Sunday 22 March 2015

“सयानों की दुनिया बड़ी अजीब है”

 फ्रेंच लेखक सैन्तैकजुपेरी की यह बात आज के समय में काफी सच बैठती है जहाँ सयाने यानि कि वयस्क/बड़े बहुत अजीब बातें करते हैं| वे सच को सच और झूठ को झूठ नहीं बोलते; जैसे मुनाफा कमाने को कभी ‘विकास’ कहते हैं तो कभी ‘समाज-सेवा’|

इस पर्चे के माध्यम से हम एक ऐसी ही विडम्बना के बारे में बात करने जा रहे हैं| हर दौर में कुछ ऐसे व्यक्ति हुए हैं जिन्होंने अपना जीवन सामाजिक गैरबराबरी या कुरीतियों के खिलाफ काम करने में लगा दिया, जैसे बुद्ध, कबीर, सावित्रीबाई फूले आदि| किन्तु आज जो लोग समाज के लिए कुछ करने चाहते हैं वो अक्सर NGOs का रास्ता अपनाते दिखते हैं| NGOs वो गैर सरकारी संस्थाएं हैं जो समाज सेवा का काम भी काफी पेशेवर और व्यावसायिक ढंग से करती हैं| भारत में इस बदलाव की ड़ें कुछ 30-40 साल पुरानी हैं| माना जाता है कि आज भारत में लगभग हर 400 लोगों पर एक NGO है| पिछले 3 दशकों में NGOs का जाल जिस तेज़ी से फैला है उसके कारण समझने ज़रूरी हैं| यह न तो अचानक हुआ और न ही अपने आप|
1990 के दशक में नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के साथ सरकार का जन-कल्याण कार्यों पर होने वाले खर्च से अपने हाथ खींचना शुरु हुआ| सिर्फ भारत ही नहीं, दुनिया भर की सरकारों के ऊपर यह दबाव बनाया गया कि वे नागरिकों के शिक्षा, स्वास्थ्य, साफ़ पानी, रोज़गार जैसे बुनियादी हकों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी कम करें| साफ़ बात थी कि जब सरकारों ने अपने हाथ इनसे खींचे तो ये क्षेत्र निजी हाथों में चले गए; अब ये जन कल्याणकारी न रहकर मुनाफाखोरी के बाज़ार में बदल दिये गए।


अंग्रेजों की जड़े हिल चुकी हैं। वे 15 सालों में चले जायेंगे, समझौता हो जायेगा, पर इससे जनता को कोई लाभ नहीं होगा। हमारे देश के नेता जो शासन पर बैठेंगे, वे विदेशी पूँजी को अधिकाधिक प्रवेश देंगे और पूंजीपतियों को अपनी तरफ मिलाएँगे| पूंजीवादी साम्राज्यवाद नए नए रूप धारण कर निर्बल का शोषण करता रहेगा|
                                            भगत सिंह

इस प्रक्रिया को राष्ट्रीय शिक्षा नीति में हुए बदलावों से समझा जा सकता है| 1986 की शिक्षा नीति के अंतर्गत Program of Action लागू किया गया| इसमें लिखा गया था किसरकार और NGOs के गठबंधन को प्रोत्साहित किया जाएगा| सरकार NGOs को वो सभी सुविधाएँ और आर्थिक सहायता प्रदान करेगी जिससे वे मौलिक साक्षरता, वयस्क शिक्षा के कार्यक्रम ले सकें”| हम देखते हैं कि जो बात प्रोत्साहन से शुरू हुई वो 2009 के शिक्षा अधिकार कानून तक आते-आते NGOs और उनके दाताओं के प्रति समर्पण मेँ बदल गयी| 12वी पंचवर्षीय योजना में साफ़ तौर पर लिखा है कि “शिक्षा में सार्वजनिक और निजी भागीदारी (पीपीपी) मॉडल को बढ़ावा दिया जाना चाहिए”| अर्थात अब ऐसे निजी स्कूलों की संख्या तेज़ी से बढ़ेगी जिनमें सरकार का नियंत्रण न के बराबर होगा|
इसका मतलब एक तरफ सरकार ने शिक्षा के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी से हाथ खींचे और दूसरी तरफ NGOs/निजी खिलाड़ियों की भूमिका मज़बूत की| इसे कैसे समझें?  

