Sunday 6 September 2015

शिक्षक दिवस की मौलिकता पर कुठाराघात के विरोध में


एक बार फिर बच्चों, शिक्षकों व स्कूलों के प्रति घोर असंवेदनशीलता का परिचय देते हुए शिक्षक दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री के कार्यक्रम का सीधा प्रसारण दिखाना अनिवार्य कर दिया गया। बल्कि इस बार तो राष्ट्रपति द्वारा कक्षा लिए जाने के कार्यक्रम को दिखाना भी अनिवार्य करके प्रशासन ने शिक्षा के प्रति अपनी सतही समझ को हमारे सामने सार्वजनिक कर दिया है। अगर इन कार्यक्रमों के औचित्य को मान भी लिया जाए तो भी बच्चों की उम्र व शारीरिक जरूरतों को नज़रअंदाज़ करके उन्हें जबरन एक  आदेशात्मक कार्यक्रम में घंटों बिठाए रखना उन्हें सत्ता की निरंकुशता का ही पाठ पढ़ाएगा। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि शिक्षक दिवस अपने आप में कोई राजपत्रित दिवस नहीं है और न ही इसे लेकर संसद में कोई क़ानून पारित हुआ है। परिणामस्वरूप देशभर के शिक्षक, बच्चे व स्कूल इसे कब और कैसे मनाने के लिए तो स्वतंत्र हैं ही, इसे नहीं मनाने के लिए भी आज़ाद हैं।
अबतक अधिकतर स्कूलों में इस दिन उच्च कक्षाओं के विद्यार्थियों द्वारा शिक्षकों की भूमिका निभाने की परम्परा रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि बच्चों व शिक्षकों द्वारा इस दिन को अपने ढंग से मनाने की परंपरा को दफ्न करने का प्रयास किया जा रहा है। स्कूलों पर इस प्रकार के कार्यक्रम लाद देना स्कूलों के बौद्धिक चरित्र पर सीधा अतिक्रमण है। स्कूल मुख्यतः अकादमिक स्थल हैं, और एक स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए स्कूलों के इस चरित्र को बरकरार रखना आवश्यक है
आदेशों के अनुसार इस दिन सुबह के सभी स्कूलों की दिनचर्या बदल दी गई और उन्हें सीधे प्रसारण दिखाने के इंतज़ाम करने का आदेश दिया गया। संसाधनों की कमी का रोना रोती सत्ता को ऐसे तुग़लकी व शिक्षा-विरोधी फरमानों का पालन कराने के लिए संसाधनों को लुटाने में कोई संकोच नहीं होता है। स्पष्ट है कि ऐसे कार्यक्रमों को आयोजित करके सत्ता शिक्षकों व शिक्षा व्यवस्था की मूलभूत समस्याओं से लोगों का ध्यान भटकाना चाहती है।  
मगर इन परिस्थितियों में भी विभिन्न स्कूलों से प्राप्त बच्चों के विरोध दर्ज करने के उदाहरण भविष्य के प्रति उम्मीद जिलाए रखते हैं।  










