Wednesday 30 April 2014

मजदूर दिवस जिंदाबाद !


सभी मेहनतकश एकजुट हों !

मई दिवस अर्थात् मजदूर दिवस का इतिहास 19वीं सदी के उन आन्दोलनों से जुड़ा है जिनमें मजदूरों ने संगठित होकर अपने काम के अमानवीय हालातों के खिलाफ संघर्ष छेड़ा। उनकी प्रमुख मांग काम के घण्टों को मानवीय बनाने की थी क्योंकि उस जमाने में जब पूंजीवादी औद्योगीकरण के मुनाफे की ताकत पर लोकतंत्र का भी अंकुश नहीं था, मजदूरों से, जिनमें बच्चे भी शामिल थे, 14 से 16 घण्टों तक लगातार काम लिया जाता था। वे जीवन पर्यन्त दिन का उजाला नहीं देख पाते थे और काम की इस अमानवीय परिस्थिति को ‘सूर्योदय से सूर्यास्त तक’ के मुहावरे में व्यक्त किया जाता था। उन्होंने माँग रखी कि सभी इन्सानों को खुशहाल जीवन जीने के लिए बराबर मौके मिलने चाहिए, और इसके लिए काम के घण्टे आठ हों और सबको आठ घण्टे आराम व आठ घण्टे मनोरंजन व पढ़ाई-लिखाई के लिए उपलब्ध हों। इस दिवस की नींव 7 अक्टूबर 1884 को ‘द अमेरिकन फेडरेशन आॅफ लेबर’ के उस प्रस्ताव में रखी गई जिसमें कहा गया कि एक मई, 1886 से काम के लिए दिन के आठ घंटे तय किए जाएँ और सभी मजदूर संगठनों से अपने नियमों को इसके अनुसार तय करने की अपील की गई। दूसरे कम्यूनिस्ट इण्टरनेशनल ने, जोकि समानता व विश्वशांति को समर्पित संगठनों का अन्तर्राष्ट्रीय मंच था, 1889 में एक मई को दुनिया भर में मजदूर दिवस मनाने का फैसला किया।
दुनिया के सभी मजदूरों का, जिनमें महिलाएं अनिवार्य रूप से शामिल हैं, शोषण एक विश्वव्यापी हकीकत है। महिला दिवस (8 मार्च) और मजदूर दिवस (1 मई) दोनों को ही अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाया जाता है। दोनों के ही संघर्षों में सच्चे अर्थों में विश्वबंधुत्व की सम्भावनाएं हैं। मजदूरों के संगठनों ने तो शुरू से ही विश्वशांति कायम करने को अपनी राजनीतिक लड़ाई का अभिन्न अंग माना है। अन्यथा, बाजारवादी व्यवस्था में तो हथियारों के व्यापार से भी मुनाफा कमाया जाता है और ‘विकास’ के नाम पर उपभोगवादी संस्कृति को जानबूझकर बढ़ावा देकर पर्यावरण के विनाश और फिजूलखर्ची को प्रोत्साहित किया जाता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि उत्पादन पर समाज का नहीं बल्कि निजी मालिकों, मुनाफाखोरों का कब्जा है। चूंकि मजदूर-किसान वर्ग उत्पादन कार्य में प्रत्यक्ष रूप से हिस्सा लेते हैं इसलिए उनमें वैज्ञानिक चेतना की सबसे अधिक संभावना होती है। उत्पादन श्रम का काम ही ऐसा है कि इसमें बिना परखे विश्वासों की जगह नहीं है।
शिक्षक होने के नाते हम समाज पर तेजी से थोपी जा रही नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के दुष्परिणामों से अच्छी तरह से परिचित हैं। हमारे स्कूलों में ही तरह-तरह के कामों को ठेकेदारी व्यवस्था के सहारे, बहुत ही कम पैसे में बेशर्मी से कराया जा रहा है। स्कूलों में काम करने वाले बहुत से साथियों को कोई सामाजिक सुरक्षा (पर्याप्त वेतन, छुट्टी, पेंशन) हासिल नहीं है, चाहे वो मिड-डे-मील बांटने वाली महिलाएं हों, चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी हों या अनुबंधित शिक्षक। हमारे स्कूलों में पढ़ने वाले अधिकतर बच्चे मेहनतकश मजदूर तबके से आते हैं और उनकी पढ़ाई सुचारू रूप से न चलने का एक महत्वपूर्ण कारण परिवारों की आर्थिक असुरक्षा है। हम जानते हैं कि हमारे कई विद्यार्थी, विशेषकर छात्राएं, अपने घरों में ‘पीस वर्क’ वाले काम करने को मजबूर हैं। इन कामों से उनकी आमदनी बहुत मामूली होती है और शोषण अधिक। बंद कमरों में नीरस व लम्बे समय के काम का असर सिर्फ बच्चों की सेहत और शिक्षा पर ही नहीं पड़ता बल्कि यह अपना दूरगामी प्रभाव उनके दिलोदिमाग पर छोड़ता है। उनके सपनों, उम्मीदों और आत्मविश्वास का संसार सिमट जाता है। हम अपने विद्यार्थियों के शरीरों और उनके जीवन पर उन कामों की परछाई अक्सर देखते हैं। ‘विकास’ की यह व्यवस्था टिकी ही श्रम की सस्ती व गुलाम फौज की निरंतर उपलब्धता पर है। हमारे बच्चों को वही गुलामी विरासत में मिलेगी।  

