Thursday 27 February 2014

शिक्षक डायरी : मिड डे मील - कुछ अनुभव

लेखक शिक्षक साथी ने अपना नाम इस अनुभव के साथ न देने का अनुरोध लोक शिक्षक मंच से किया था जिसे हमने स्वीकार किया अतः हम इस अनुभव के साथ लेखक का नाम नही दे रहे हैं। ……संपादक

आज जब मुझे मिड डे मील पर कुछ लाइनें लिखने के लिए कहा गया तो मन में प्रथम प्रश्न यही था कि इस बारे में क्या लिखा जाए। वैसे तो बतौर मिड डे मील के द्वितीय इंचार्ज के रूप में मुझे mcd के एक स्कूल में दो साल से ऊपर हो गये हैं। अनुभव इतना है कि अगर मैं एक पेशेवर लेखक होता तो शायद एक किताब इस विषय पर लिखी जा सकती थी। ख़ैर, एक अध्यापक (वो भी सरकारी सामुदायिक संस्था का) होने के नाते मुझे समझ नहीं आ रहा है कि इस योजना के किस पहलू को उठाऊँ। किसी भी बड़ी योजना के नफ़ा व नुकसान दोनों पहलू होते हैं या कहें कि कुछ महत्ता व कुछ खामियाँ होती हैं। ख़ैर इन बातों को विराम देते हुए मैं आपके सामने इस योजना के फायदों को छोड़कर कुछ खामियों की चर्चा करना चाहूंगा। पिछले दो साल के दौरान मेरा अनुभव ये कहता है कि इस योजना से न केवल बच्चे (जिन्हें पोषणयुक्त भोजन मिलना चाहिए) बल्कि अध्यापक ,खाना सप्लाई करने के लिए ngo द्वारा प्रयुक्त गाड़ीवान ,खाना वितरण करने वाली /वाले
कर्मचारी भी प्रभावित होते हैं। सरसरी तौर पर मैं इस योजना की खामियों का ठीकरा सरकार पर फोड़ना चाहूंगा। सरकार पहले तो भ्रष्टपूर्ण तरीके से ngos का चयन करती है। ngos से, जिनको मिड डे मील पकाने व वितरण का जिम्मा सौंपा जाता है, सांठ-गांठ करते हुए शायद घूस तक भी ली जाती है। इसके अलावा ये बड़े ओहदे वाले अधिकारी इन ngos से मासिक /वार्षिक सांठ-गांठ भी रखते हैं।  मेरे यहाँ (स्कूल में) कई बार उपस्थित बच्चों की संख्या से कम बच्चों का खाना आया है जबकि खाना प्राप्त करने वाले बच्चे पूरे दिखाए जाते हैं। खाना कम होने की बात जब ngo प्रमुख के सामने रखी जाती है तो उसका जबाब होता है, "सर जी आज-आज काम चला लो, कल से बढ़ा कर भेजूंगा।" अगर  खाना थोड़ा (यानि 100 -150 बच्चों का) कम है तो काम चला भी लिया जाता है। मगर अंतर ज्यादा होने पर जब उसे और खाना उतारने के लिए मजबूर किया जाता है तब उसका जबाब "सर बिस्कुट बंटवा देना, मैं  पैसे भेज दूंगा" सुनना पड़ता है व ऐसा कई बार करना भी पड़ता है। मगर हद तब होती है जब पहले दिन ये बातें होने के बाद अगले दिन भी खाना उपस्थित बच्चों से कम का भेजता है। तो मजबूरन उससे तू-तू मैं-मैं करनी पड़ती है। ngo के संचालक का फिर यही जबाब होता है, "सर बिस्कुट बंटवा देना"। मगर अगर सख्ती की जाती है तथा गाड़ी वाले को पूरा खाना देने व उतारने के सम्बन्ध में चेतावनी दी जाती है तो मिड डे मील सप्लायर ngo के संचालक अगले दिन गाड़ीवान बदल देते हैं। नया गाड़ीवान नया होने की ताकीद देकर पल्ला झाड़ना शुरू