Sunday 3 January 2016

'WTO/GATS and the Global Politics of Higher Education: Antoni Verger

लोक शिक्षक मंच ने नैरोबी में 15 से 19 दिसंबर तक आयोजित विश्व व्यापार संगठन के दसवें मंत्री-स्तरीय सम्मेलन से पहले, सरकार द्वारा उच्च-शिक्षा को WTO को सौंपने के प्रस्ताव के विरुद्ध अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच के आह्वान पर छः महीने चले अभियान में सक्रिय रूप से हिस्सा लिया था। इसमें हमने रिहायशी इलाक़ों व कॉलेज-विश्वविद्यालयों के परिसरों में हस्ताक्षर अभियान चलाने के साथ पोस्टर-प्रदर्शनी भी आयोजित की थी। राष्ट्रीय अभियान 7 से 14 दिसंबर तक जंतर-मंतर पर आयोजित आठ दिवसीय अखिल भारत प्रतिरोधक शिविर के रूप में एक मुक़ाम पर पहुँचा। लोक शिक्षक मंच ने इसमें भी सक्रिय भागीदारी निभाई। अपनी राजनैतिक समझ मज़बूत करने की दृष्टि से अभियान के दौरान हमने विभिन्न पुस्तिकाओं, पर्चों, अखबारों-पत्रिकाओं में व नेट पर छपे लेखों आदि का भी साझा अध्ययन किया। इसी क्रम में वर्ष 2010 में प्रकाशित Antoni Verger की किताब 'WTO/GATS and the Global Politics of Higher Education' भी प्रस्तावित की गई जोकि एक साथी द्वारा अम्बेडकर विश्वविद्यालय के पुस्तकालय से उपलब्ध भी करा दी गई। हालाँकि पुस्तक का गहन अध्ययन आवश्यक होगा मगर फिलहाल, समय व उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए मंच ने अपने स्टडी सर्कल के लिए इसके नौवें अध्याय, 'National Case Studies: Argentina and Chile', को पढ़कर चर्चा करना तय किया। इस अध्याय पर एक स्टडी सर्कल की एक बैठक सर्दियों की छुट्टियों से पहले हुई थी जिसमें, विभिन्न कारणों से, कुछ साथी नहीं आ पाए थे। छुट्टियाँ पड़ने पर कई साथी शहर से बाहर चले गए या किन्हीं आवश्यक कारणों से अन्यत्र व्यस्त हो गए। इस उद्देश्य से कि मंच के सभी साथी इस अध्ययन में शामिल हो पाएँ और अन्य साथियों को भी इससे परिचित कराया जा सके, हम उक्त अध्याय को संशोधित व संक्षिप्त करके (अनुवाद के सहारे) साझा कर रहे हैं। आशा है कि यह हमारी समझ को पुख्ता करने और नए सवाल खड़े करने में मदद देगा।                                                                                                                                        
                                                                                                                                              संपादक समिति  

 अर्जन्टीना का अनुभव 

