Thursday 18 February 2016

मैंने देखा......स्कूल की निरपेक्ष गरिमा को..........दलगत प्रचार से तार-तार होते हुए

 23 जनवरी को उत्तरी दिल्ली नगर निगम के एक स्कूल के शिलान्यास के कार्यक्रम में जो कुछ देखा वो परेशान करने वाला था। अफ़सोस तो यह है कि समस्या सिर्फ प्रशासनिक अधिकारियों और जनप्रतिनिधि की समझदारी को लेकर नहीं थी बल्कि इसमें हम शिक्षक व प्रधानाचार्य भी शामिल थे। 
 निगम प्राथमिक बाल विद्यालय (तोमर कॉलोनी, बुराड़ी) के शिलान्यास कार्यक्रम के संदर्भ में कुछ चिंताएँ व आपत्तियाँ स्पष्ट तौर पर उभरीं जिनका सरोकार लोकतंत्र व सार्वजनिक स्कूलों की निरपेक्षता, गरिमा और मर्यादा क़ायम रखने से है। 
यह शिलान्यास कार्यक्रम एक सार्वजनिक स्कूल के प्राँगण में था मगर उसमें दलगत झंडों का इस्तेमाल किया गया था। काम कर रहे व्यक्तियों को झंडे लगाने पर टोका गया तो वो बोले कि इसके आदेश उन्हें 'ऊपर' से मिले थे और वैसे भी वो मंच के ऊपर वाले हिस्से पर तीन झंडे ही लगाने जा रहे थे। (बाक़ी झंडे स्कूल के बाहर, सड़क पर लगे।) अधिक बात करने पर ज्ञात हुआ कि कार्यकर्ताओं की नज़र में उस दिन दल ने स्कूल को किराये पर/कब्ज़े में/ ले लिया था! उन्होंने बताया कि निगम ने तो सिर्फ एक नारियल (जोकि, डी-जे पर बजी उस वंदना की तरह, शायद इस धर्मनिरपेक्ष राज्य के विशेष वर्णगत और सांस्कृतिक मूल का द्योतक है) और कुछ मिठाई का ही औपचारिक खर्च उठाया था तथा बाक़ी खर्च - मंच, टेंट, कुर्सियाँ, सजावट, दरी, फूल-मालायें, डी-जे, खान-पान आदि - दल/पार्षद द्वारा होने पर स्कूल व उक्त कार्यक्रम पर दलगत हक़ होना जायज़ ही था। (बाद में कुछ साथियों ने बताया कि उन्हें ठेकेदार से पता चला कि कार्यक्रम में निगम कोष से सात लाख रुपये खर्च किये गए थे। कहना मुश्किल है कि वस्तुस्थिति क्या है।) ताज्जुब तो यह है कि हमारे सार्वजनिक स्कूलों की निरपेक्ष छवि को आघात पहुँचाता यह मंज़र विपक्षी दल के उपस्थित-आमंत्रित पार्षद को भी विचलित नहीं कर पाया। बाद में, पूछताछ करने पर, मालूम हुआ कि इस व्यवहार को ग़लत मानते हुए भी मुख्यधारा के दल आपत्ति इसलिए नहीं करते क्योंकि वो भी इसी संस्कृति का पालन करते हैं।  
यह भी रोचक व महत्वपूर्ण था कि जिस आयोजन का प्रचार सुभाष की जयंती के अवसर के नाम पर किया गया था उसमें उपस्थित वक्ताओं ने उनके विचारों या राजनैतिक कर्मों की कोई चर्चा नहीं की। और तो और, वक्ताओं ने, जिनमें राज्य-सभा के सदस्य भी शामिल थे, या तो शिक्षा पर कोई गंभीर, विद्वतापूर्ण टिप्पणी नहीं की या फिर सतही और झूठे-भ्रामक, उत्तेजनापूर्ण जुमले फेंक कर चलते बने। उदाहरण के लिए, मुख्य-अतिथि उपस्थित जनसमुदाय व बच्चों को यह कह-कहकर उकसाते रहे कि अब परीक्षाओं को हटा देने से बच्चों ने पढ़ना छोड़ दिया है और उद्दंड हो गए हैं। यह ज़रूर है कि उनमें से अधिकतर अपने सम्बोधनों में घोर दलगत प्रकार का प्रचार करते रहे। शायद यह इसी माहौल का सफल परिणाम था कि एक छात्रा को बाद में यह कहते हुए सुना गया कि उक्त स्कूल को उक्त पार्टी बना रही है।