करता है। जब तक उसकी समझ में सारा खेल आता है तब तक मिड डे मील ngo संचालक नया गाड़ीवान ढूंढ लेते हैं। खैर, ये तो खाना कम होने की बात है। अक्सर जो खाना आता है उसमें सब्जी में पिछले दिन दोपहर की पाली वाले स्कूल की मीनू की सब्जी मिक्स होती है। उदाहरण के लिए, अगर मेरे स्कूल में सुबह के समय मीनू में पूरी व आलू की सब्ज़ी है तथा पिछले दिन दोपहर की पाली के मेनू में दाल-चावल है, तो बची हुई दाल आलू की  सब्ज़ी में मिक्स होती है। हालाँकि खाने के स्वाद में कोई फर्क नहीं होता। पूड़ी के आइटम में अक्सर पूरी सख्त होती है। शिकायत पर जबाब मिलता है कि पूड़ी तो मशीन बनाती है या आगे से शिकायत का मौक़ा नहीं आएगा परन्तु समस्या जस-की-तस रहती है। मेरे स्कूल में कुछ समय से अध्यापक /अध्यापिकाएं भी mcd के आदेश के बाद से खाना चख रहे हैं और पूड़ियों के सन्दर्भ में उनकी राय भी यही है कि वे सख्त होती हैं। मगर समस्या का इलाज शायद मुश्किल है क्योंकि जिस ngo, सूर्या चेरिटेबल, से मेरे स्कूल में खाना आता है वह 1,46,100 बच्चों का मिड डे मील बनाता है। जाहिर है, इतने बच्चों का खाना बनाने में कम-से-कम 8 से 10 घंटे तो लगते ही होंगे। तो पूड़ियाँ 8 -10 घंटों के बाद सख्त होंगी ही, चाहे वो कितनी ही बढियां क्यों न बनी हों। आगे चलें तो इस योजना की अतार्किकता का शिकार खाना वितरण करने वाले कर्मचारी भी हैं। मेरे स्कूल में 4 महिलाएं खाना बांटती हैं, जबकि मेरे ही विद्यालय भवन में कुछ समय से अस्थायी तौर पर चल रहे एक अन्य mcd स्कूल में 2  खाना बाँटने वाली कर्मचारी हैं। दोनों ही स्कूलों में खाना बाँटने वाली कर्मचारियों को अलग-अलग मेहनताना दिया जाता है। सरकार द्वारा कोई दिशा-निर्देश न देने के कारण सप्लायर ngo संचालक अपनी मर्जी से भेदभावपूर्ण व्यवहार करते हैं। मेरे स्कूल में खाना बाँटने वाली महिला को 466 रूपये मिलते हैं जबकि दूसरे स्कूल की महिला को 500 रूपये मिलते हैं। शिकायत करने पर ngo मालिक कहता है, "जी दूसरे स्कूल से ज्यादा हाजिरी आती है,आपके से कम आती है।" जब कठोरता से कुछ समय पहले ये बात मैंने ngo संचालक के सामने उठाई तो उनका जबाब था कि अब तो दीवाली से सरकार ही इनके पैसे बढ़ाने वाली है। वैसे तो मैंने हर प्रमुख बात रखने की कोशिश की है, फिर भी जल्दबाज़ी में कोई तथ्य /खामी छूट गई हो तो मैं खेद प्रकट करता हूँ। साथ ही, मैं ये भी कहना चाहता हूँ कि यदि विद्यालय प्रशासन तथा अभिभावक एकता का परिचय देते हुए इस योजना की खामियों को दूर करने की ठान लें तो शायद ही इसमें कोई खामी रहे। अंत में मैं ये स्पष्ट करना चाहता हूँ कि मैंने उपर्युक्त तथ्यों में अपने सहयोगियों के असहयोगात्मक रवैये, मिड डे मील की ज़िम्मेदारी सम्भालने के कारण मुझ पर पड़ती निजी वित्तीय परेशानियों तथा कुछ अपनी खामियों के बारे में नहीं लिखा है।           