अर्जन्टीना की उच्च-शिक्षा पर अभी भी 1918 के उन सुधारों का असर है जोकि कॉरदोबा विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के आंदोलन से शुरु हुए थे और जिनकी वजह से विश्वविद्यालयों की राजनैतिक स्वायत्ता तथा उच्च-शिक्षा तक लोगों की अधिक व्यापक पहुँच हासिल की गई थीं। यह लोकतांत्रिक सिलसिला फौज के द्वारा हुकूमत हथियाने तक चलता रहा जब, 1955 में, निजी विश्वविद्यालयों को अधिकृत किया गया। हालाँकि, इन्हें आज भी सार्वजनिक फंडिंग प्राप्त करने की इजाज़त नहीं है। इसके बाद, 1976 में फौजी तानाशाही के दोबारा सत्ता कब्जाने पर, विश्वविद्यालय में मुफ्त प्रवेश को खत्म कर दिया गया और ट्यूशन फीस लागू की गईं। जब 1983 में लोकतंत्र की बहाली हुई तो नई सरकार के पहले फैसलों में ट्यूशन फीस समाप्त करना शामिल था। 1989 में सत्ता में आई नव-उदारवादी सरकार ने क़ानून बनाकर विश्वविद्यालयों को नियंत्रण-मुक्त करने के नाम पर बाज़ार की प्रतिस्पर्धात्मकता व अनुदान-विहीनता के हवाले करना शुरु कर दिया। विश्वविद्यालयों द्वारा इस क़ानून का ज़बरदस्त विरोध हुआ जिसके पीछे एक प्रमुख कारण इसका आर्थिक मामलों के मंत्रालय द्वारा विश्व-बैंक तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के दबाव में संरचनात्मक समायोजन कार्यक्रम (structural adjustment program) के तहत तैयार किया जाना था। इस विरोध का असर यह हुआ कि सरकार को ट्यूशन फीस हटानी पड़ी और कुछ अन्य निजीकरण-वादी फैसले वापस लेने पड़े। 2001 के आर्थिक संकट के बाद नव-उदारवादी नीतियाँ काफी अलोकप्रिय साबित हुईं। बाद की सरकार ने WTO के बनिस्बत Mercosur (कॉमन मार्केट ऑफ द साउथ) के दक्षिण-दक्षिण सहयोग का रुख किया और 2006 में एक नया क़ानून लाकर पिछले क़ानून को पलट दिया। वर्तमान क़ानून साफ़ कहता है कि सभी स्तरों पर शिक्षा में वित्त उपलब्ध कराना राज्य की ज़िम्मेदारी है और हर प्रकार व स्तर की शिक्षा के लिए राज्य-सेवाओं को मुफ्त मुहैया कराना होगा।  
अर्जन्टीना में केवल एक विदेशी विश्वविद्यालय की 'वाणिज्यिक उपस्थिति' (GATS की भाषा में 'प्रकार 3') है। कई विदेशी विश्वविद्यालयों की अर्ज़ियाँ प्रमाणन समिति द्वारा रद्द की जा चुकी हैं। निजी संस्थाओं की बहुत-ही मामूली संख्या का कारण यह है कि सार्वजनिक विश्वविद्यालय पुख्ता रूप से स्थापित हैं और ट्यूशन मुफ्त है। हालाँकि विदेशी संस्थाओं के साथ चलाए जाने वाले (twinning) कोर्स अधिक सामान्य हैं। इसके अतिरिक्त विदेशी विद्यार्थियों की उपस्थिति (GATS की भाषा में 'प्रकार 3') भी मामूली है और उनसे फीस लेने या नहीं लेने का निर्णय भी हर विश्वविद्यालय के अख्तियार में है। दूसरी तरफ, 1995 के क़ानून के तहत, विदेश में पढ़ने वाले अर्जन्टीनियाई विद्यार्थियों के कोर्स को प्रमाणित करने का प्रावधान है। जहाँ बढ़ती संख्या में अर्जन्टीनियाई नागरिक दूरस्थ प्रणाली (GATS की भाषा में 'प्रकार 1') से विदेशी संस्थाओं के कोर्स कर रहे हैं, वहीं अर्जन्टीना के अपने संस्थान कोर्स का निर्यात नहीं करते हैं। 