हक को खैरात में बदलने की साज़िश
जब सरकार की जगह NGOs नागरिक अधिकार क्षेत्रों मेँ सक्रिय होने लगते हैं तो वो लोगों के हक़ का प्रश्न नहीं रह जाता बल्कि NGOs की दया का प्रश्न बन जाता है| अच्छी शिक्षा तो हर बच्चे का मौलिक अधिकार है इसलिए NGOs कुछ गरीब बच्चों को पढ़ाकर उन पर एहसान नहीं कर रहे होते| बल्कि NGOs तो फण्ड या प्रोजेक्ट ख़त्म होने पर अपना बोरिया-बिस्तरा समेट कर गायब हो जाते हैं क्योंकि उनकी जवाबदेही जनता के प्रति नहीं होती| उनकी जवाबदेही तो उन संस्थाओं के प्रति होती है जिनसे उन्हें लाखो-करोड़ों का फण्ड मिलता है| NGOs को ज़्यादातर पैसा सरकार, निजी कंपनियों, कॉर्पोरेट घरानों, विश्व बैंक, धन्ना-सेठों आदि से मिलता है| आइए देखते हैं ये कंपनियां NGOs को पैसा क्यों देती हैं?
कॉर्पोरेट कंपनियां CSR (corporate social responsibility) के नाम पर अपना व्यावसायिक प्रचार करती हैं, काली करतूतों पर पर्दा डालती हैं और इसमें भी मुनाफा कमाने के रास्ते खोज लेती हैं| उदाहरण के तौर पर पिछले 10 सालों से प्रथम नामक NGO द्वारा संचालित असर (Annual Status Of Education Report) का डाटा यह दिखाने की साज़िश कर रहा है कि सरकारी स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता गिरती चली जा रही है| यह देखने वाली बात है कि इन आंकड़ों का सबसे ज्यादा फ़ायदा दूसरे बड़े NGOs उठाते हैं ताकि वे सरकारी स्कूलों के बने-बनाये ढाँचे और व्यवस्था में घुस सकें| मतलब जाँच भी इनकी और इलाज भी इन्हीं का|
क्या यह बात किसी खतरे का संकेत नहीं है कि मुंबई, हरियाणा से लेकर दिल्ली तक में कई NGOs ने सरकारी स्कूलों को अपने कब्जे मे लेना शुरू कर दिया है? इसके लिए वे झूठी रपटें बनाते हैं, झूठे इल्ज़ाम लगाते हैं, शिक्षकों व बच्चों की अपमानजनक छवियां बेचते हैं, शिक्षकों की गरिमा पर चोट करते हैं और इस भ्रम का प्रचार करते हैं कि सरकारी शिक्षा तंत्र पूरी तरह से विफल हो चुका है और इसे बचाने का एक ही रास्ता है ‘निजीकरण’| जबकि सच तो यह है कि प्राइवेट शिक्षा एक खरीद की वस्तु होती है – पैसा दो, शिक्षा लो|
इस तरह NGOs समाज कल्याण के नाम पर निजी पूँजी के लिए नए-नए बाज़ार खोलते चलते हैं| जब शिक्षा को इस तरह की निजी शक्तियाँ अपने हाथ मे लेंगी तो शिक्षा का चरित्र उनके हितों के प्रति गिरवी रहेगा, जो कि हमें किसी भी कीमत पर स्वीकार्य नहीं है|

NGOs से समाज में कोई मूलभूत परिवर्तन नहीं होता
NGOs गैर बराबरी की व्यवस्था पर सवाल नहीं उठाते बल्कि जो सवाल उठते हैं या उठने चाहिए उनको भी दबा देते हैं| जैसे आज भारत में जितने बच्चे कक्षा 1 में दाखिला लेते हैं, उसमें से मुट्ठीभर बच्चे ही 12वीं पूरी कर पाते हैं| ऐसे में सवाल उठता है कि क्या यह कमी इन हज़ारों-लाखों बच्चों की है या शिक्षा व्यवस्था की? अगर हर बच्चा 12वी पास कर भी जाए तो क्या उसके पढ़ने के लिए कॉलेजों में सीटें और रोज़गार के उचित अवसर हैं?
