Sunday 26 May 2013

बढ़ते रोग का आखिरकार राजनैतिक गलियारे से विरोध

कुछ दिन पहले जनसत्ता व दैनिक जागरण में एक चार पंक्तियों की, छोटी सी खबर आई थी कि करूणानिधि ने तमिलनाडु के सरकारी स्कूलों में प्रथम कक्षा से शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी करने के फैसले का विरोध किया है. उसके बाद, मेरी नज़र में, इस महत्वपूर्ण खबर पर न तो अखबारों ने रिपोर्टिंग की और न ही कोई सम्पादकीय टिपण्णी की।
करुणानिधि द्वारा तमिलनाडु के सरकारी स्कूलों में शिक्षण माध्यम अंग्रेजी करने का विरोध करना एक विचारात्मक और साहसिक कदम है. उनका यह तर्क सही है कि एक बेगानी भाषा में स्वाध्याय की संभावना कम हो जाती है. मगर यह तर्क हर बेगानी भाषा के लिए लागू होगा , चाहे वो एक संथाली भाषी बच्चे के लिए हिंदी हो या फिर कश्मीरी भाषी के लिए उर्दू . करुणानिधि इस गंभीर परन्तु तेज़ी से अनदेखा किये जा रहे नीतिगत परिवर्तन पर प्रश्न इसलिए भी खड़ा कर सके क्यूंकि वो स्वयं साहित्यकार हैं और सांस्कृतिक पहचान की राजनीति से जुड़े रहे हैं . अफ़सोस तो इस बात का है कि इस विषय पर शिक्षकों की ओर से कोई हस्तक्षेप व बहस दिखाई नहीं देती . एक प्राथमिक शिक्षक होने के नाते मेरा न सिर्फ वैचारिक विश्वास है कि शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होनी चाहिए बल्कि कक्षाई अनुभव भी यह बताता है कि बच्चे उसी में बेहतर समझ बनाते हैं . अंग्रेजी अब पहली कक्षा से ही अधिकतर राज्यों के सरकारी स्कूलों में पढ़ाई जा रही है पर इसे माध्यम बनाने से सतही व लोकप्रचलित समझ का परिचय मिलता है . जनमानस का इस ओर दबाव समझ आता है क्योंकि प्रशासन , सरकार , व्यापार , न्यायपालिका आदि क्षेत्रों में अंग्रेजी का वर्चस्व कायम रख के हम लोगों से मातृभाषा का बीड़ा उठाने को कहेंगे तो दोगले ही कहलायेंगे . ज़रूरत इस बात की है कि न केवल सरकारी स्कूलों से बल्कि निजी स्कूलों से भी अंग्रेजी को माध्यम के रूप से हटाया जाये , सभी क्षेत्रों में जनमानस की भाषाओं को जगह दी जाये और अंग्रेजी की सांस्कृतिक पूँजी की औपचारिक -अनौपचारिक अनिवार्यता समाप्त की जाये तथा शिक्षा को समझ, संघर्ष और अस्मिता के चश्मों से देखा जाये, हीन-भावना, नक़ल और मात्र फूहड़ सफलता के कोणों से नहीं . एक सामयिक प्रश्न तो यह भी है कि जब शिक्षा का अधिकार कानून साफ़ कहता है की शिक्षा मातृभाषा में दी जाएगी, जहाँ तक संभव हो, तो फिर दिल्ली में हिंदी, उर्दू व पंजाबी  और तमिलनाडु में तमिल की जगह कौन सी  असंभव परिस्थिति सरकारों को अंग्रेजी को माध्यम बनाने को मजबूर कर रही है. मुझे लगता है कि इसका बड़ा जवाब भारत के वर्चस्व-प्राप्त वर्गों  व  जातियों की  ऊँच-नीच और पदानुक्रम की व्यवस्था तथा संस्कृति में आस्था है . अंग्रेजी उनके लिए आज एक लोकस्वीकृत पैमाना है कुछ की श्रेष्ठता  व विशिष्टता  की व्यवस्था को बनाये रखने का . यह भारत के सत्ताधारी समूहों की मानसिक बीमारी का भी परिचायक  है .