अर्जन्टीना WTO/GATS के तहत शिक्षा में 'उदारीकरण के प्रस्ताव' देने को राज़ी नहीं है। इसके विपरीत इसने Mercosur में शिक्षा के क्षेत्र को मुख्यतः प्रकार 2 व 3 के लिए खोला है। प्रकार 1 को इसके अनियंत्रित उप-क्षेत्र होने की वजह से शामिल नहीं किया गया। मगर GATS व Mercosur में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ यूँ है कि एक अमीर देशों के सेवा निर्यातकों को लाभ पहुँचाने वाला विश्व व्यापार समझौता है जिसका कोई शैक्षिक जनादेश नहीं है जबकि दूसरा दक्षिण अमरीकी देशों की राजनैतिक एकजुटता की प्रक्रिया है जिसमें एक शैक्षिक एजेंडा भी शामिल है। 
हालाँकि उरुग्वे दौर की वार्ताओं की शुरुआत (1986) में अर्जन्टीना ने सेवा क्षेत्र को WTO के तहत मुक्त बाजार के लिए खोलने का पुरज़ोर विरोध किया, लेकिन इस दौर के समाप्त होते-होते (1994) उदारीकरण का रुख अपनाकर, वह शिक्षा-रहित छह सेवा क्षेत्रों को खोलने का फैसला कर चुका था। दोहा दौर की वार्ताओं के शुरु होने के बाद (2001 से), आर्थिक संकट से उपजे विरोध के संदर्भ में, अर्जन्टीनियाई सरकार ने, व्यापार मंत्रालय के माध्यम से शिक्षा से जुड़े समूहों से सलाह करने की प्रक्रिया अपनाई। हालाँकि इसका उद्देश्य आंदोलन के नेतृत्व को शासन के साथ मिलाकर राजनैतिक स्थायित्व हासिल करना भी था। फिर भी, यह कहा जा सकता है कि 2002 के बाद गठित सरकार ने व्यापार मंत्रालय को जिस तरह अन्य ज़मीनी संगठनों से सलाह करने की औपचारिक ज़िम्मेदारी दी, उससे नीति पर अधिक लोकतान्त्रिक असर डालने की संभावना बढ़ गई। 
व्यापार मंत्रालय की अगुवाई में पहला विचार-विमर्श 2002 में हुआ। अन्य व्यापार वार्ताकारों की तरह अर्जन्टीनियाई व्यापार मंत्रालय का भी यही मानना है कि GATS से शिक्षा को कोई नुकसान नहीं होगा। उसका कहना है कि शिक्षा से जुड़े समूह GATS का विरोध इसलिए करते हैं क्योंकि वो 'अनजान के डर' से ग्रसित हैं और निजीकरण व उदारीकरण में फ़र्क़ नहीं समझते। पहले चरण में सार्वजनिक विश्वविद्यालय परिषद, निजी विश्वविद्यालय कुलपति परिषद और शिक्षा मंत्रालय के उच्च-शिक्षा प्रभाग से बात-चीत की गई। इन सभी ने, अलग-अलग कारणों से, शिक्षा के उदारीकरण के प्रस्तावों से अपना विरोध जता दिया। सार्वजनिक विश्वविद्यालयों ने इस मंत्रणा से पहले, क्षेत्र के मुख्तलिफ देशों के सार्वजनिक विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की बैठक में पोर्तो अलेग्रे पत्र नाम की घोषणा पर दस्तखत किये थे। इसमें कहा गया था कि GATS शिक्षा के सार्वजनिक हित के चरित्र के उसूल को नकारता है और यह शिक्षा के लिए घातक होगा। इस पत्र के आधार पर न सिर्फ अर्जन्टीनियाई सार्वजनिक विश्वविद्यालय परिषद ने GATS में शिक्षा शामिल किये जाने को अस्वीकृत कर दिया बल्कि यह कहते हुए कि बाजार के मूल्य नहीं होते, भूख होती है व इसकी इच्छाओं को सिर्फ मुनाफे से संतुष्ट किया जा सकता है जिसका कि शिक्षा से कोई लेना-देना नहीं है, मंत्रणा में हिस्सा लेने से मना कर दिया। उस समय शिक्षा मंत्रालय के उच्च-शिक्षा प्रभाग ने इस विषय पर कोई ठोस राय क़ायम नहीं की थी मगर उसने एकजुटता दिखाते हुए अर्जन्टीना के विश्वविद्यालयों का साथ दिया तथा बाद में इस मुद्दे पर सार्वजनिक बहसें आयोजित करायीं व दस्तावेज़ प्रकाशित किये। 2003 में जब अर्जन्टीना ने WTO में सेवाओं संबंधी अपना प्रथम प्रस्ताव पेश किया तो शिक्षा उसमें शामिल नहीं थी।