Wednesday 12 February 2014

चर्चा : दिल्ली का वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य

दिल्ली के वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य को समझने के लिए लोक शिक्षक मंच द्वारा 25 जनवरी 2014 को दिल्ली विश्वविद्यालय के केंद्रीय शिक्षा संस्थान में दोपहर 2 बजे एक सभा आयोजित की गई। इसमें मुख्य वक्ता के तौर पर श्री राम कॉलेज में अर्थशास्त्र पढ़ाने वाले साथी राकेश को आमंत्रित किया गया था। लोक शिक्षक मंच के सदस्यों के अतिरिक्त भी कुछ साथियों ने चर्चा में हिस्सा लिया। राकेश के प्रस्ताव पर चर्चा का स्वरूप मुख्य सम्बोधन का न होकर उपस्थित लोगों द्वारा विषय पर अपने-अपने विचार/प्रश्न रखना तय हुआ। कुछ साथियों ने इस नये राजनैतिक उभार के प्रति अपने संदेह व्यक्त किये जोकि जातीय विषमता, आरक्षण, आर्थिक नीति आदि विषयों पर इसकी समझ को लेकर थे। कुछ ने माना कि विचारधारा की कथित नामौजूदगी के बावजूद इसे समर्थन नहीं तो सहानुभूति प्राप्त हो रही है। यह बात भी सामने आई कि इस परिघटना से लोगों में एक स्तर पर राजनैतिक सक्रियता व हस्तक्षेप की लालसा और सम्भावना बढ़ रही है। इसे वर्तमान व्यवस्था की सीमाओं के अंदर एक बेहतर विकल्प तो माना जा सकता है पर क्योंकि इसने भ्रष्टाचार की एक सतही व्याख्या को जन-मुद्दा बनाने की कोशिश की है इसलिए यह व्यवस्थाजनक अन्याय को पहचानने से बचती है - जोकि वर्गीय शोषण और लोकहित के संदर्भ में ख़तरनाक है। इस विचार का ज़ोरदार खंडन किया गया कि समाज व राजनीति में ताक़तों का उठान व पतन किसी प्राकृतिक नियम की तरह होता है।  
कुल मिलाकर सभा इस नतीजे पर पहुँची कि इस प्रशासन व सरकार से इनकी ग़लत राजनीति की वजह से अधिक उम्मीद न रखते हुए, इसपर जनहित के व्यापक मुद्दों पर - सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था, सार्वजनिक परिवहन प्रणाली, मज़दूरों की कार्य परिस्थितियाँ आदि - निरंतर दबाव बनाए रखना चाहिए। इससे राजनैतिक उभार की वर्तमान परिस्थितियों को जनपक्षधरता की तरफ़ मोड़ने में कामयाबी हासिल हो सकती है और सत्ता की दोगली-जनविरोधी राजनीति लोगों के समक्ष बेनक़ाब भी हो सकती है। यह सब करते हुए भी हमें अपनी विचारधारात्मक रूप से पुख्ता ज़मीन पर ही लोगों के बीच सही राजनैतिक समझ बनाने हेतु काम करते रहना है, चाहे वो किसी भी स्तर पर हो।   

बढ़ता समय, घटता चिंतन!