               ज़ाहिर है कि अगर ऐसा कोई कार्यक्रम किसी सार्वजनिक स्कूल के प्राँगण में स्कूल समय में ही होता है तो उससे स्कूली दिनचर्या, पठन-पाठन व बच्चों के शैक्षणिक व अन्य हितों का हनन होना तय है। हालाँकि उक्त कार्यक्रम में उस दिन शीतलहर के चलते घोषित अवकाश होने के कारण ऐसा नहीं हुआ, लेकिन यह संयोग था, सुनियोजित नहीं। यह हमारे सार्वजनिक स्कूलों व उनमें पढ़ने वाले बच्चों की पढ़ाई के प्रति एक अगम्भीर रवैये का संदेश देता है। साफ़ है कि अगर उस दिन स्कूल में बच्चे उपस्थित होते तो या तो उन्हें जल्दी घर भेज दिया गया होता या फिर पहले से ही नहीं आने के संकेत दिलाये गए होते। फिर अगर शीतलहर या बाल-स्वास्थ्य से जुड़े अन्य कारणों के चलते बच्चों की छुट्टी कर दी गई है मगर फिर भी उन्हें ऐसे कार्यक्रमों में बुलाया व इस्तेमाल किया जाता है तो यह उनके स्वास्थ्य, अधिकारों व स्वयं शासनादेश के प्रति ग़ैर-ज़िम्मेदारी प्रकट करता है। हाँ, घोषित अवकाश होने के बावजूद उस दिन स्कूल की कुछ छात्राओं को 'सांस्कृतिक' कार्यक्रम प्रदर्शित करके आयोजन सँवारने के लिए बुलाया गया था। (यह बात हमारे लिए अलग से चिंताजनक है कि इस बार भी संस्कृति के नाम पर ऐसे ताज़ा फ़िल्मी गाने व नृत्य ही परोसे गए थे जिनके बोलों तथा भंगिमाओं से औरत का दोयम, परनिर्भर और शरीर-केंद्रित दर्जा ही पुनर्स्थापित होता है। और हमारी छात्राओं को इस आत्मघाती प्रस्तुतिकरण के लिए तैयार किया जाता है, प्रेरित किया जाता है, पुरस्कृत किया जाता है जिससे वो अपने उत्पीड़न के मूल्यों, उसकी परिस्थितियों को एक आदर्श, एक उत्सव की तरह देखने लगती हैं।) अगर सार्वजनिक स्कूल में किसी ऐसे कार्यक्रम का स्वरूप प्रशासनिक न होकर दलगत है तब तो किसी भी परिस्थिति में बच्चों को उसमें इस्तेमाल करना ठीक नहीं है। यह बच्चों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को दरकिनार करके, उनकी मासूमियत को निजी, दलगत राजनैतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए उपयोग करने का क्षुद्र संदेश देता है। मगर उस मजमे में बैठे सैकड़ों लोगों में से खुद अभिभावकों ने भी इसपर कोई ऐतराज़ प्रकट नहीं किया। मगर जब कुर्सियों पर ख़ास लोग बैठे हों और दरियों पर केवल औरतें या लड़कियाँ, तो ऐसे में समाज में व्याप्त वर्ग-विभाजन तथा पितृसत्ता इतनी साफ़ नज़र आती है कि किसी प्रतिरोध की संभावना ही कम दिखाई देती है।  
 उस कार्यक्रम में भोजन का भी प्रबंध था मगर आम जनता के लिए वह साधारण नाश्ता था और ख़ास मेहमानों/लोगों के लिए पकवान-युक्त थाली। यह सामंती संस्कृति में डूबा बेशर्मी भरा भेदभाव था। लोकतंत्र में, लोकतान्त्रिक प्रतिनिधियों द्वारा सार्वजनिक स्वरूप के कार्यक्रमों में ऐसा भेदभाव प्रदर्शित करना लोकतंत्र के मूल्यों के अपमान का संदेश देता है।  