                                2006 में जब व्यापार मंत्रालय ने एक बार फिर विचार-विमर्श आयोजित किया तो, WTO के प्रति अन्य पक्षों का विरोध जानते हुए, इस बार केवल शिक्षा मंत्रालय को ही बुलाया गया। इस बार भी शिक्षा मंत्रालय ने मोंटेवीडियो घोषणा नाम के अपने सार्वजनिक बयान का हवाला देते हुए यह साफ कर दिया कि शिक्षा को मुक्त-बाजार वार्ताओं में शामिल नहीं किया जा सकता और इसके बारे में कोई समझौता नहीं हो सकता। भले ही इस रुख से बनी टकराव की स्थिति से व्यापार मंत्रालय के अधिकारी द्वारा 'राजनैतिक स्तर पर निबट लेने' की धमकी दी गई, लेकिन अंततः फैसला शिक्षा मंत्रालय के पक्ष में ही हुआ। 
यह उल्लेखनीय है कि व्यापार मंत्रालय ने दोनों ही मंत्रणाओं से अर्जन्टीना के सबसे बड़े शिक्षक संगठन, CTERA (अर्जन्टीनियाई शिक्षा मज़दूर परिसंघ, जोकि प्राथमिक व उच्च-माध्यमिक शिक्षकों का संगठन है) को बाहर रखा लेकिन 2004 के बाद से GATS के विरुद्ध देश-व्यापी अभियान चलाकर इसने वार्ताओं में मंत्रालय की स्थिति प्रभावित करने में कामयाबी पाई। परिसंघ ने GATS को लेकर अपनी स्पष्ट समझ 2004 के एजुकेशन इंटरनेशनल (EI) के सम्मेलन में शिरकत करने के बाद बनाई। शिक्षा को सामाजिक अधिकार, न कि बाजार की वस्तु, मानने की घोषणा करते हुए परिसंघ ने यह मान्यता भी व्यक्त की कि आर्थिक वर्चस्व का मतलब सांस्कृतिक वर्चस्व होता है और इसलिए, सांस्कृतिक कट्टरपंथी नहीं होते हुए भी, वे शिक्षा में GATS के प्रवेश को सांस्कृतिक तथा राष्ट्रीय मूल्यों के लिए विनाशकारी मानते हैं। यह रोचक है कि परिसंघ ने व्यापार मंत्रालय के बदले शिक्षा मंत्रालय पर दबाव बनाए रखने की रणनीति अपनाई। परिणाम यह हुआ कि शिक्षा मंत्रालय वार्ताओं में वीटो-धारक की भूमिका निभा पाया। अपनी लड़ाई में परिसंघ ने तीन दस्तावेज़ों का सहारा लिया - 2004 की ब्राजीलिया घोषणा जिसमें अर्जन्टीना व ब्राज़ील के शिक्षा मंत्रालयों के साथ अर्जन्टीनियाई परिसंघ और ब्राज़ील के सबसे बड़े शिक्षक संगठन ने GATS में उदारीकरण की सुपुर्दगी के खिलाफ संयुक्त फैसला लिया; 2005 की मोंटेवीडियो घोषणा जिसमें Mercosur देशों के शिक्षा मंत्रियों ने कहा कि वो शिक्षा को सार्वजनिक हित की वस्तु मानते हुए राज्य की उस ज़िम्मेदारी को रेखांकित करते हैं जोकि उदारीकरण के वायदों से खतरनाक रूप से सीमित हो जाएगी; और परिसंघ के दबाव के परिणामस्वरूप भी बना 2006 का राष्ट्रीय शिक्षा अधिनियम जिसका 10वां भाग निर्देशित करता है कि राज्य किसी भी ऐसे द्वि या बहुपक्षीय मुक्त बाजार समझौतों में दाखिल नहीं होगा जिनमें शिक्षा को मुनाफा कमाने वाली गतिविधि की तरह देखा जाता हो या जिनमें सार्वजनिक शिक्षा के बाज़ारीकरण को प्रोत्साहित किया गया हो।    