लेकिन आज बहस मूलभूत परिवर्तन की ना होकर मुट्ठीभर EWS यानि गरीब बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में दाखिले’ की बन गयी है| इसे छलावा नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे? बढ़ती गैरबराबरी के सन्दर्भ में तो समाज में सवाल और बेचैनी बढ़नी चाहिए लेकिन यहाँ भी NGOs एक अहम भूमिका निभाते हैं| वे लोगों के सवालों की धार को कम करने का काम करते हैं जिससे लोग बंटकर अपने निजी फायदों के बारे में ही सोचने और लड़ने तक सिमट जाते हैं। परिणामस्वरूप लोगों के एकजुट होकर पूरे समाज के बदलाव के लिए संघर्ष की संभावना कम हो जाती है|  
इस साज़िश का शिकार बनता है युवा तबके का एक बड़ा हिस्सा जो सामाजिक गैरबराबरी से परेशान तो होता है पर अपने सवालों के जवाब नहीं ढूंढ पाता| वो NGOs में अपनी उर्जा तो झोंक देता है पर समस्या की जड़ पर चोट नहीं कर पाता| दूसरी तरफ NGOs स्वयंसेवा के नाम पर इनकी मजदूरी और कौशल का सस्ते दाम पर इस्तेमाल करते हैं|
आज युवा वर्ग को सुखदेव, राजगुरु और भगत सिंह की विरासत से सीखने की ज़रूरत है| वो विरासत जो सच को सच और झूठ को झूठ देखना और बोलना सिखाती है| उनकी शहादत को विशेष रूप से याद करने की जरूरत इसलिए भी है क्योंकि उन्होंने आज़ादी की लड़ाई को सिर्फ अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ाई न मानकर साम्राज्यवाद-पूंजीवाद के खिलाफ संग्राम की तरह देखा था| आज भी तो हमारे सामने यही लड़ाई है|
आज साम्राज्यवाद अपने पुराने औपनिवेशिक रूप मे हमारे खिलाफ खड़ा नही दिखता है बल्कि इसने हमारी नीतियों को निर्धारित करके, CSR-NGOs के लुभावने तौर तरीकों से हमारी व्यवस्था के भीतर घुसपैठ कर दी है। सबसे खतरनाक तो यह है कि आज साम्राज्यवादी, पूंजीवादी धन्नासेठों/ कंपनियों ने सिर्फ व्यवस्था को ही अपने शिकंजे मे नहीं ले लिया है बल्कि समाज को भी भ्रमित कर दिया है।
शिक्षक होने के नाते हम भगत सिंह से बराबरी, इंसाफ और तर्कशीलता के साथ अपने समय और आसपास की परिस्थितियों व उनमें आ रहे बदलावों को समझने और संगठित होकर उनका मुकाबला करने की प्रेरणा भी पाते हैं। जब तक हम भगत सिंह के विचारों, उनके संघर्ष के क्रांतिकारी तत्वों को आज के संदर्भों में पहचान नहीं लेते तब तक उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि नहीं दी जा सकती।   


आज भगत सिंह तुझे याद करना


साम्राज्यवाद के NGOवादी हमलों, चालों व बहुरूपों के सामयिक संदर्भ में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के शहादत दिवस पर हमारे लिए सोचने-विचारने (और करने) के लिए एक गंभीर चुनौती है। सबसे पहले तो हमें यह सवाल पूछने की ज़रूरत है कि क्या पूँजीवादी-ब्राह्मणवादी-पितृसत्तात्मक पाले में खड़े होकर इन शहीदों को श्रद्धाँजलि दी जा सकती है। असल में तो अगर हम इन विचार-व्यवस्थाओं के नुमाइंदे हैं और इन्हीं में हमारे प्राण व हित बस्ते हैं तो हम महज़ श्रद्धाँजलि का कर्मकांड निभा सकते हैं। इससे ज़्यादा न हम कर पाएँगे और न करना चाहेंगे। कर्मकांड रहित कार्यक्रम सादगी व जज़्बे से, वक्ता/प्रस्तुतकर्ता और श्रोताओं के बीच व्यवहार-इज़्ज़त की समानता से संचालित होंगे। उनमें एक क्या किसी के लिए भी कोल्ड-ड्रिंक्स, मालाएँ, सोफ़े, दीप-प्रज्वलन और वाहवाही या तारीफ के पुल नहीं होंगे। 
