Tuesday 11 February 2014

नैतिकता के विशिष्ठ पाठों के विशिष्ठ ख़तरे

                                                                                                                                                    फ़िरोज़ 

जनवरी माह के अंतिम सप्ताह में दैनिक जागरण के एक हर्षित सम्पादकीय से मालूम हुआ कि दिल्ली में नगर निगम के स्कूलों में अगले सत्र से नैतिक शिक्षा की किताबें लगाई जाएँगी और इसकी शुरुआत पूर्वी दिल्ली नगर निगम के स्कूलों से होगी। निर्णय लेने वालों की राजनैतिक पृष्ठभूमि में यह फ़ैसला चौंकाने वाला नहीं है और न ही उक्त अख़बार की पत्रकारिता की समझ के संदर्भ में सम्पादकीय वाह-वाही अप्रत्याशित थी। शिक्षा में नैतिकता की जगह, भूमिका और स्वरूप को लेकर अन्यत्र भी एक ख़तरनाक सोच व्याप्त दिखाई देती है और यह फ़ैसला इसी का स्वाभाविक परिणाम है। यह समझना कठिन नहीं है कि वो कौन-सी चिंताएँ हैं जिनके प्रभाव में स्कूलों में नैतिकता के विशिष्ठ पाठों को बिना तर्क-वितर्क व बहस-मुबाहिसे के बच्चों के गले उतारने की चाहत होती है। उदहारण के लिए हम उसी सम्पादकीय के एक कथन को ले सकते हैं जिसमें फ़ैसले के पक्ष में दलील देते हुए कहा गया था कि इससे बच्चे सीखेंगे कि क्यों उन्हें सुबह-सुबह उठकर अपने माता-पिता के पैर छूकर उनका आशीर्वाद लेना चाहिए! हालाँकि यह इस विषय पर सबसे प्रमुख सवाल नहीं है, फिर भी हम पूछ सकते हैं कि मूल्यों व मान्यताओं की विविधता से ऐसी अनभिज्ञता मात्र एक मासूम, बौद्धिक दिवालियेपन की निशानी है या अन्य विश्वासों के प्रति अपमानजनक और हिंसक पूर्वाग्रह का द्योतक। स्पष्ट है कि जहाँ एक प्रकार के सांस्कृतिक मापदंडों को सामान्यीकृत करके नैतिकता के सार्वजनिक व अनिवार्य पाठ की तरह पेश किया जाएगा वहाँ स्वतंत्र, मौलिक चिंतन और वैज्ञानिक विचारशीलता की कसौटी पर धार्मिक-सांस्कृतिक परम्पराओं, विधानों को परखने पर भी सहज ही प्रतिबंध रहेगा। नतीजा यह होगा कि मतारोपण तथा विचारशून्यता को परम्परा और संस्कृति के जामे में परोस कर बच्चों को नैतिक बनाने का दावा किया जाएगा। जबकि नैतिकता की पहली शर्त ही यह है कि वो विचार-बर्ताव विवेक पर आधारित हो, परीक्षित हो, सोद्देश्य हो। 