इस संदर्भ में कि समझौतों की मेज़ पर अपने हाथ मज़बूत करने के लिए व्यापार वार्ताकार अपने देश के अधिक-से-अधिक आक्रामक हितों और कम-से-कम सुरक्षा हितों की सूची चाहते हैं, शिक्षा मंत्रालय के दबाव व रुख के चलते अर्जन्टीनियाई वार्ताकारों ने खीज व्यक्त की कि उन्हें एक ऐसे तर्क का बचाव करना पड़ रहा था जो उनकी दृष्टि में आधारहीन चिंताओं व दार्शनिक-संकल्पनात्मक आग्रहों में स्थित था। 2002 के मुकाबले, जब अर्जन्टीना के समक्ष सिर्फ कोरिया ने ही माँग रखी थी, वार्ताकारों के लिए 2006 अधिक निराशाजनक था क्योंकि इस समय 'बड़े खिलाडियों' की तरफ से बहुपक्षीय माँग आई थी जिसे कि बहुमूल्य मोल-भाव के लिए इस्तेमाल किया जा सकता था। 
यह भी ध्यान में रखने योग्य है कि अर्जन्टीना में GATS के संदर्भ में शिक्षा पर व्यापक राजनैतिक बहस चली है - यह उन थोड़े से देशों में शामिल है जहाँ राष्ट्रीय विधायिका ने इस पर बहस की है। इसी कड़ी में, 2003 के चुनावों में मेनेम (Menem) ने जहाँ एक ओर शिक्षा को GATS में शामिल करके आर्थिक संकट से उबरने का प्रस्ताव रखा, वहीं किर्शनर (Kirschner) ने इसका विरोध करके 1990 के दशक की नव-उदारवादी नीतियों को पलटने का तरीका अपनाया।  
 चिली का अनुभव 

1973 के जनरल पिनोशे (Pinochet) के तख्ता-पलट से पहले चिली में उच्च-शिक्षा राज्य की ज़िम्मेदारी थी और कोई ट्यूशन फीस नहीं थी। फौजी तानाशाही ने, जिसे दुनिया की प्रथम नव-उदारवादी सरकार समझा जाता है, निजीकरण को बढ़ावा देते हुए बड़ी संख्या में निजी विश्वविद्यालय खोलने का रास्ता आसान कर दिया, सार्वजनिक वित्तीय-समर्थन घटाया गया (जिसके परिणामस्वरूप सार्वजनिक संस्थानों को ट्यूशन फीस लागू करनी पड़ी), विश्वविद्यालयों को खंडित किया गया और मज़दूर हितों को आघात पहुँचाया गया। यहाँ तक कि (1990 में) फौजी हुकूमत का अंतिम महत्वपूर्ण निर्णय भी शिक्षा में निजीकरण को बढ़ाने वाला क़ानून पारित करना था। हालाँकि चिली में अधिक प्रचलित वर्गीकरण 'पारम्परिक' विश्वविद्यालयों (2004 में जिनकी संख्या 25 थी, जिनमें सार्वजनिक व निजी दोनों शामिल हैं, और जो प्रतिस्पर्धा सूत्रों के आधार पर राज्य से वित्तीय-समर्थन प्राप्त करते हैं) तथा 'ग़ैर-पारम्परिक' विश्वविद्यालयों (2004 में जिनकी संख्या 39 थी और जिनमें सभी 1981 के उदारीकरण के बाद खोले गए निजी प्रकार के थे) के बीच है।  
                1990 के बाद चुनावों की प्रक्रिया से सत्ता में आई सरकारों ने नव-उदारवादी नीतियों को ही जारी रखा है। जहाँ नव-उदारवादी विचारकों का मानना है कि इन नीतियों के चलते ही उच्च-शिक्षा में बहुत कम स्तर पर राजकीय खर्च करके भी उच्च-शिक्षा में चिली का नामांकन प्रतिशत बहुत ऊँचा हुआ है, वहीं यह भी सच है कि चिली के अधिकतर विश्वविद्यालय अनुसंधान नहीं करते हैं तथा अच्छे पुस्तकालयों जैसी ज़रूरी सुविधाओं से भी महरूम हैं। चिली के शिक्षा नीति-निर्माताओं का मानना है कि बाजार शिक्षा की गुणवत्ता को खुद-ब-खुद सुनिश्चित कर देगा और राज्य की भूमिका सिर्फ नागरिकों को जानकारी उपलब्ध कराकर उनके चयन (चॉयस) को विस्तार देने की है।
