सचेत औज़ार नहीं होगा. वहीं, दूसरा उसूल यह बनाया कि सरकारी स्कूलों में धर्मनिरपेक्ष रहने की ज़िम्मेदारी सरकारी कर्मचारियों - यहाँ शिक्षकों - की है, बच्चों की नहीं. इस दूसरे आधार पे मुझे आज भी फ़्रांस की धर्मनिरपेक्षता की समझ अनुचित लगती है. इसी कड़ी में, अपनी मूल समझ में कुछ मजबूरी वाले और कुछ समझदारी वाले संशोधन करते हुए, आज मैं फिर एक नए निष्कर्ष पे पहुँच रहा हूँ. वो यह कि अगर एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के सरकारी स्कूलों में किसी आस्था विशेष के प्रतीक लगाए जा रहे हैं ,उससे जुड़े कार्यक्रम आयोजित किये जा रहे हैं तो कम-से-कम स्कूल प्रशासन, सम्बंधित शिक्षकों को यह तो घोषित रूप से प्रकट व स्वीकार करना चाहिए कि अमुक तत्व पूरे समाज, सभी आस्थाओं में मान्यनहीं है और वर्ग-जाति -धर्म -संस्कृति विशेष से ही जुड़ा है. साथ ही यह खुली और ईमानदाराना घोषणा भी होनी चाहिए कि सभी सदस्यों, चाहे वे विद्यार्थी हों या शिक्षक, को उक्त तत्व से स्वयं को अलग रखने की 'बेख़ौफ़ आज़ादी' है. यह नियम कितना व्यवहारिक होगा और इसका असर हमारे स्कूलों की पहले से ही विभाजित-बिखरी संस्कृति व पहचान पर क्या पड़ेगा, ये प्रश्न भी प्रासंगिक हैं . मगर इस सिद्धांत से व्यक्ति के विश्वास की स्वतंत्रता की सुरक्षा हो सकती है, भले ही इसकी कीमत समाज निर्माण व सरकारी स्कूलों की सामूहिकता की बलि देकर चुकानी पड़े. अब येविश्लेषण  मैं आप पे छोड़ता हूँ कि स्कूलों में धर्मनिरपेक्षता के मूल्य के अर्थ को लेकर ये मेरा ताज़ा संशोधन निराशा से उपजा है या परिष्कृत होती समझ से।