यह सवाल लाज़मी हो सकता है कि क्यों हम पाठ्यपुस्तकों को देखने से पहले ही इस विषय को ख़ारिज कर रहे हैं। शिक्षाशास्त्रीय दृष्टि से भी नैतिकता कोई परोसे जाने वाली चीज़ नहीं है, बहस की, परखे जाने वाली विषयवस्तु है। इस तरह यह प्रस्ताव राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (2005) जैसे अकादमिक व नीतिगत दस्तावेज़ के दर्शन के भी प्रतिकूल है। यही कारण है कि NCF (2005) पर आधारित NCERT की विभिन्न विषयों की पाठ्यपुस्तकों में सामाजिक तथा व्यक्तिगत द्वंद्व से उपजने वाले संदर्भों/प्रसंगों को नैतिक समस्याओं, प्रश्नों व विकल्पों के रूप में विषयवस्तु में ही समाहित किया गया है। यह तरीक़ा बच्चों को नैतिकता पर सवाल करने, विवेक व विभिन्न दृष्टिकोणों के आधार पर उसकी पड़ताल करने और उसकी समझ विकसित करने के अवसर देता है। वर्तमान में भी हम देख सकते हैं कि नैतिक शिक्षा को एक अलग विषय के रूप में शायद ही किसी राज्य के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया हो। वहीं कई निजी विद्यालयों में इसे एक अलग विषय और अलग किताबों के माध्यम से पढ़ाया जाता है। क्या हमारे पास कोई ऐसा सबूत है कि इस अलग व्यवस्था से उन बच्चों के मनस पर संविधान के कम-से-कम तीन मुख्य मानवतावादी मूल्यों (न्याय,समानता व भ्रातृत्व) के स्तर पर अधिक सकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है? 
नैतिकता को अलग से पढ़ाने की व्यवस्था से एक ख़तरा तो यह पैदा होगा कि शिक्षा व्यवस्था में सामंती सोच रखने वाले, वर्चस्व और प्रभावशाली भूमिका निभाने वाले वर्ग - जोकि बहुदा मेहनतकश जातियो/वर्गों तथा उनके बच्चों के प्रति घोर पूर्वाग्रह रखते हुए उनके 'पिछड़ेपन' को उनकी 'नैतिक कमियों' का परिणाम मानते हैं - बौद्धिक-अकादमिक विषयों की क़ीमत पर नैतिकता की रूढ़िवादी पढ़ाई को ही शिक्षा का पर्याय मान लेंगे। आज भी इस पृष्ठभूमि के लोगों में यह रोना रोया जाता है कि समाज रसातल में जा रहा है क्योंकि स्कूलों में नैतिक शिक्षा नहीं दी जाती। यह अलहदा बात है कि एक तरह के आदर्श आचरण का नैतिक पाठ तो वे बच्चों के समक्ष प्रत्यक्ष प्रस्तुत कर ही रहे होते हैं! 
समाजशास्त्रीय-ऐतिहासिक पड़ताल बताती है कि जब वर्चस्व-प्राप्त संस्कृति को अपनी सत्ता के प्रति चुनौतियाँ दिखने लगती हैं तो उसे उक्त क्षेत्र में प्रत्यक्ष प्रयास की ज़रूरत महसूस होती है - उसे मालूम हो जाता है कि अब उस पहले जैसे सहज वर्चस्व से काम नहीं चलेगा जिसके दर्शन को शोषित ने खुद भी आत्मसात किया हुआ था। तो जब लड़कियाँ विवाह को, मातृत्व को अपने जीवन-उद्देश्यों के अनिवार्य आदर्श मानने से इंकार करने लगेंगी तो विवाह-मातृत्व की महत्ता को स्पष्ट करके, फूहड़ ढंग से भी सम्प्रेषित करने के प्रयास होंगे। 
असल में ऐसे सभी प्रयोजनों को , किसी भी प्रार्थना-उपासना को बच्चों पर दैनिक सभा के नाम पर जबरन थोपने को लेकर हों, पाठ्यक्रम में भारत के बहुसंख्यक लोगों के आहार के ज़िक्र को भी बहिष्कृत करने को लेकर हों, शिक्षकों के गुरुपद को (आत्म-दीपो भवः की अधिक वैचारिक व लोकतान्त्रिक विरासत के विपरीत) अधिष्ठित करके विद्यार्थियों द्वारा उनके चरण-स्पर्श करवाने को लेकर हों,बुद्ध-कबीर-नानक-रविदास-ज्योतिबा-सावित्रीबाई-अम्बेडकर के विचारों-संघर्षों को नादारद करके एक अन्यत्र ही 'गौरवशाली' इतिहास को महिमामंडित करने को लेकर हों; सभी एक ब्राह्मणवादी संस्कृति के वर्चस्व को बनाए रखने और उसके विशिष्ट अवयवों को मुख्यधारा के नाम पर धूर्तता से राष्ट्रीय संस्कृति मनवाने के प्रयास हैं। न सच्ची शिक्षा इससे सहमत हो सकती है, न अच्छी राजनीति।  

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