अर्जन्टीना की तुलना में चिली में उच्च-शिक्षा का अंतर्राष्ट्रीयकरण कहीं विकसित है। देख-रेख के मापदंडों की शिथिलता के चलते विदेशी संस्थानों के लिए यह एक आकर्षक बाजार है। लगभग 8% विद्यार्थी विदेशी संस्थानों में पढ़ रहे हैं (GATS की भाषा में 'प्रकार 3') और ग़ैर-पारम्परिक विश्वविद्यालय बड़े स्तर पर यूरोपीय संस्थानों से जुड़े (twinning) कार्यक्रम चलाते हैं।         
2006 के एक क़ानून के तहत चिली ने विदेशी संस्थाओं को भी उच्च-शिक्षा संस्थानों में गुणवत्ता की जाँच करने को अधिकृत कर दिया। लातिनी अमरीकी देशों में, मैक्सिको के अतिरिक्त, चिली ने सबसे अधिक मुक्त व्यापार समझौतों पर दस्तखत किये हैं और इनमें से प्रायः सभी में शिक्षा सेवाएँ शामिल हैं। इस प्रकार, GATS में शिक्षा का कोई वायदा किये बग़ैर, चिली की शिक्षा व्यवस्था का वैश्विक स्तर पर लगभग पूरी तरह उदारीकरण हो चुका है। 
यह अपेक्षित है कि WTO के सदस्य मुक्त व्यापार के फायदों में यक़ीन रखें और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को संचालित करने के लिए इसे सबसे बेहतर व्यवस्था मानें। 1980 के दशक से लेकर, बिना शर्तों व हर्जाने की माँग करे, लगातार उदारीकरण के एकतरफा फैसले लेकर चिली ने अपने को मुक्त व्यापार के पक्के समर्थक के रूप में पेश किया है। एक तरफ देश के भीतर उपजे किसी भी विरोध का हिंसात्मक दमन किया गया, दूसरी तरफ इन निर्णयों की सामाजिक कीमत फौजी हुकूमत के काल में जज़्ब कर ली गई। फिर 1989 में बर्लिन की दीवार के गिरने पर इन्हें थोपा भी गया व इन्हें अंतर्राष्ट्रीय वैधता भी मिल गई। सरकार ने स्वयं सेवा क्षेत्र के उद्योगों को एक ऐसे दबाव-समूह बनाने में मदद की जोकि GATS के अंदर-बाहर सभी समझौतों में मध्यस्थ/संभाषी की भूमिका निभाता है। 
हालाँकि उरुग्वे दौर में चिली ने शिक्षा को सेवा समझौतों के पटल पर नहीं रखा, इसका कारण सतर्कता बरतना और आगे के मोल-भाव में अपना हाथ मज़बूत रखना ही था। दोहा दौर में भी चिली ने शिक्षा को शामिल नहीं किया है लेकिन इसके वार्ताकारों का साफ़ मानना है कि इसका कारण रणनीतिक है - द्विपक्षीय समझौतों में उदारीकरण चरम पर है - और उन्हें सरकार की तरफ से पूरी छूट व शक्ति प्राप्त है कि अगर वो चाहें तो सम्पूर्ण शिक्षा को WTO के पटल पर रख सकते हैं। 
