Wednesday 14 August 2013

मिड-डे-मील योजना: कुछ अनुभव और विचार


मिड-डे-मील योजना के संदर्भ में, हाल ही में घटित 23 विद्यार्थियों की मौत के मद्देनज़र, निम्नलिखित बातें ग़ौरतलब हैं।

1 . मूल रूप से योजना के उद्देश्य - जिनमें सभी बच्चों को पौष्टिक तत्वों से युक्त भोजन उपलब्ध कराना, स्कूलों में पढ़ाई के लिए उपयुक्त परिस्थितियाँ तैयार करके बच्चों के दाखिले व शिक्षा के स्तर को बढ़ाना तथा बराबरी के भाव का विस्तार करना शामिल हैं - बेहद महत्वपूर्ण हैं।
2 . बिस्कुट, ब्रेड आदि के विकल्पों से न सिर्फ पका भोजन श्रेष्ठ है बल्कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशानुसार भी अनिवार्य है।  वैसे भी, पैक्ड खाने के व्यापारिक घरानों द्वारा सरकार पर नीति बदलने के दबाव डालने की ख़बरें आती रही हैं। हाँ, भोजन में फलों और, तमिलनाडु की तरह, अण्डों को ( विकल्प  साथ ) सम्मिलित किया जाए तो बेहतर होगा। 

3 . बच्चों की पसंद-नापसंद को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। एक उदाहरण के तौर पर, दिल्ली के एक निगम प्राथमिक स्कूल में 1000 से ज्यादा बच्चों से पूछ कर जमा की गई जानकारी के अनुसार 42% ने पूड़ी-सब्जी को सबसे अधिक पसंद किया और 61% ने हलवा-चना सबसे नापसंद बताया। वैसे, यह सच है कि मिड-डे-मील में बच्चों के स्वाद के मुकाबले पौष्टिकता को कितना महत्त्व दिया जाए, यह कोई सरल निर्णय नहीं है। फिर भी, अगर भरपूर पौष्टिक भोजन बच्चों को इतना कम रास आ रहा है कि वो खा ही नहीं रहे तो ऐसे में विकल्पों को तलाशने की गुंजाइश होनी चाहिए। 

4 . शिक्षकों का एक बड़ा वर्ग यह महसूस करता है कि इस योजना के कारण स्कूलों में पढ़ाई पर नकारात्मक असर पड़ा है। इसको साबित करने के लिए कोई ठोस जाँच या अध्ययन नज़र नहीं आते पर यह समझ में आता है कि खासतौर से वहाँ जहाँ खाना स्कूलों में ही पकता है और इसके लिए पहले-से ही कम संख्या में नियुक्त शिक्षकों में से कुछ को इसकी ज़िम्मेदारी निभानी है, वहाँ यह निश्चित है कि पढ़ाई के लिए उपलब्ध समय व ऊर्जा में कमी ज़रूर आएगी। फिर हमारे कई स्कूलों में वो आधारभूत संरचनाएँ नहीं हैं जिनकी आवश्यकता इस योजना के उत्तम व सुचारू निर्वाह के लिए है। ऐसे में दुर्घटना होने की सम्भावना अपने-आप बढ़ जाती है। दूसरी तरफ, वो क्षेत्र हैं जहाँ खाना किसी NGO को दिए गए ठेके के तहत किसी केन्द्रीय किचन में पकता है और गाड़ियों से स्कूलों तक पहुँचाया जाता है। दिल्ली में यही स्थिति है और नियमित जाँचों में 80-90 % सैंपल मानकों पर खरे नहीं उतरने के बावजूद कार्रवाई NGOs के खिलाफ नहीं बल्कि शिक्षकों के विरुद्ध होती है। यह भी त्रासद, विडम्बनापूर्ण और महत्वपूर्ण है कि जो भोजन मानक पर ठीक नहीं उतर रहा उसे स्कूलों के 90 % बच्चे नियमित रूप से खा रहे हैं। ( उपरोक्त आँकड़ा, और व्यापक अनुभव भी, यही बताता है कि जहाँ 10-20 % बच्चे खाना नहीं लेते, फिर भी स्कूलों पर यह दबाव बनाया जाता है कि वो सत्यापित करें कि सभी ने खाना लिया - जोकि साफतौर से असंभव है - ताकि NGOs को अधिकाधिक लाभ पहुँचे। )माता-पिता की सामान्य आलोचनाओं की जो खबरें मीडिया में आती रहती हैं उन्हें भी हमारे उस अनुभव के परिप्रेक्ष्य में देखना होगा कि खाने की गुणवत्ता में, स्कूलों की बहुपरती व्यवस्था के अनुरूप, बहुत अंतर हैं -कहीं श्रेष्ठ, कहीं साधारण और कहीं ख़राब !  