भगत सिंह और अन्य क्राँतिकारियों के तौर-तरीकों को अक्सर यह कहकर सही परिप्रेक्ष्य में रखने की कोशिश की जाती है कि उनका उद्देश्य खून बहाना या निर्दोषों की जान लेना नहीं था। उन्हें अंग्रेज़ों से कोई नस्लवादी नफरत या दुश्मनी नहीं थी। इसे न सिर्फ एसेंबली में फेंके गए बमों के संदर्भ से साबित किया जाता है बल्कि यह बात खुद भगत सिंह के बयानों और लेखों की मार्फत भी स्पष्ट हो जाती है। फिर भी हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि क्राँतिकारियों के लिए अहिंसा कोई नैतिकतावादी प्रश्न नहीं था। साथ ही, वो उस हद तक और उस कारण ही क्राँतिकारी थे जिस हद तक और जिस कारण वो मानवतावादी थे। भगत सिंह जैसे क्राँतिकारियों का प्रेरक मूल्य इंसानियत थी। रबिन्द्रनाथ ठाकुर से कई मायनों में विपरीत समझ रखते हुए भी उनमें एक समानता यह थी कि दोनों राष्ट्रभक्ति के वीभत्स व संकुचित रूपों से सावधान थे। भगत सिंह की राजनीति सुंदर समाज व देश ही नहीं बल्कि समानता व इन्साफ पर आधारित सुंदर संसार के निर्माण की थी। उन्हें देश की सीमाओं में बाँधकर, पहलवानी देशभक्ति का प्रतीक बनाकर सीमित कर देना उनके साथ धोखा है। असल में देशभक्ति से बेहतर शब्द देशप्रेम है। भक्ति से न सिर्फ कर्मकांड की बू आती है बल्कि यह उस तार्किकता व आलोचनात्मक, प्रश्नवाचक वैचारिकता के भी विपरीत जाती है जिसे भगत सिंह क्राँतिकारियों का अनिवार्य लक्षण मानते थे। दूसरी तरफ प्रेम एक नैसर्गिक अनुभूति है और एक से प्यार हमें अन्यों से प्यार करने से नहीं रोकता। भक्ति ईर्ष्यालु और संकुचित है, क्राँतिकारी प्रेम उदार और मानवता तक विस्तारित।
              इसी तरह भगत सिंह के घर छोड़ने का कारण परिवारजनों द्वारा उनकी शादी तय कर दिया जाना बताया जाता है। इस निर्णय को वैवाहिक बंधन से बचकर क्राँतिकारी रास्ते पर चलने की शर्त के रूप में व्याख्यायित किया जाता है। यह कहना पड़ता है कि यहाँ भगत सिंह या तो ग़लत समझ रखते थे या फिर पारम्परिक-रूढ़िवादी वैवाहिक रिश्ते की आशंका के संदर्भ में ही उन्होंने उक्त निर्णय लिया होगा। पितृसत्ता के ढाँचे के तहत एक रूढ़िवादी विवाह सचमुच में बंधन होगा - जिसमें स्त्री की बेड़ियाँ कहीं मज़बूत होंगी मगर उसे उनका एहसास बनिस्बत कम हो सकता है। एक क्राँतिकारी का दूसरे क्राँतिकारी से विवाह अथवा उसके विवाह को क्राँतिकारी स्वरूप दे देने से विवाह बंधन नहीं बल्कि आज़ादी का संबंध हो जाएगा, क्राँति की कड़ी होगा। क्राँतिकारियों की युगजनित व व्यक्तिगत सीमाओं को पहचानकर और रेखांकित करके, हमें अपने विद्यार्थियों को आदमी-औरत के ऐसे रूढ़िवादी, स्त्री-विरोधी विमर्श के प्रति सचेत करके इसे खत्म करने की ज़रूरत है।