GATS वार्ताओं व द्विपक्षीय समझौतों के संदर्भ में अर्जन्टीना के विपरीत चिली में न सिर्फ शिक्षा से जुड़े किसी भी वर्ग से सलाह नहीं ली गई है, बल्कि शिक्षा मंत्रालय को भी विश्वास में नहीं लिया गया है। दूसरी ओर शिक्षा मंत्रालय भी इस विषय में सहमत या उदासीन ही रहा है। इसका एक कारण तानाशाही के समय से ही शिक्षा में उदारीकरण की नीति का अपनाया जाना और विभिन्न द्विपक्षीय समझौतों के माध्यम से इस नीति को निरंतर आगे बढ़ाना रहा है जिससे कि GATS का तुलनात्मक असर इतना अप्रत्याशित या कुप्रभावी महसूस नहीं होता है। अलबत्ता उदारीकृत माहौल में चिली के शिक्षा संस्थानों की गुणवत्ता को लेकर संयुक्त राज्य व यूरोपीय संघ की आशंकाओं को ध्यान में रखते हुए गुणवत्ता जाँचने की संस्थाओं को इन द्विपक्षीय वार्ताओं में ज़रूर शामिल किया गया। 
1990 के दशक से ही शिक्षा मंत्रालय व गुणवत्ता परखने वाली संस्थाओं द्वारा विश्व-बैंक जैसी व्यापार-संबंधी संस्थाओं के अधिकारियों को आमंत्रित करके शिक्षा के कार्यकर्ताओं के लिए उच्च-शिक्षा के व्यापार व वैश्वीकरण के विषयों पर सेमिनार आदि आयोजित किये जाते रहे हैं। ऐसे में यह कोई हैरानी की बात नहीं है कि उच्च-शिक्षा के नीति-निर्माताओं व अधिकारियों में इस विषय पर एक प्रयोजनवादी समझ हावी है और वो व्यापार की प्रक्रिया को अपरिवर्तनीय तथा शिक्षा के चरित्र की बहस को व्यर्थ मानते हैं। शिक्षा में व्यापार को एक अवसर की तरह देखते हुए वो इसमें पेशागत विकास, गुणवत्ता में बेहतरी तथा विकसित देशों की नीतियों से सीखने की संभावना व्यक्त करते हैं और प्रस्तावित करते हैं कि विश्वविद्यालयों को व्यापार तथा वैश्वीकरण का अनुसरण करना चाहिए। पारम्परिक व ग़ैर-पारम्परिक दोनों ही तरह के विश्वविद्यालय सांगठनिक स्तर पर सेवाओं के निर्यात को बढ़ाना अपना दायित्व घोषित करते हैं। इन आग्रहों, निर्णयों व कार्रवाइयों के आलोक में यह साफ़ हो जाता है कि चाहे वो चिली के शिक्षा मंत्रालय द्वारा अर्जन्टीना की ही तरह मोंटेवीडियो घोषणा पर दस्तखत करने का मामला हो या फिर दो विश्वविद्यालयों द्वारा GATS-विरोधी पोर्तो अलेग्रे पत्र पर हस्ताक्षर करने का उदाहरण हो, स्थानीय राजनैतिक आंदोलनों की अनुपस्थिति में ऐसे 'भले कथनों' में नीति प्रभावित करने की ताक़त नहीं होती है। 
चिली के शिक्षक संगठन - विशेषकर CDP (Colegio de Profesores) नाम का सबसे बड़ा संगठन जोकि EI का सदस्य है - शिक्षा को GATS व अन्य व्यापार वार्ताओं में शामिल करने के मुखर आलोचक रहे हैं। CDP ने अर्जन्टीना के CTERA के साथ EI द्वारा चलाए गए कई GATS-विरोधी कार्यक्रमों में शिरकत की है। इसने अपने सदस्यों को इस विषय पर जागरूक रखा है और बहस को प्रोत्साहित किया है। मगर न ही इन्हें सफलता मिली है और न ही इन्हें व्यापार संबंधी विमर्श में जगह दी गई है। व्यापार वार्ताकार इनके प्रभाव को कमतर आँककर और इनकी माँगों को छुद्र स्वार्थ व 'काल्पनिक समस्याओं' पर केंद्रित बताकर इनके विरोध की वैधता को खारिज करते रहे हैं। 

तुलना और निष्कर्ष  


मुक्त व्यापार समझौतों की वार्ताओं में इन दोनों देशों की अलग-अलग स्थिति घरेलू राजनीति से प्रभावित हैं। इसके अतिरिक्त, खासतौर से अर्जन्टीना के संदर्भ में, क्षेत्रीय व अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं तथा संस्थाओं ने भी प्रक्रिया पर असर डाला है। 