5 . आंगनवाड़ी और आशा कार्यक्रम की ही तरह इस योजना में भी औरतों को न्यूनतम से भी कम 'वेतन' पर, अनियमित व बिना किसी सामाजिक सुरक्षा के, काम पर रखकर सरकार के जिम्मे वाले दायित्वों को अंजाम दिया जा रहा है और वाहवाही लूटने तक की कोशिश हो रही है। खाना पकाने और बाँटने के काम औरतों द्वारा अपमानित व शोषित किये जाने वाले मानदेय पर कराये जा रहे हैं। हालत यह है कि कहीं मात्र 400 रुपये माह पर खाना परोसने का काम दिल्ली में लिया जा रहा है और निगम जैसे निकाय, नवउदारवादी नीतियों की ठेके प्रणाली की बदौलत भी, यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं कि स्कूलों में खाना परोसने वालों की संख्या और उनके मानदेय दोनों को तय करना NGOs के दायरे में है और निगम को इसके बारे में कोई जानकारी नहीं है। ( RTI से प्राप्त जानकारी ) जब नागरिकों के अधिकारों तक को मुहैया कराने के लिए श्रमिकों को असुरक्षित-शोषित करने वाली व्यवस्था खड़ी की जाएगी तो परिणाम समाज के हित में नहीं होंगे। 

6 . उपरोक्त बिन्दुओं के प्रकाश में इस योजना के लिए पूर्णकालिक, ग़ैर-शैक्षणिक कर्मियों को नियुक्त करना नितांत आवश्यक है। साथ ही, स्थानीय और निकायों/सरकारों के स्तर पर ऐसी नियमित, गंभीर जाँच प्रक्रिया अपनाने की ज़रूरत है जिसके परिणामों पर ठोस क़दम उठाये जाएँ व अधिकारियों की ज़िम्मेदारी तय की जाए। 

7 . अंततः इस मुद्दे पर भी समान स्कूल व्यवस्था के न होने को एक महत्वपूर्ण कारक माना जाएगा क्योंकि इसकी अनुपस्थिति में न सिर्फ मेहनतकशों-शोषितों के लिए दोयम दर्जे की भोजन व्यवस्था जारी रखने की सम्भावना बढ़ेगी बल्कि स्थानीय स्तर पर इसके निर्धारित मानकों की जाँच-निगरानी भी नहीं हो पाएगी। 
इस आपराधिक घटना के बारे में, बिना विस्तार से जाने भी, बहुत कुछ कहा जा सकता है। स्कूल का अपना भवन नहीं था और वह पंचायत भवन में चल रहा था।  इसी तरह वहाँ किचनशेड व स्टोर भी नहीं था जिसके कारण भण्डारण प्रधानाचार्य के घर होता था। ये तथ्य स्कूल व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लगाने के लिए पर्याप्त हैं। फिर घटना के बाद सरकार में जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों ने स्थल पर पहुँच कर लोगों के साथ अपनी एकात्मता नहीं दिखाई। एक लाख का मुआवजा भी स्वयं एक आपराधिक प्रतिक्रिया है क्योंकि यहाँ मौतें किसी प्राकृतिक घटना के चलते नहीं हुईं बल्कि सरकारी व्यवस्था की योजना की लापरवाही के कारण हुई हैं। घटना के बाद इलाज में हुई देरी से क्षेत्र में, खासतौर से ग्रामीण इलाकों में, सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की घोर अनदेखी का उदाहरण मिलता है। साफ़ है कि आमजन से कटी हुई सरकारें, लोक से कटे हुए प्रतिनिधि-अफसरशाही, सबके लिए समान व बढ़िया स्वास्थ्य और शिक्षा व्यवस्था खड़ी करने में हमेशा नाकाम रहेंगे। अव्वल तो वो ऐसा चाहेंगे ही नहीं। अगर भ्रातृत्व भाव पर आधारित समान शिक्षा व स्वास्थ्य व्यवस्था होती तो निश्चित ही न ऐसी घटना घटती और न ही ऐसे त्रासद परिणाम होते। हमें उस राजनीति के जनविरोधी चरित्र को पहचानने की ज़रूरत है जोकि मेहनतकशों को निजी स्कूलों में 25 % कोटे का छल दिखाकर और चंद तथाकथित मॉडल स्कूल की परतें खड़ी करके बाँटती है, कमज़ोर करती है तथा इसपर वाहवाही लूटने की बेशर्म जुर्रत करती है। उनसे जो जनता के प्रतिनिधि बनते हैं एक माँग करना ही काफी होगा - अगर हमारे साथ हो तो ऐसी व्यवस्था करो कि तुम्हारे बच्चे भी हमारे बच्चों के साथ एक स्कूल में पढ़ें।    

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