फ़िरोज़ अहमद


Monday 6 May 2013

सरकारी स्कूल व्यवस्था बचाओ!

साथियों ,
मुंबई महानगर पालिका के स्कूलों का अस्तित्व खतरे में है। मुंबई महानगर पालिका के 1174 विद्यालयों को, जो आज तक सफलता के साथ चल रहे थे, अब असफल कहकर, स्तर सुधारने के नाम पर मुनाफाख़ोर निजी संस्थाओं, एन. जी. ओ. एवं काॅरपोरेट कंपनियों को सांैपने का फैसला किया गया है। आज प्रत्येक क्षेत्र, चिकित्सा, पानी और शिक्षा में भी पी. पी. पी. के तहत एन. जी. ओ. व प्राइवेट कंपनियों की घुसपैठ बढ़ती जा रही है। मुंबई महानगर पालिका व इन मुनाफाख़ोर निजी संस्थाओं ने पी. पी. पी. के शिक्षा में बढ़ते हस्तक्षेप के लिए कुछ माॅडल भी दिए हैं। इसके एक मॉडल में सरकारी स्कूल की ज़मीन पर अधिकार कर निजी संस्थायें अपने शिक्षक व अन्य स्टाफ नियुक्त कर ‘अपना नया स्कूल’ चलायंेगी। दूसरे मॉडल में, एन. जी. ओ. सरकारी विद्यालयों में महानगर पालिका के स्टाफ के साथ अपने स्टाफ की नियुक्ति करेंगी। ये स्टाफ शैक्षणिक व प्रशासनिक मामलों में सहायता करेगा परन्तु गैर-शैक्षणिक कार्य नहीं करेगा। गैर-शैक्षणिक कार्यों का सारा भार नगर पालिका के शिक्षकों पर ही रहेगा। इसके साथ ही इन संस्थाआंे द्वारा नगर पलिका के शिक्षकों के शैक्षणिक कार्य का आंकलन कर, उनके स्थानान्तरण तक को निर्धारित किया जायेगा। तीसरा मॉडल वो है जो हमारे अपने स्कूलों में भी चल रहा है, जिसमें निजी संस्थाएं विद्यालयों को कुछ ‘सेवाएँ’ प्रदान करती हंै। यह मॉडल ऊपरी तौर पर देखने में भले ही सरल और मासूम लगता है, पर यह बडे़ खतरे की आहट है।
इसी तरह हरियाणा में भी सरकार की प्राथमिक विद्यालयों को निजी हाथों में देने की मंशा जग-ज़ाहिर है। हरियाणा सरकार कभी भारती एयरटेल तो कभी जिंदल तथा ब्रिटिश कौंसिल के हाथों में अपने स्कूलों को सांैपना चाहती है, जिसके खि़लाफ हरियाणा के शिक्षक लम्बे अरसे से संघर्ष कर रहे हैं। बात सिर्फ मुंबई या हरियाणा की ही नहीं है। दिल्ली के हमारे सरकारी विद्यालयों में भी निजी संस्थाओं का हस्तक्षेप अनेक रूपों में बढ़ता जा रहा है। दिल्ली में ही पी. पी. पी. की कड़ी में आगा खां फाउंडेशन ने निजामुद्दीन के निगम विद्यालय को ‘समुदाय की भलाई’ के नाम पर अपने अधिकार में ले लिया है। इस सरकारी स्कूल की भूमि पर स्कूल के बाद मुनाफ़े के लिए विभिन्न कोर्सों को चलाया जाता है। कुछ शिक्षक साथियों का अनुभव बताता है कि यह बताने के बाद भी कि वे निगम के ही शिक्षक हंै, उन्हें विद्यालय में प्रवेश नहीं दिया गया। 