1990 के दशक में व्यापार नीतियों से लेकर समझौतों की प्रक्रियाओं में प्रयुक्त शैली तक में दोनों ही देशों का रुझान एक-सा था। जहाँ 2001 के आर्थिक संकट के बाद अर्जन्टीना में राजनैतिक दबाव व समझ में लोकतान्त्रिक बदलाव आया, वहीं चिली में चुनावों की बहाली के बाद भी मुक्त बाज़ार का विचारधारात्मक वर्चस्व बरक़रार रहा है और शिक्षा में व्यापार को लेकर तकनीकी समझ हावी बनी रही है। दोनों ही देशों के व्यापार वार्ताकार शिक्षा के क्षेत्र को, विशेषकर दूसरे देशों से रियायतें मिलने के बदले, व्यापार के लिए खोलने को तत्पर हैं। साथ ही, दोनों में व्यापार मंत्रालयों ने शिक्षा को लेकर तिजारती रवैया अपनाया है। फ़र्क़ यह है कि एक में यह निर्विरोध रहा है जबकि दूसरे में इसे शिक्षाकर्मियों ने चुनौती देकर कार्यान्वित नहीं होने दिया है। यह महत्वपूर्ण है कि ये शिक्षक संगठन ही हैं जिन्होंने दोनों देशों में GATS व शिक्षा के बाज़ारीकरण के खिलाफ आवाज़ बुलंद रखी है। 
अर्जन्टीना के शिक्षक संगठन (CTERA) को इसमें अधिक सफलता इसलिए मिली है क्योंकि उसने राष्ट्रीय व क्षेत्रीय स्तर पर ऐतिहासिक घोषणाओं और देश के क़ानून को स्पष्ट तौर पर मुक्त-व्यापार विरोधी रूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। इसके अलावा, अर्जन्टीना में 2001 के आर्थिक संकट के बाद चुनी गई सरकारों ने भी पिछली नीतियों से साफ़ दूरी बनाने तथा सामाजिक-शांति व राजनैतिक स्थायित्व बनाए रखने के लिए CTERA जैसे प्रगतिशील संगठनों को साथ लेने की कोशिश की है। चिली में शिक्षक संगठन (CDP) को ये परिस्थितियाँ नहीं मिली हैं और उन्हें मुक्त-व्यापार को लेकर शिक्षा मंत्रालय तथा विश्वविद्यालयों तक में फैली आम-सहमति का सामना करना पड़ा है। 

                      दोनों देशों की  व्यवस्था की तुलना करें तो एक विचित्र स्थिति नज़र आती है। चिली, जिसमें कि अन्य व्यापार समझौतों के तहत पहले ही शिक्षा में काफी उदारीकरण हो चुका है, GATS की वार्ताओं में ज़्यादा मोल-भाव करने की स्थिति में नहीं है, जबकि अर्जन्टीना के हालात ठीक उलट हैं। इसी तरह चिली के वार्ताकारों का अनालोचनात्मक रवैया इस वास्तविकता को नज़रंदाज़ करता है कि चिली की शिक्षा व्यवस्था की अस्थिर, अनियंत्रित स्थिति GATS में प्रवेश से और चरमरा सकती है। इसके विपरीत अर्जन्टीना की शिक्षा व्यवस्था की बेहतर गुणवत्ता व नियंत्रण इसके GATS में प्रवेश को कम खतरनाक बनाते हैं, जबकि उसका रुख राजनैतिक-सैद्धांतिक आग्रहों पर टिका है -  वार्ताकार जिन्हें 'दार्शनिक' कहकर शिकायत करते हैं। इस तरह हम कह सकते हैं कि जहाँ अर्जन्टीना ने 1918 के कॉरदोबा (Cordoba) घोषणापत्र की आत्मा के प्रति अपनी वफादारी निभाई है, वहीं चिली दोहा (Doha) के काल्पनिकता के सम्मोहन से बँधा रहा है। 
  

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