दिल्ली प्रशासन ने पिछले दिनों स्कूलों में शिक्षकों को प्रतिदिन स्कूल समय से ढाई घंटे अतिरिक्त रुकने का अपना तुग़लकी फरमान जारी किया।  हालाँकि इसे शिक्षकों के भारी विरोध के कारण टालना पड़ा  पर सरकार इसे नये सत्र से लागू करने का मन बना रही है। लोक शिक्षक मंच सरकार के इस तुग़लकी फरमान पर अपना विरोध दर्ज करता है और सरकार से मांग करता है कि इस सन्दर्भ में कोई भी फ़ैसला लेने से पहले वो शिक्षकों से बात करें। 
इस फ़ैसले के सन्दर्भ में हमने अलग-अलग जगहों पर काम करने वाले शिक्षक साथियों से बात की ताकि सरकार के अचानक किये जाने वाले फैसले के पीछे की राजनीति और मंशा को समझा जा सके। कुछ शिक्षक साथियों का कहना है कि वो शिक्षकों के लिए हफ्ते में 45 घंटे स्कूल में बिताने के निर्णय का समर्थन करते हैं परन्तु जिस तरह से इसको बिना किसी तैयारी के लाद दिया गया है उस पर सोच-विचार ज़रूरी है। बिना संसाधनों और उपयुक्त शिक्षक-विद्यार्थी अनुपात के इस तरह के फैसले लाद देना ठीक नहीं है। वहीं शिक्षक साथियों के एक अन्य समूह का कहना है कि पहले यह सुनिश्चित करने की ज़रूरत है कि जो समय स्कूल में आज ही उपलब्ध है उसे पूर्णतः शिक्षण को समर्पित करने की परिस्थितियां तो प्रशासन उपलब्ध कराए। उनका साफ़ कहना था कि अगर वर्तमान की तरह विद्यार्थियों के साथ मिलने वाले शिक्षण समय को ग़ैर-शैक्षणिक ज़िम्मेदारियों के तले मात्रात्मक व गुणात्मक स्तरों पर प्रभावित होने दिया जाता रहेगा तो स्कूल के बाद चाहे कितने ही घंटे रुकने का प्रावधान हो, हमारे विद्यार्थियों के साथ अन्याय होता रहेगा। अर्थात, बढ़ा हुआ समय केवल हाथी के दाँत का काम करेगा और लोगों में भ्रम बनाए रखेगा।  
हमारा मानना है कि शिक्षा अधिकार क़ानून (RTE Act) में शिक्षण कार्य के, शिक्षण की तैयारी का समय मिलाकर, हफ्ते में 45 घंटे होने की बात तो है पर इसे रूढ़ तरीक़े से परिभाषित नहीं करना चाहिए। शिक्षण एक गहरी बौद्धिक प्रक्रिया है। खासतौर से उन संदर्भों में जब आप लगातार 4-5 घंटे पढ़ाते हैं - यह रेखांकित करने की ज़रूरत है कि एक प्राथमिक शिक्षक पूरे स्कूली दिन, अर्धावकाश को छोड़कर, लगातार शिक्षण करता है - और स्कूल के बाद न सिर्फ पुस्तकालयों, अकादमिक-बौद्धिक गतिविधियों में अपने शिक्षण हेतु समझदारी बढ़ाते रहते हैं, बल्कि समाज में अपने जनप्रतिबद्ध बुद्धिजीवी होने के दायित्व के नाते भी इनमें सक्रिय रहते हैं। शिक्षक का 'घूमना-फिरना', चाहे वो प्रकृति और कला के क्षेत्र में हो, चाहे सामाजिक-बौद्धिक क्षेत्रों में, उसके कर्म का अनिवार्य अंग है और उसके शिक्षण को सीधे-सीधे गहराई तथा व्यापकता देता है। उसे स्कूल में घेरने की चिंता से लिया गया कोई भी क़दम न सिर्फ शिक्षा की असीम सम्भावना को समेट देगा बल्कि समाज को ग़ैर-राजनैतिक बनाने के उस षड्यंत्र में सहयोग करेगा जिसकी सुनियोजित कोशिशें तमाम नवउदारवादी ताक़तें कर रही हैं। दूसरी ओर एक शिक्षक की यही भूमिका हमें मजबूर और प्रेरित करती है कि हम अपने स्कूलों और विद्यार्थियों के समुदायों से एकात्मता बनाएँ रखें। इसके लिए हमें स्कूल के बाद और छुट्टियों के समय में अपने कर्मक्षेत्रों से सहज और मानवीय संबंधों की खातिर जीवंत सम्पर्क बनाये रखने की ज़रूरत होती है। ये काम स्कूलों में ढाई घंटे अतिरिक्त रुकने से इसलिए बाधित होगा कि ऊर्जा व समय की सीमाओं के कारण निजी प्राथमिकताएं शिक्षक की सार्वजनिक भूमिका के लिए कोई जगह नहीं छोड़ेंगी।