                भगत सिंह के मुक़दमे से लेकर उनकी फाँसी और अंतिम संस्कार तक में बरती गई सत्ता की डर भरी क्रूरता को भी बखूबी याद रखने की ज़रूरत है। अध्यादेश द्वारा प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों को ताक़ पर रखते हुए ट्रिब्यूनल का गठन करके उनपर मुक़दमा चलाया गया। इस ट्रिब्यूनल का मक़सद त्वरित कार्रवाई था और इसके ऊपर सुनवाई की गुंजाइश नहीं थी। इसी तरह तय तारीख से एक दिन पहले ही उन्हें फाँसी दे दी गई थी, वो भी सुबह की जगह शाम के वक़्त। उनके घरवालों को अंतिम मुलाक़ात का मौक़ा नहीं दिया गया और फिर रातों-रात जेल की पिछली दीवार तोड़कर उनके शवों को - कहते हैं कि टुकड़े-टुकड़े करके - चुपके से जलाकर हुसैनीवाला में सतलुज में फेंक दिया गया। यह बात विशेष महत्व की है कि अपने अंतिम समय में वो प्रार्थना नहीं कर रहे थे बल्कि लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे। ज्ञान व समझ के प्रति ऐसी आस्था, ऐसा प्रेम-लगाव कि मरने से ठीक पहले पढ़ने की ललक हो एक अनोखी मनोदशा का परिचायक है। यह जानकर कि अब मरना ही है और न पुनर्जन्म में यक़ीन है और न ही ईश्वर में - तो फिर उसके रचे स्वर्ग-नर्क का तो कहना ही क्या - अगर कोई अधूरा पन्ना, अधूरा अध्याय पूरा करने की इच्छा जताता है तो यह केवल उसकी महत्ता नहीं है बल्कि एक झलकी है इंसान होने की संभावना की। मन्मथनाथ गुप्त लिखते हैं कि नेश्नल कॉलेज में जयचंद्र विद्यालंकार नाम के एक शिक्षक के प्रभाव से भगत सिंह और उनकी मित्र-मंडली का प्रवेश क्राँतिकारी दल में हो गया। वो आगे लिखते हैं, 'गुरु गुड़ ही रह गए और चेले चीनी हो गए।' इन्हीं शिक्षक का एक प्रभाव वो भगत सिंह के विद्याप्रेमी होने का भी मानते हैं। आज भी अगर हम अपने विद्यार्थियों को करियर महत्वाकांक्षा की जगह शिक्षाप्रेम की प्रेरणा दें पाएँ तो भी क्राँति के काम में परोक्ष योगदान दे सकेंगे। 
पूँजीवादी-साम्राज्यवादी NGO का चरित्र ही इस शिक्षाप्रेम के विरुद्ध है। भले वो कहीं मुफ्त में बस्ते बाँटें या स्कूलों में पुस्तकालय, कम्प्यूटर दें या शिक्षकों को प्रशिक्षित करने के लिए प्रारूप तैयार करें, उनकी भूमिका उस काठ के घोड़े जैसी है जिसे दुश्मन तोहफे के रूप में छोड़ जाता है और जिसमें छुपे सैनिक अंदर से शहर का द्वार आक्रमणकारियों के लिए चुपके-से खोल देते हैं। भलाई के नाम पर कॉर्पोरेट घरानों और उनके NGOs के चलाए जा रहे कार्यक्रमों के चरित्र व उसके खतरे को कोई भी शिक्षाप्रेमी व्यक्ति, बिना अधिक बारीक राजनैतिक विश्लेषण में जाए भी, कुछ तुलनात्मक उदाहरणों से समझ सकता है। अगर किसी धारावाहिक को चेहरे की क्रीम बनाने वाली कम्पनी प्रायोजित कर रही है तो क्या उसमें बाजार, नस्ल और लिंग के रंगभेदी उपकरणों को पहचानकर उनपर सवाल उठाने और उन्हें ध्वस्त करने के संदेश देने की संभावना व्यक्त होने दी जाएगी? आखिर क्यों सरकारी कर्मचारियों पर तोहफे लेने पर कुछ विशेष रोक है? इसका औचित्य इतना गूढ़ नहीं है। आखिर क्यों यह कहा जाता है कि अगर शोध में निजी शक्तियाँ प्रायोजकों की भूमिका में हैं तो उनके परिणामों पर संदेह जायज़ है? असल में निजी पूँजी द्वारा प्रायोजित शोध, कला, शिक्षा आदि को अपनी सम्भवनाओं, गरिमा और स्वतंत्रता की कीमत चुकानी ही पड़ेगी या यूँ कहें कि उनसे वसूल ली जाएगी। 