     हमें लग सकता है कि ऐसे दिशा-निर्देश तय करने की ज़रूरत है जिनका पालन हमारे सार्वजनिक स्कूलों में होने वाले हर कार्यक्रम में हो ताकि स्कूलों और लोकतंत्र की निरपेक्षता व गरिमा अक्षुण्ण रहे मगर मसला यह है कि ऐसे नियमों का प्रावधान पहले से ही है। ज़ाहिर है कि यह स्कूल प्रशासन पर है कि वो अधिकारियों व दलगत सत्तासीन ताक़तों के ग़ैर-क़ानूनी व अनैतिक आदेशों को - जोकि हमेशा मौखिक होते हैं - कितनी सच्चाई और साहस से नकार सकते हैं। यह अवलोकन अवश्य ही उम्मीद जगाने वाला था कि जिन तीन अलग-अलग स्कूलों के शिक्षकों ने उक्त कार्यक्रम को देखा उनमें से अधिकतर ने उसके दलगत स्वरूप पर अपनी नाराज़गी व असहमति ज़ाहिर की। हो सकता है कि इस आपत्ति में कुछ अंश आयोजकों के व्यक्तित्व-व्यवहार में विनम्रता की उस प्रकट कमी के चलते रहा हो जोकि किसी एक दल के नेतृत्व के चरित्र तक सीमित नहीं है। एक अन्य कारण उस दबाव का भी हो सकता है जोकि किसी भी 'बड़े आयोजन' पर मेहमान-नवाज़ को महसूस कराया जाता है - पितृसत्ता में बेटी के माँ-बाप की तरह वो भी एक तरह की अग्नि-परीक्षा से ग़ुज़र रहा होता है। इस संदर्भ में तो यह स्कूल के चौकीदार के अनुभव से और भी रेखांकित हुआ। कार्यक्रम की पूर्व संध्या पर उन्होंने मैदान में पानी लगाकर छोड़ दिया था जिससे कि वहाँ - जोकि तयशुदा जगह थी - टेंट व मंच लगाना असम्भव हो गया तथा फिर कार्यक्रम को पक्के फर्श पर आयोजित करना पड़ा। (हालाँकि इससे आयोजन संबंधी कोई नुकसान नज़र नहीं आया।) इस 'अनहोनी' पर न सिर्फ उन्हें व प्रधानाचार्य को खूब खरी-खोटी सुननी पड़ी बल्कि इंतेज़ाम के लिए रात में स्कूल में रुके कार्यकर्ताओं ने शराब के नशे में चौकीदार से अभद्र भाषा का प्रयोग भी किया। 
इस पूरे घटनाक्रम ने एक बार फिर हमारे राजनैतिक, शैक्षिक व प्रशासनिक कार्यक्रमों के कर्मकांडी स्वरूप के बारे में सवाल खड़े करने को मजबूर किया। ऐसा लगता है कि इन क्षेत्रों के तथाकथित आधुनिक चरित्र के दावे पूर्णतः खोखले हैं और मूलतः ये क्षेत्र हमारी सामंती, धर्माधारित संस्कृति की ग़ैर-बराबरी, फुज़ूलखर्ची, असामाजिकता, हिंसा, शोषण व अमानवीयता पर ही खड़े हैं व इन्हें ही पोषित करते हैं। साथ ही, यह अनुभव, जिसे कि कई लोग साधारण परिघटना बताते हैं, हमारे लोकतान्त्रिक प्रशासन और सार्वजनिक संस्थाओं के तथाकथित निरपेक्ष चरित्र की घटिया हक़ीक़त भी बयान करता है। इस राज्य पर मासूम, शरीफ लोगों की जमात का बस नहीं है - यह निर्मम, बदतमीज़, बदमिज़ाज ताक़तों का गढ़-गठबंधन है। जबतक हम अपनी शिक्षा, राजनीति व संस्कृति में इन सामंती तथा कर्मकांडी तत्वों को न सिर्फ बर्दाश्त करते रहेंगे बल्कि बढ़ावा तक देते रहेंगे तबतक हमारे अनुभव इन कटुताओं से भरे रहेंगे। 
मैंने देखा 
बच्चों को सत्ता के निजी हितों 
के लिए इस्तेमाल होते हुए 
मैंने देखा 
बच्चों को घोषित अवकाश पर भी 
शासनादेश से स्कूल बुलाये जाते हुए 
मैंने देखा 
स्कूल की निरपेक्ष गरिमा को 
दलगत प्रचार से तार-तार होते हुए 
मैंने देखा 
लोकतंत्र में जनता को आम नाश्ता 
और ख़ास लोगों को पकवान बँटते हुए 
मैंने देखा 
सुभाष की जयंती पर नए स्कूल 
पुराने समाज का शिलान्यास होते हुए   

दिल्ली नगर निगम में हड़ताल के अनुभव व कुछ सवाल