हमें यह भी जाँच करनी चाहिए कि केंद्रीय विद्यालय जैसे संस्थानों में जब से शिक्षकों का समय बढ़ाया भी गया है तब से शैक्षिक माहौल और शिक्षकों की आत्म-छवि व बौद्धिकता पर इसका क्या असर हुआ है। केंद्रीय विद्यालयों में पढ़ाने वाले कुछ साथियों के साथ हुई बातचीत से यह ज्ञात होता है कि परीक्षाओं में उच्च-प्रदर्शन के बावजूद वहाँ कार्य की परिस्थितियां शिक्षकों की बौद्धिक स्वायत्ता के प्रतिकूल हैं। रही बात परिणामों की, तो वो तो समय बढ़ने से पहले ही ऐसे थे और वैसे भी हम शिक्षा को परीक्षा व मूल्यांकन तक सीमित करके उसकी प्रक्रिया की लोकतान्त्रिक, वैचारिक और विविध दार्शनिक सम्भावनाओं को समाप्त करने के षड्यंत्र का हिस्सा नहीं बन सकते हैं। यह ज़रूर है कि औसतन उन स्कूलों में भौतिक परिस्थितियां दिल्ली सरकार या निगम के स्कूलों से बेहतर हैं। इस संदर्भ में भी उन शिक्षकों ने बताया कि अगर वो उस अतिरिक्त समय में कुछ पढ़ते थे तो उन्हें इससे हतोत्साहित किया जाता था और निर्देश दिया गया था कि वे अपनी लिखित रपट में सिर्फ यह लिखें कि उन्होंने कॉपियाँ जाँची या पाठ-योजना बनाई। बाद में उनकी इन्हीं दबाव में तैयार की गयीं झूठी रपटों को अदालत में प्रस्तुत करके प्रशासन यह सिद्ध करने में कामयाब रहा कि समय बढ़ाने से क्या फायदे हुए हैं! यहाँ हम देख सकते हैं कि प्रशासन को इससे मतलब नहीं था कि शिक्षक पढ़-लिखकर बौद्धिक-अकादमिक रूप से और समृद्ध हों; उसे अंततः स्कूल व शिक्षक को एक प्रबंधकीय अनुशासन में बाँधने की चिंता थी। साथियों ने यह भी बताया कि अक्सर वो कक्षा का समय आने से पहले ही निढाल हो जाते थे और नीरस अनुभव करते थे। केंद्रीय-विद्यालय के इस प्रसंग से हमें यह प्रश्न खड़ा करने में भी मदद मिलती है कि जिस व्यवस्था में शिक्षक की परिभाषा ही एक तय समय में एक तय पाठ को एक तय अर्थ-उद्देश्य से विद्यार्थियों तक हस्तांतरित करने वाले सरकारी/निजी मुलाज़िम की हो उसमें विद्यार्थियों के समाज-प्रतिबद्ध, चिंतनशील तथा कलात्मक विकास की कितनी गुंजाइश है और इन सम्भावनाओं से कितना विरोधाभास है।
 अनुभव यह बताता है कि खासतौर से दो पालियों के स्कूलों में शिक्षण का समय पर्याप्त नहीं है और इसका एक बड़ा कारण ग़ैर-शैक्षणिक कामों की ज़िम्मेदारी है। साथ ही स्कूलों में शिक्षकों के आपसी संवाद के सुनियोजित अवसर नहीं हैं, प्राथमिक शालाओं में तो बिलकुल नहीं। तो विद्यार्थियों के जाने के बाद अगर 45 मिनट-एक घंटा शिक्षक रूकते हैं तो इससे अकादमिक तैयारी के अलावा इन दोनों ज़रूरतों की भरपाई हो सकती है। मगर एक तो हमें क़ानून की परिभाषा ऐसी करनी है कि कोई ग़ैर-शैक्षणिक काम शिक्षक के ज़िम्मे न हो और दूसरे वर्तमान नियम भी इस बढ़ौतरी को शैक्षणिक तैयारी के लिए ही प्रस्तावित करता है - सो हमें यह तर्क नहीं देना चाहिए कि विद्यार्थियों के जाने के बाद हम स्वयं पर थोपे गये लिपकीय काम कर पाएँगे, बल्कि हमें इन ग़ैर-शैक्षणिक कामों की बात ही नहीं करनी चाहिए। रही बात आपसी संवाद और स्कूल पर चर्चा करने की तो ये ज़रूर अंजाम दिया जा सकता है पर इसके लिए एक तो दो पालियों की व्यवस्था अनुपयुक्त है और एक घंटे का समय काफी होना चाहिए - वैसे भी ये रोज़ नहीं होगा - और दूसरे, बिना अभिभावकों व सामुदायिक भागीदारी के इस चर्चा को किसी लोकतान्त्रिक मुक़ाम पर नहीं ले जाया सकेगा और इसमें दो पाली की व्यवस्था फिर बाधा है व अभिभावकों की दैनिक परिस्थितियों के चलते ये भी कोई रोज़ होने वाली प्रक्रिया नहीं होगी। उदाहरण के तौर पर अगर कमरों की समस्या के कारण आप अभिभावकों को अपनी पाली के समय में ही नाना प्रकार के कामों के लिए बुलाने को विवश होंगे तो इसका मतलब है कि आपका शिक्षण उसी तरह बाधित होता रहेगा - तो फिर सिवाय शिक्षकों को cordon off करने (घेरने) के उन्हें रोकने का क्या फायदा होगा? हमारे विद्यार्थी तो राज्य की नीतियों द्वारा उसी प्रकार उपेक्षित-प्रताड़ित होते रहेंगे जैसे अब हो रहे हैं। 
हम सरकार से मांग करते है कि इस अलोकतांत्रिक फैसले को तुरंत प्रभाव से रद्द किया जाए और साथ ही हम शिक्षकों पर अविश्वास करके हमें अपमानित करने की बजाए हमपर भरोसा करे कि हम कैसे अपने विद्यार्थियों को पर्याप्त समय, श्रेष्ठ समझ और मेहनत से तथा भरपूर स्नेह से पढ़ाएँ-सिखाएँ। हमें जब भी समय की कमी महसूस होगी हम अपना समय खुद ही बढ़ा लेंगे, जैसा कि हम, बग़ैर किसी आदेश-निर्देश के,आज तक करते आये हैं। 