वहीं दूसरी तरफ इसी भलाईवादी काम को निजी पूँजी अपने प्रचार के साथ-साथ अपनी छवि चमकाने, जनसंसाधन हथियाने और सस्ते-समर्पित कामगार तैयार करने में इस्तेमाल करती है। चाहे वो TFA (टीच फॉर अमेरिका) की तर्ज पर स्कूलों में काम कर रहा TFI (टीच फॉर इंडिया) हो या 'असर' (ASER) नाम से बच्चों की अकादमिक स्थिति की सालाना रपट निकालने वाला और स्कूलों में काम कर रहा 'प्रथम' हो या महिन्द्रा कम्पनी का 'नन्हीं कली' नाम से स्कूलों में चल रहा लड़कियों की शिक्षा को निशाना बनाता कार्यक्रम या Magic Bus के नाम से बच्चों के खेलकूद को लेकर काम कर रही संस्था, ये सभी अपने मालिकाना स्वरूप के अनुरूप इतना ही उद्देश्य रखते हैं कि बच्चे उतना पढ़-लिख लें कि इनके धंधे में कम पैसों मगर पूरे एहसान तले हाथ बँटा सकें। ग़ौर से देखने पर हम इन NGOs और उन कॉर्पोरेट-पूँजीवादी सेठों-विचारकों के संस्थानों के तार मिले पाते हैं जोकि खुलकर बोलते हैं कि सरकार को स्कूल नहीं चलाने चाहिए और शिक्षा को निजी हाथों में छोड़ देना चाहिए। कुछ छद्म-कल्याणकारी भाव दिखाते हुए CCS (सेंटर फॉर सिविल सोसाइटी) जैसे इनके अगुवा संस्थान यह भी कहते हैं कि सरकार को अगर फंड देना ही है तो वह उसे वाउचर के माध्यम से बच्चों को दे और फिर यह उनके अभिभावकों पर छोड़ दे कि वो किस निजी स्कूल में दाखिला लें, न कि खुद, सीधे स्कूलों पर खर्च करे। ('फंड चिल्ड्रन, नॉट स्कूल्स') ज़ाहिर है कि ऐसे में न स्कूल स्कूल रहेंगे, न शिक्षक शिक्षक, न विद्यार्थी विद्यार्थी। फिर शिक्षा की बात कौन करे? स्कूल कम्पनियों की तरह दुकान लगाएँगे, स्पर्धा करेंगे, प्रतिद्वंद्वी होंगे, शिक्षक कॉर्पोरेट अस्पतालों के डॉक्टरों की तरह रीढ़हीन होकर पेशे को व्यापारिक कुनीति के दलदल में धकेलने के आरोपी होंगे और विद्यार्थी खरीदार, ग्राहक। हमें न ऐसे दलाल शिक्षक बनना है और न ही अपने विद्यार्थियों, स्कूलों और समाज को इस घटिया, क्रूर, शोषणकारी व्यवस्था के सुपुर्द करना है। यह हमारे अस्तित्व की लड़ाई तो है ही, हमारी अस्मिता की लड़ाई भी है। 
                           अगर आज भगत सिंह हमारे बीच होते तो क्या वो किसी NGO के सदस्य बन जाते या खुद कोई NGO खोल लेते या फिर जनसंगठन और जनांदोलन के रास्ते क्राँति के मार्ग पर चलते? क्या वो दफ्तर में होते या फिर बस्तर में होते? क्या वो बस्तर में हैं?           

Saturday 7 March 2015

मातृभाषा दिवस: कुछ विचार

21 फ़रवरी को अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस था। इस बाबत सीबीएसई से एक सर्कुलर जारी होने की खबर अखबारों में आई थी पर न तो उसे वो तवज्जो मिली जो संस्कृत सप्ताह मनाने के निर्देश को मिली थी और न ही सामान्य जानकारी में इस सिलसिले में स्कूलों में हुई गतिविधियों के बारे में सुनने को मिला। वैसे, शिक्षाशास्त्रीय और राजनैतिक दोनों कारणों से इस सर्कुलर का स्वागत किया जाना चाहिए। (जबतक कि ऐसे सर्कुलर्स में सिर्फ किसी अवसर की तरफ ध्यान खींचने का उद्देश्य हो, यह स्पष्ट करने का नहीं कि स्कूलों व शिक्षकों को क्या व कैसे कार्यक्रम आयोजित करने हैं और फिर किस तरह सबूत के तौर पर उनकी रपटें 'उच्च' दफ्तरों/अधिकारियों को भेजनी हैं।)