वहीं दूसरी ओर जिन स्कूलों में मजदूर अपने बच्चों को बेहतर भविष्य की उम्मीद में भेजते हैं वहाँ की परिस्थितियों को लगातार प्रतिकूल बनाया जा रहा हैै। शिक्षकों को शिक्षण कार्य की बजाय जनगणना, चुनाव तथा मिड-डे-मील जैसे अनगनित गैर-शैक्षणिक कामों में लगाया जाता है जिससे कि स्कूलों में पढ़ाई-लिखाई बाधित होती है। साथ ही, शिक्षकों की कमी होने के बावजूद रिक्त पद नियमित शिक्षकों से भरे नहीं जाते हंै। शिक्षकों को इस तरह के कामों में लगा कर न केवल शिक्षकों व शिक्षा को नुकसान पहंुचाया जाता है बल्कि मेहनतकश वर्ग के बच्चों को शिक्षा से महरूम किया जाता है। इस तरह शिक्षक जोकि खुद एक मेहनतकश वर्ग से संबंध रखता है, उसके खिलाफ आम जन में एक राय बनाने की कोशिश की जा रही है। यह अंततः सरकारी स्कूलों को बदनाम करके बेचने कि साजिश है। यह एक भाई को दूसरे भाई से लड़ा कर उनका घर बिकवाने की चाल है और अंततः इसका नुकसान पूरे समाज को ही भुगतना पड़ेगा। 
हमारे देश के संविधान में सभी व्यक्तियों को जीने लायक मेहनताना पाने  का आदर्श पेश किया गया है। न्यूनतम मजदूरी तो एक बेबसी को जिन्दा भर रखने का सूत्र है। इसी तरह संविधान में आर्थिक व्यवस्था को इस तरह चलाने का आदर्श है जिसमें कि धन एवं उत्पादन के साधन पर कुछ ही लोगों का कब्जा न रह जाए बल्कि उन पर पूरे समाज का हक हो। इसके बावजूद आजादी के बाद से सरकारी उपक्रम तक में भी सबसे कम और सबसे ज्यादा वेतन के बीच में अंतर लगातार बढ़ा है और आज भी इसके बढ़ने के आसार हैं। आर्थिक-सामाजिक समानता के बिना भातृत्व की बात करना बेमानी है। आज जरूरत है कि हम सब मेहनतकश मिलकर अपने बच्चों के लिए सभी सुविधाओं से सम्पन्न पड़ोस पर आधारित समान स्कूल व्यवस्था की लड़ाई लड़ें ताकि शिक्षा में वर्ग के आधार पर भेदभाव को पूरी तरह से खत्म किया जा सके। 

उनका डर

वे डरते हैं
किस चीज से डरते हैं वे
तमाम धन-दौलत
गोला-बारूद पुलिस-फौज के बावजूद?
वे डरते हैं
कि एक दिन
निहत्थे और गरीब लोग
उनसे डरना
बंद कर देंगे

-गोरख पांडेय

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