विरोध-चर्चा सभा : राष्ट्रीयता और नस्लवाद

लोक शिक्षक मंच ने आठ फरवरी को दोपहर डेढ़ बजे दिल्ली विश्वविद्यालय के केंद्रीय शिक्षा संस्थान में हाल ही में अरुणाचल प्रदेश के नौजवान छात्र नीदो तानियम की दिल्ली में एक नस्लीय हिंसा के परिणामस्वरूप हुई मौत के संदर्भ में राष्ट्रीयता एवं नस्लवाद पर एक विरोध-सह-चर्चा सभा का आह्वान किया था। सभा की शुरुआत दिवंगत नौजवान को श्रद्धांजलि देकर हुई। उसके बाद सब उपस्थित साथियों ने अपने-अपने विचार साझा किये। सार प्रस्तुत है -

1) एक साथी के द्वारा संदेह व्यक्त करने के बावजूद सभा ने आम राय से यह सहमती जताई कि इस तरह की लगातार होती हिंसा को आक्रामक राष्ट्रवाद और नस्लवाद के प्रभाव के माध्यम से समझा जाना चाहिए। हमें दोनों के ख़िलाफ़ निरंतर लड़ना होगा। यह रेखांकित किया गया कि इस हिंसा का विरोध राष्ट्रवाद के दायरे या नैतिकता में रहकर करना बिलकुल नाजायज़ और आत्मघाती है।
 
2) उपरोक्त दोनों बिंदुओं को 'मुख्यधारा' की संकल्पना के आग्रह से देखें तो वर्चस्वशाली संस्कृति व राजनीति में नस्लीय हिंसा निहित है। ज़रूरत है कि 'मुख्यधारा' को ही कटघरे में खड़ा किया जाए। 

3) नस्लीय हिंसा को अन्य सभी प्रकार की हिंसा के साथ देखना होगा - जातीय, पितृसत्तात्मक, साम्प्रदायिक, विकलांग-विरोधी आदि। जहाँ एक होगी वहाँ अन्यों का होना अवश्यम्भावी है। इसलिए एक साथ इन सबके ख़िलाफ़ लड़ने की ज़रूरत है, इन्हें एक दूसरे से काटा नहीं जा सकता।

4) वो पूर्वाग्रह जिनपर यह हिंसा आधारित है, बाज़ारवादी मीडिया से भी बल पाते हैं। इनमें फ़िल्मों, विज्ञापनों से लेकर अखबारी कवरेज भी शामिल है। शिक्षा में भी 'मुख्यधारा' के नाम पर बहुत सी संस्कृतियों का अपमानजनक प्रस्तुतिकरण अथवा अदृश्यकरण असंवेदनशीलता को तीखा करता है। शिक्षकों को विशेषकर अपने कर्मक्षेत्रों में इसके प्रति सक्रीय होने की ज़रूरत है। 

5) इस पर विचार किया गया कि इस तरह की हिंसा कैसे वर्ग-आधारित आर्थिक व्यवस्था का भी स्वाभाविक परिणाम है और कैसे पूँजीवादी ताक़तें इसे मेहनतकशों की वर्गीय चेतना को उबरने न देने के लिए और राष्ट्रीय-स्तर पर मज़दूर वर्ग की एकता को तोड़ने के लिए भी मीडिया के ज़रिये इस्तेमाल करती हैं।

6) वहीं दिल्ली में नस्लीय भेदभाव के दंश को दशकों से झेल रहे एक साथी का कहना था कि अधिकतर पीड़ित इसके दैनिक आयाम की विभीषिका को नज़रअंदाज़ करते आये हैं। इसका कारण प्रशासन व स्थानीय राजनैतिक नेतृत्व के प्रति अविश्वास भी है। ( वो अपने मन को यह कहकर दिलासा देते हैं कि शायद दुर्व्यवहार करने वाले नासमझ हैं! ) अर्थात, हिंसा बहुत व्यापक है पर केवल कभी-कभार ही इसे सार्वजनिक बहस की नज़रों में लाया जाता है। इस हिंसा का आर्थिक आधार होने के विचार को रोचक बताते हुए भी उन्होंने कहा कि अनुभव की बुनियाद पर वो इसके नस्लीय पक्ष को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। 