1999 में यूनेस्को ने 21 फ़रवरी को अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस घोषित करके मनाने का निर्णय लिया और संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा इसे वर्ष 2000 से मनाया जा रहा है। इस तारीख का इतिहास भारतीय उपमहाद्वीप से जुड़ा है। 1948 में पाकिस्तान सरकार ने उर्दू को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा देने का फैसला किया जिसके विरोध में तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में बांग्ला भाषा को लेकर तीव्र आंदोलन खड़ा हो गया। इस आंदोलन की मुख्य माँग थी कि बांग्ला को भी राष्ट्रीय भाषा के रूप में स्वीकार किया जाए। 21 फ़रवरी 1952 को ढाका विश्वविद्यालय व ढाका मेडिकल कॉलेज सहित अन्य शिक्षा संस्थानों के विद्यार्थी प्रशासनिक मनाही के बावजूद सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन कर रहे थे। पुलिस ने इस प्रदर्शन पर गोलियाँ चलाईं जिसके परिणामस्वरूप चार विद्यार्थी मारे गए। लोगों ने दो दिन के भीतर ही उस जगह पर शहीद मीनार नाम से एक स्मारक बना दिया जिसे सरकारी आदेश से तोड़ दिया गया। (बाद में इस स्मारक को फिर बनाया गया मगर 1971 के युद्ध के दौरान इसे दोबारा तोड़ दिया गया। बांग्लादेश के आज़ाद होने के बाद इसका पुनः निर्माण कराया गया।) अंततः 29 फ़रवरी 1956 को बांग्ला को पाकिस्तान की एक राजकीय (ऑफिशियल) भाषा का दर्जा प्राप्त हुआ। आज बांग्लादेश में इस दिन सार्वजनिक अवकाश होता है। लोग शहीदों को याद करते हैं, स्मारक पर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं और कई स्तरों पर सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं - जश्न का सा माहौल होता है। हमारे लिए इस पूरे प्रसंग की दो बातें महत्व की हैं। भारत के संविधान निर्माताओं ने संविधान सभा में हुई तीखी व गहरी बहसों के बाद शायद इस घटनाक्रम से भी सबक लेते हुए हिंदी को राष्ट्रीय भाषा का संवैधानिक दर्जा देने के आग्रह को अस्वीकार करने का उचित फैसला किया। यहाँ तक कि संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल भाषाओं को भी कोई भारी भरकम विशेषण न देकर महज़ 'भाषाएँ' शीर्षक दिया गया। वहीं दूसरी ओर बांग्लादेश राज्य ने बांग्ला को अपने राष्ट्रीय जीवन में वैसा ही एकाधिकारवादी स्थान दे दिया, उर्दू के संदर्भ में जिसकी नाइंसाफी के खिलाफ वहाँ के लोगों ने संघर्ष किया था। इस संदर्भ के मद्देनज़र भी कि बांग्लादेश भाषाई (अस्मिता के) आधार पर बनाया गए राष्ट्र-राज्य होने के नाते एक ख़ास उदाहरण प्रस्तुत करता है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि उपमहाद्वीप में भाषा को लेकर राज्य-सत्ता के स्तर पर अन्यथा अनाधुनिक समाजों से कम उदार व इंसाफ़पसन्द रवैया देखने को मिलता है। अपनी मातृभाषा के लिए जो सहज लगाव आंदोलनों में प्रकट हुआ है वह सत्ता के संदर्भ में सफलता प्राप्त करने के बाद स्वाभाविक रूप से दूसरों की मातृभाषाओं के प्रति संवेदनशीलता में नहीं बदला। अगर हमें अपनी भाषा प्यारी है और उसके शैक्षिक निहितार्थ हैं तो इसी तरह अन्यों के हक़-संबंध उनकी अपनी भाषाओं के प्रति हैं। जो लोग या व्यवस्था इस प्राथमिक भाव-तर्क को ग्रहण नहीं कर पाते उनकी नैतिक परिपक्वता के बारे में संदेह किया जा सकता है। 