नगर निगम विद्यालयों में पुस्तकालय के रूप में सहायता प्र्रदान करने वाला ‘प्रथम’ एन. जी. ओे‐ जहाँ अपने कार्यक्रम के प्रारंभ में होने वाली परीक्षा को मुश्किल बनाकर यह दिखाने की कोशिश करता है कि बच्चों की पढ़ाई का स्तर खराब है, वहीं बाद में अपनी परीक्षा को आसान बना कर, अच्छा परिणाम दिखाकर यह साबित करने की कोशिश करता है कि उनके अप्रशिक्षित (और मात्र 1500रू मासिक पाने वाले) ट्रेनर की वजह से बच्चों ने अच्छा प्रदर्शन किया। सरकारी स्कूलों में ही कार्य करते हुए, इस तरह की कई संस्थाएं अपनी रिपोर्ट में सरकारी स्कूल व्यवस्था की असफलता का कारण शिक्षकों का न पढ़ाना बताकर, सारा दोष शिक्षकों पर ही मढ़ती हैं। इसके अलावा दिल्ली नगर निगम के साथ देश के कई राज्यों में चलाया जाने वाला नांदी फाउंडेशन का ‘नन्हीं कली’ कार्यक्रम भी है, जिसमें अपनी छवि बनाने व लाभ कमाने के लिए काॅरपोरेट घराने द्वारा सरकारी विद्यालयों पर लोगों के विश्वास का फायदा उठाया जाता है। इसमें छात्राओं की निजता का हनन कर उनकी व्यक्तिगत जानकारियों व फोटो को अमीर लोगों तक पहुंचा कर, उनसे रहम के आधार पर दान इकट्ठा किया जाता है। ये तो बस कुछ उदाहरण मात्र हैं। केन्द्र सरकार भी पी‐ पी‐ पी‐ के तहत 2500 माॅडल स्कूल खोलने की तैयारी में है। 
भले ही ये घटनायें ऊपर से देखने में अलग-अलग लगती हंै, पर ये सरकार की नवउदारवादी आर्थिक नीतियों का ही हिस्सा हंै, जिसके परिणामस्वरूप बच्चों को गुलामी, लूटखसोट और स्वार्थ जैसे मूल्य ही दिए जाएंगे। यह हमारे संवैधानिक आदर्शों और शिक्षा के चरित्र पर भी हमला है। वक़्त की नजाकत को देखते हुए, हमें देश के अन्य राज्यों में सरकारी स्कूल व्यवस्था को बचाने व सुदृढ़ करने के लिए चल रहे संघर्षों के साथ अपनी एकजुटता दिखानी होगी और इस विरोध को एक देशव्यापी आन्दोलन का रूप देना होगा। आपके द्वारा किसी भी स्तर पर किये गए कार्य से इस संघर्ष को बल मिलेगा।


मैं खामोश रहा
जब उन्होंने मजदूरों का दमन किया
क्योंकि मैं मजदूर नहीं था।
मैं खामोश रहा
जब उन्होंने किसानों की जमीनें छीनी
मैं बिल्कुल नहीं बोला
क्योंकि न मंै किसान था, न वो मेरी जमीन थी
जब उन्होंने महिलाओं के साथ बलात्कार किया
मैं खामोश रहा
क्योंकि मैं महिला नहीं था, न ही वो मेरे घर की महिलाएं थी
जब उन्होंने आदिवासियों का कत्ल किया
मैं खामोश रहा
क्योंकि मैं आदिवासी नहीं था
जब उन्होंने अपने हक की आवाज को बुलंद करने वालों को जेल में ठूंसा और जुल्म ढाए
मैं खामोश रहा
क्योंकि मंै उनमें नहीं था
लेकिन जब वो मेरे पीछे आए
तब बोलने के लिए कोई बचा नहीं था
क्योंकि न तो मैं किसान था, न मजदूर, न महिला, न ही आदिवासी
मैं अकेला था
(निमूलर की कविता का रूपांतरित अंश)

लोक शिक्षक मंच
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