   सभा ने संकल्प लिया कि सभी साथी अपने-अपने कार्यस्थलों पर नस्लीय व अन्य सभी प्रकार की प्रत्यक्ष और परोक्ष हिंसा के विरुद्ध आवाज़ बुलंद करते रहेंगे तथा मानवीय संवेदना विकसित करने का सांगठनिक काम भी करते रहेंगे। यह फ़ैसला भी किया गया कि मंच द्वारा ऐसे छात्र/नौजवान समूह के साथ मिलकर समझ व आगे की कार्यनीति बनाई जाए जो इस प्रश्न पर अपनी अस्मिता के आधार पर भी निरंतर अधिक गहराई से जूझ रहे हैं।    

Tuesday 11 February 2014

नैतिकता के विशिष्ठ पाठों के विशिष्ठ ख़तरे

                                                                                                                                                    फ़िरोज़ 

जनवरी माह के अंतिम सप्ताह में दैनिक जागरण के एक हर्षित सम्पादकीय से मालूम हुआ कि दिल्ली में नगर निगम के स्कूलों में अगले सत्र से नैतिक शिक्षा की किताबें लगाई जाएँगी और इसकी शुरुआत पूर्वी दिल्ली नगर निगम के स्कूलों से होगी। निर्णय लेने वालों की राजनैतिक पृष्ठभूमि में यह फ़ैसला चौंकाने वाला नहीं है और न ही उक्त अख़बार की पत्रकारिता की समझ के संदर्भ में सम्पादकीय वाह-वाही अप्रत्याशित थी। शिक्षा में नैतिकता की जगह, भूमिका और स्वरूप को लेकर अन्यत्र भी एक ख़तरनाक सोच व्याप्त दिखाई देती है और यह फ़ैसला इसी का स्वाभाविक परिणाम है। यह समझना कठिन नहीं है कि वो कौन-सी चिंताएँ हैं जिनके प्रभाव में स्कूलों में नैतिकता के विशिष्ठ पाठों को बिना तर्क-वितर्क व बहस-मुबाहिसे के बच्चों के गले उतारने की चाहत होती है। उदहारण के लिए हम उसी सम्पादकीय के एक कथन को ले सकते हैं जिसमें फ़ैसले के पक्ष में दलील देते हुए कहा गया था कि इससे बच्चे सीखेंगे कि क्यों उन्हें सुबह-सुबह उठकर अपने माता-पिता के पैर छूकर उनका आशीर्वाद लेना चाहिए! हालाँकि यह इस विषय पर सबसे प्रमुख सवाल नहीं है, फिर भी हम पूछ सकते हैं कि मूल्यों व मान्यताओं की विविधता से ऐसी अनभिज्ञता मात्र एक मासूम, बौद्धिक दिवालियेपन की निशानी है या अन्य विश्वासों के प्रति अपमानजनक और हिंसक पूर्वाग्रह का द्योतक। स्पष्ट है कि जहाँ एक प्रकार के सांस्कृतिक मापदंडों को सामान्यीकृत करके नैतिकता के सार्वजनिक व अनिवार्य पाठ की तरह पेश किया जाएगा वहाँ स्वतंत्र, मौलिक चिंतन और वैज्ञानिक विचारशीलता की कसौटी पर धार्मिक-सांस्कृतिक परम्पराओं, विधानों को परखने पर भी सहज ही प्रतिबंध रहेगा। नतीजा यह होगा कि मतारोपण तथा विचारशून्यता को परम्परा और संस्कृति के जामे में परोस कर बच्चों को नैतिक बनाने का दावा किया जाएगा। जबकि नैतिकता की पहली शर्त ही यह है कि वो विचार-बर्ताव विवेक पर आधारित हो, परीक्षित हो, सोद्देश्य हो। 