दिल्ली नगर निगम के विभिन्न कर्मचारियों द्वारा की गई हालिया संयुक्त हड़ताल के अनुभव से बहुत कुछ सीखने को मिला और कुछ सवाल भी खड़े हुए जिन्हें साझा करने का मक़सद हम शिक्षकों की समझ को बेहतर करना है ताकि संगठन व आंदोलन को मज़बूत किया जा सके। 

सभी कर्मचारियों का एकजुट होना ऐतिहासिक व स्वागतयोग्य था। हालाँकि यह स्पष्टता नहीं थी कि संयुक्त समिति के सदस्य कौन-कौन हैं और उसकी बैठकें किस तरह संचालित होती हैं। आज के दौर में तकनीकी का इस्तेमाल करके इस बारे में अधिक व्यापक व लोकतान्त्रिक संदेश दिए जा सकने की संभावना है। 
हड़ताल का पहला चरण 'चॉक-डाउन' था। चरणबद्ध ढंग से विरोध करने का यह फैसला ठीक जान पड़ता है। हालाँकि, क्या इसमें और कदम जोड़े जा सकते थे? कई साथियों को लगने लगा था कि एक तरीका विभाग (निगम व सरकार) से पूर्णतः असहयोग का भी हो सकता था जिसमें विद्यार्थियों को किसी न किसी रूप में पढ़ाना जारी रहता। 
हड़ताल की मज़बूती निःसंदेह सफाई-कर्मचारियों के बल पर अधिक टिकी थी। न सिर्फ इन साथियों का संख्या-बल ज़्यादा है, बल्कि शायद ख़ास वर्गीय स्थिति, संगठन व चेतना से लैस होने के कारण इनके आंदोलन के प्रतिरोधक तेवर भी तीखे थे। डॉक्टरों ने, शायद अपने पेशे के ऐतेहासिक चरित्र की ज़िम्मेदारी के चलते, हमेशा की तरह आपातकालिक सेवाएँ जारी रखीं। फिर भी मीडिया में जो गंभीरता व चिंता स्वास्थ्य व सफाई के क्षेत्र में हड़ताल को लेकर नज़र आई वह शिक्षकों या स्कूलों के संदर्भ में नदारद थी। क्या इसका कारण हमारे स्कूलों में पढ़ने वालों की वर्गीय स्थिति ही है या फिर इसमें शिक्षा - वो भी प्राथमिक - के प्रति एक उदासीनता भी शामिल है?
हड़ताल के खत्म होने की प्रक्रिया में आपसी एकता में तालमेल की कमी नज़र आई। यह आगे के आंदोलनों के लिए एक खतरनाक संकेत था। यह अलग-अलग वर्गों में बँटे हुए मेहनतकशों के साथ आकर लड़ने की संभावना पर सवाल खड़े करता है। खासतौर से तब जब उनमें से अधिक वेतन पाने वाले या प्रशासनिक-सामाजिक पदानुक्रम में श्रेष्ठ समझे जाने/समझने वाले वर्गों में आर्थिक अलगाव के पार जाने वाले क्रांतिकारी राजनैतिक बोध का कोई कार्यक्रम नहीं चला है। शिक्षक संगठनों को इस मुद्दे पर काम करने की ज़रूरत है अन्यथा आगे की लड़ाइयों को खड़ा करने में समस्याएँ आयेंगी। 
कई साथियों ने अपने प्रतिनिधि संगठन के इस निर्णय पर ऐतराज़ जताया। एक तरफ उनकी शिकायत हड़ताल को बिना अंजाम पर पहुँचाये वापस लेने पर थी और दूसरी तरफ शिक्षकों द्वारा अन्य संगठनों का साथ छोड़ देने की छवि के प्रति चिंता को लेकर थी। हड़ताल करने, उसका स्वरूप तय करने, अन्य संगठनों से सामंजस्य बिठाने और हड़ताल वापस लेने, इन सभी निर्णयों के संदर्भों में अधिक लोकतान्त्रिक प्रक्रिया आज़माने की गुंजाइश है। तकनीकी के स्तर पर भी आज यह सम्भव है कि न सिर्फ सभी साथियों को फैसलों के बारे में सूचित किया जाये बल्कि उन्हें आंदोलन में शिक्षित भी किया जाये व उनकी राय भी ली जाये। 