शिक्षक डायरी: शिक्षक दिवस या मोदी दिवस

यह अनुभव दिल्ली सरकार के स्कूल में पढ़ाने वाली एक शिक्षिका साथी ने साझा किया है। साथी ने अनुरोध किया है कि इसके साथ इनका नाम न दिया जाए। संपादक समिति इनके अनुरोध को स्वीकार करते हुए यह अनुभव साझा कर रही है।             
जब स्कूल के सभी बच्चों को सुबह 9.30 बजे से दोपहर 1 बजे तक बिना अपनी मर्ज़ी के डर के मारे एक ही जगह पर बैठे रहना पड़ा तो उन्होंने अपने शिक्षकों से बार-बार पूछा – “मैम टॉयलेट चले जाएं, पानी पी आयें, खड़े हो जाएँ?” जब तक मजबूर शिक्षकों से मना हो सका तब तक उन्होंने मना किया| शिक्षक अधिकारियों के डर से बैठे रहे और शिक्षकों के डर से बच्चे बैठे रहे| फिर इस ‘शिक्षक दिवस’ पर बच्चों ने नया क्या सीखा? राष्ट्रपति की बात अंग्रेज़ी में थी जो ना ज़्यादातर बच्चों को समझ आई और ना ज़्यादातर शिक्षकों को| वे बस यही पूछते रह गए, “मैम, कब ख़त्म होगा?”
‘शिक्षक दिवस’ को प्रधानमन्त्री ने ना सिर्फ अलोकतांत्रिक बना दिया बल्कि एक और दिन को उन्होंने अपने नाम कर लिया| ज़रूर कुछ शिक्षकों को उनकी बातें अच्छी लगी लेकिन जिन्हें अच्छी नहीं लगी उन्हें वहाँ से उठ कर जाने की आजादी क्यों नहीं थी? कक्षा 1 से कक्षा 7 के बेचैन छात्रों को वहाँ से उठ कर जाने की आज़ादी क्यों नहीं थी?
अगर किसी दिन 15 अगस्त का भाषण देखना भारत के हर नागरिक के लिए अनिवार्य हो जाए तो क्या इस देश के लोग इसे तानाशाही मानेंगे? फिर 5 सितम्बर का भाषण सुनना शिक्षकों और विद्यार्थियों का अपना चयन, अपनी चॉइस क्यों नहीं हो सकता? एक ऐसे व्यक्ति जो सिर्फ इस देश के प्रधानमंत्री नहीं बल्कि भारतीय जनता पार्टी के नेता भी हैं, गुजरात के दागदार इतिहास के उत्तरदायी भी हैं, किस अधिकार से अपनी बातें सुनने के लिए हमें मजबूर कर सकते हैं?
आज शिक्षा और शिक्षकों के मुद्दों से हटाकर ‘शिक्षक दिवस’ को भी मोदी दिवस बना दिया गया है| यह अनुमान लगाना ज़्यादा मुश्किल नहीं है कि इस प्रोग्राम में बच्चों द्वारा पूछा हर सवाल पूर्व-निर्धारित, पूर्व-प्रशिक्षित होता है| फिर हर साल बच्चों के ज़्यादातर सवाल प्रधानमंत्री का गुणगान ही क्यों कर रहे होते हैं?
इतनी सख्ती से स्कूलों में इस कार्यक्रम को दिखाने की क्या वजहें हो सकती हैं? इसके दो कारण हो सकते हैं| एक, प्रधानमंत्री चाहते हैं कि स्कूलों को उनके भाषण और पहुँच के नियमित स्थल बना दें जहाँ बच्चों को उनकी बातें सुनने की आदत पड़ जाए| दूसरा कारण हो सकता है कि शिक्षक दिवस पर होने वाले विमर्श को पूर्व-निर्धारित कर देना| पूरे विमर्श की सीमाएं और स्वरूप तय कर देना|  
आखिरकार प्रधानमंत्री मोदी द्वारा दिए गए हर सवाल का जवाब यही क्यों था कि अगर एक शिक्षक चाहे तो ‘सुपरमैन’ स्वरूपी व्यक्तिगत काबिलियत के आधार पर हर समस्या का हल निकाल सकता है? कम संसाधनों में अटल-अचल पढ़ाती जाऊं तो मैं एक अच्छी शिक्षिका हूँ लेकिन अगर सारे शिक्षक साथ मिलकर ज़्यादा संसाधनों के लिए हड़ताल कर दें तो हम कामचोर शिक्षक हैं! अपनी साड़ी फाड़कर रुमाल बनाती आंगनवाड़ी महिला की कहानी और एक 'मेधावी' छात्र के सवाल ‘आज कोई शिक्षक क्यों नहीं बनना चाहता?’ पर प्रधानमंत्री ने जो जवाब दिया उसमें अच्छे शिक्षक की परिभाषा है ‘वो जो चुप-चाप, बिना सवाल उठाये अपना काम करता जाए|’
अगर इस दिन शिक्षकों को स्वयं अपने सवाल उठाने होते, तो वे कैसे सवाल उठाते? क्या हज़ारों शिक्षक ठेके पर काम करने का सवाल नहीं उठाते, एक कक्षा में 60-70 बच्चों को पढ़ाने का सवाल नहीं उठाते, बिना ताज़े पानी के बच्चों के पढ़ने का सवाल नहीं उठाते, स्कूलों से निकलने वाले बच्चों में सिर्फ मुट्ठीभर बच्चों के लिए उच्च-शिक्षा में सीटों का सवाल नहीं उठाते?

अगर शिक्षकों को यह (या ऐसा कोई भी दिन) अपने हाथ में लेना है तो इस प्रथा को तोड़ना होगा| मँहगी होती शिक्षा, विमुख होती शिक्षा, असलियत से दूर होती शिक्षा और कुछ हाथों में मजबूर होती शिक्षा को बचाने के लिए शिक्षकों का साथ मिलकर लड़ना भी ज़रूरी है|