यह सवाल लाज़मी हो सकता है कि क्यों हम पाठ्यपुस्तकों को देखने से पहले ही इस विषय को ख़ारिज कर रहे हैं। शिक्षाशास्त्रीय दृष्टि से भी नैतिकता कोई परोसे जाने वाली चीज़ नहीं है, बहस की, परखे जाने वाली विषयवस्तु है। इस तरह यह प्रस्ताव राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (2005) जैसे अकादमिक व नीतिगत दस्तावेज़ के दर्शन के भी प्रतिकूल है। यही कारण है कि NCF (2005) पर आधारित NCERT की विभिन्न विषयों की पाठ्यपुस्तकों में सामाजिक तथा व्यक्तिगत द्वंद्व से उपजने वाले संदर्भों/प्रसंगों को नैतिक समस्याओं, प्रश्नों व विकल्पों के रूप में विषयवस्तु में ही समाहित किया गया है। यह तरीक़ा बच्चों को नैतिकता पर सवाल करने, विवेक व विभिन्न दृष्टिकोणों के आधार पर उसकी पड़ताल करने और उसकी समझ विकसित करने के अवसर देता है। वर्तमान में भी हम देख सकते हैं कि नैतिक शिक्षा को एक अलग विषय के रूप में शायद ही किसी राज्य के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया हो। वहीं कई निजी विद्यालयों में इसे एक अलग विषय और अलग किताबों के माध्यम से पढ़ाया जाता है। क्या हमारे पास कोई ऐसा सबूत है कि इस अलग व्यवस्था से उन बच्चों के मनस पर संविधान के कम-से-कम तीन मुख्य मानवतावादी मूल्यों (न्याय,समानता व भ्रातृत्व) के स्तर पर अधिक सकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है? 
नैतिकता को अलग से पढ़ाने की व्यवस्था से एक ख़तरा तो यह पैदा होगा कि शिक्षा व्यवस्था में सामंती सोच रखने वाले, वर्चस्व और प्रभावशाली भूमिका निभाने वाले वर्ग - जोकि बहुदा मेहनतकश जातियो/वर्गों तथा उनके बच्चों के प्रति घोर पूर्वाग्रह रखते हुए उनके 'पिछड़ेपन' को उनकी 'नैतिक कमियों' का परिणाम मानते हैं - बौद्धिक-अकादमिक विषयों की क़ीमत पर नैतिकता की रूढ़िवादी पढ़ाई को ही शिक्षा का पर्याय मान लेंगे। आज भी इस पृष्ठभूमि के लोगों में यह रोना रोया जाता है कि समाज रसातल में जा रहा है क्योंकि स्कूलों में नैतिक शिक्षा नहीं दी जाती। यह अलहदा बात है कि एक तरह के आदर्श आचरण का नैतिक पाठ तो वे बच्चों के समक्ष प्रत्यक्ष प्रस्तुत कर ही रहे होते हैं! 
समाजशास्त्रीय-ऐतिहासिक पड़ताल बताती है कि जब वर्चस्व-प्राप्त संस्कृति को अपनी सत्ता के प्रति चुनौतियाँ दिखने लगती हैं तो उसे उक्त क्षेत्र में प्रत्यक्ष प्रयास की ज़रूरत महसूस होती है - उसे मालूम हो जाता है कि अब उस पहले जैसे सहज वर्चस्व से काम नहीं चलेगा जिसके दर्शन को शोषित ने खुद भी आत्मसात किया हुआ था। तो जब लड़कियाँ विवाह को, मातृत्व को अपने जीवन-उद्देश्यों के अनिवार्य आदर्श मानने से इंकार करने लगेंगी तो विवाह-मातृत्व की महत्ता को स्पष्ट करके, फूहड़ ढंग से भी सम्प्रेषित करने के प्रयास होंगे। 
असल में ऐसे सभी प्रयोजनों को , किसी भी प्रार्थना-उपासना को बच्चों पर दैनिक सभा के नाम पर जबरन थोपने को लेकर हों, पाठ्यक्रम में भारत के बहुसंख्यक लोगों के आहार के ज़िक्र को भी बहिष्कृत करने को लेकर हों, शिक्षकों के गुरुपद को (आत्म-दीपो भवः की अधिक वैचारिक व लोकतान्त्रिक विरासत के विपरीत) अधिष्ठित करके विद्यार्थियों द्वारा उनके चरण-स्पर्श करवाने को लेकर हों,बुद्ध-कबीर-नानक-रविदास-ज्योतिबा-सावित्रीबाई-अम्बेडकर के विचारों-संघर्षों को नादारद करके एक अन्यत्र ही 'गौरवशाली' इतिहास को महिमामंडित करने को लेकर हों; सभी एक ब्राह्मणवादी संस्कृति के वर्चस्व को बनाए रखने और उसके विशिष्ट अवयवों को मुख्यधारा के नाम पर धूर्तता से राष्ट्रीय संस्कृति मनवाने के प्रयास हैं। न सच्ची शिक्षा इससे सहमत हो सकती है, न अच्छी राजनीति।