                                 भाषा जैसे शिक्षाशास्त्रीय व राजनैतिक रूप से महत्वपूर्ण मुद्दे पर स्कूलों का व्यवहार भी उपरोक्त वर्णित संकीणर्ता का परिचायक है। प्रवेश देते समय भाषा रजिस्टर में बच्चों की भाषा को दर्ज करते हुए सामान्यतः ईमानदारी से नहीं भरा जाता है। इसी तरह छठी कक्षा में किसी आधुनिक भारतीय भाषा को तृतीय भाषा के रूप में पढ़ने के हक़ के साथ भी नाइंसाफी होती है। दोनों स्तरों पर विद्यार्थियों या अभिभावकों की भाषाई पहचान या रुचि को लेकर क़ानून व शिक्षा के न्यायसम्मत प्रावधानों के तहत बर्ताव नहीं किया जाता है। इससे भला किसी शिक्षक, प्रधानाचार्य या अभिभावक को क्या समस्या हो सकती है कि स्कूल में चालीस विद्यार्थियों द्वारा किसी भाषा को पढ़ने की इच्छा जताने पर राज्य पर उस भाषा का शिक्षक उपलब्ध कराने की वैधानिक ज़िम्मेदारी लागू हो? इसके बावजूद सार्वजनिक शिक्षा की स्थिति निजी संस्थानों से कहीं बेहतर है। इसका प्रमाण मुंबई के प्राथमिक सार्वजनिक तंत्र के स्कूलों में लगभग दस भाषाओं की उपस्थिति है। इसी तर्ज पर दिल्ली के निगम स्कूलों में हिंदी व अंग्रेजी को छोड़कर तीन भाषाओं को स्थान मिला हुआ है। तेज़ी से बाज़ारवाद के मूल्यों के हवाले किये जा रहे स्कूलों से हम इस संवेदनशीलता की भी उम्मीद नहीं कर सकते। भारत की भाषाओं की लड़ाई सार्वजनिक स्कूली व्यवस्था को मज़बूत करके, निजीकरण के सभी अवतारों - स्कूलों को बेचना, बंद करना, 'गोद' देना आदि - को खारिज करके ही जीती जा सकेगी। ये दोनों लड़ाइयाँ एक-दूसरे का हिस्सा हैं और इन्हें जुदा करके लड़ना आत्मघाती होगा। शिक्षकों को भी शिक्षा विभागों के लिखित-अलिखित ग़ैर-शिक्षणशास्त्रीय व क़ानूनविरुद्ध आदेशों के खिलाफ एकजुट होकर आवाज़ उठानी होगी। पिछले कुछ अर्से से कुछ 'विशेष' स्कूलों या उनके भीतर कुछ 'ख़ास' कक्षाओं को अंग्रेजी माध्यम बनाकर शिक्षाशास्त्रीय सिद्धांतों के साथ खिलवाड़ किये जाने की नीति अपनाई जा रही है। एक ओर निजी स्कूलों के अंग्रेजी माध्यम बाज़ार का फैलता घटिया माहौल है और दूसरी ओर राज्य के संसाधन व चिंता को विशिष्ट जातियों-वर्गों की भाषाओं की सेवा में लगाने वाली जनविरोधी व्यवस्था है। भले ही यहाँ कुएँ और खाई वाली कहावत चरितार्थ होती दिखे फिर भी राजकीय व्यवस्था में जनदबाव परिलक्षित होने की जो संभावना है वह निजी क्षेत्र में नहीं है। 
 भारत की सभी भाषाएँ समान हक़ रखती हैं और किसी को दूसरों पर उनकी अनचाही भाषा (व संस्कृति) थोपने का हक़ नहीं है। क्या स्कूलों के बहुभाषी संदर्भों में शिक्षकों के लिए दो आधुनिक भारतीय भाषाओं की न्यूनतम जानकारी अनिवार्य करना उचित होगा? बहुत से शिक्षक तो स्वयं पहले-से ही बहुभाषी होते हैं। हालाँकि यह भी सच है कि जबतक प्रशासन, अदालतों, उच्च-शिक्षा आदि में जनभाषाओं को जगह नहीं दी जाएगी तबतक केवल स्कूली शिक्षा में मातृभाषा की लड़ाई न सिर्फ बेमानी होगी बल्कि बहुत से, खासतौर से वंचित-शोषित-दलित समुदायों से ताल्लुक़ रखने वाले, लोगों के साथ बेईमानी भी होगी। यहाँ हम उन विचारकों की दलील को नकार नहीं सकते जो मातृभाषा की पैरवी की यह कहकर आलोचना करते हैं कि यह उस वर्तमान व्यवस्था में जिसमें ताक़त व प्रतिष्ठता का रास्ता अंग्रेजी से होकर जाता है ग़ैर-बराबरी को बनाए रखने का साधन है। अंततः यह तर्क शिक्षा के सवाल को राजनैतिक व्यवस्था के अन्य पक्षों से जोड़कर देखने और साझी लड़ाई खड़ी करने को आमंत्रित करता है। शुरुआत हमारी कक्षाओं को अधिक संवेदनशील, न्यायसम्मत व संघर्षशील बनाने से भी हो सकती है।