विद्यार्थियों व उनके परिवारों के भावात्मक और नैतिक समर्थन का अनुभव उत्साहित करने वाला था। स्कूलों में दैनिक सभाओं व कक्षाओं में हम शिक्षकों ने शायद पहली बार एक ऐसे मुद्दे पर विद्यार्थियों को सम्बोधित किया जो सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक यथार्थ से ज्वलंत रूप से जुड़ा था। यह कोई कृत्रिम, किताबी नैतिकता या धर्म-राष्ट्र के अमूर्त आख्यान का मसला नहीं था जिसकी तरफ विद्यार्थियों को मंचीय ढंग से या अपने गुरु होने की भूमिका में प्रेरित करना था, बल्कि उनके संघर्षशील जीवन की परिस्थितियों के अनुभव से जुड़ा सवाल था। काश, इसी शिद्दत से हम अपने विद्यार्थियों के अस्तित्व की चुनौतियों से जुड़े आर्थिक-राजनैतिक आयामों पर भी स्कूली सभाओं में निरंतरता से बात कर सकें, उन्हें बात रखने के, हल खोजने के अवसर दे सकें! आखिर, स्कूली सभा अपने सही चरित्र और उद्देश्य को इसी संवाद में ही तो पा सकती है। इसने एक बार फिर मेहनतकश लोगों की इंसाफ के प्रति सहज चेतना का उदाहरण सामने रखा - तब भी जब उनके अपने हित प्रभावित हो रहे हों। यह हमें अपने विद्यार्थियों, उनके परिवारों, समुदायों व वर्गों के साथ जुड़ाव बढ़ाने को प्रेरित करता है तथा उनकी परिस्थितियों को भी उसी न्यायप्रियता से समझने को आमंत्रित करता है। कुछ साथियों ने इस प्रस्ताव पर ग़ौर किया कि क्या हड़ताल के लम्बा खिचने पर वो स्कूली समय व प्राँगण के बाहर इलाक़ों में कहीं कक्षा लगाकर बच्चों व समुदायों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी निभा सकते हैं। इसमें शायद डॉक्टरों की आपात्कालिक सेवाओं की तर्ज पर, कहीं खुले में दो घंटे पढ़ाने की संकल्पना थी। (हो सकता है कुछ साथियों ने इस पर या इससे मिलते-जुलते विचार पर, अमल भी किया हो।) इलाक़ों और उनमें रहने वाले बच्चों का बिखरा स्वरूप, कॉलोनियों में खुली, सार्वजनिक, सुरक्षित जगह की अनुपलब्धता, पितृसत्ता के संदर्भ में परिवारों में महिला शिक्षिकाओं की स्थिति तथा खुद शिक्षक यूनियन के बारे में अविश्वास जैसे कुछ कारण थे जिनकी वजह से यह आग्रह मुक़ाम तक नहीं पहुँचा। तब तक हड़ताल भी टूट गई। फिर भी, शुरु में हड़ताल का बिना शर्त व पूर्णतः समर्थन करने वाले साथियों में भी हड़ताल बीतते-बीतते कुछ ऐसे थे जिन्होंने महसूस किया कि हमारी हड़ताल की सीधी तुलना कारखानों के मज़दूरों की हड़ताल से नहीं की जा सकती। वहाँ उनकी हड़ताल से पूँजीपति, मुनाफाखोर वर्गों के हितों का प्रत्यक्ष टकराव व नुकसान होता है मगर हमारी हड़ताल का उद्देश्य जिस व्यवस्था, निगम प्रशासन, सरकार की नीतियों व सत्तासीन दलों के खिलाफ आंदोलित होकर उनके हितों पर चोट करना होता है वहीं उस चक्की में हमारे साथ खड़े वर्गों के अधिकारों पर भी आघात पहुँचता है। जबकि हमारी असल लड़ाई तो उनके साथ मिलकर, उनके पक्ष में ही लड़ी जा सकती है और लड़ी जानी चाहिए। इस चुनौती की तरफ कर्मचारी व छात्र संगठनों में सक्रिय रहे कुछ साथियों ने भी ध्यान दिलाया जब उन्होंने हड़ताल को लेकर हमारे इलाकाई जन-सम्पर्क अभियान के बारे में पूछा। इस दिशा में हमारी व शायद यूनियन की भी तैयारी नहीं थी। 
एक महत्वपूर्ण कमज़ोरी लैंगिक प्रतिनिधित्व व भागीदारी को लेकर दिखी। सड़कों पर, धरना-जुलूसों में तो शिक्षिकाओं की भागीदारी बढ़िया थी लेकिन हमारे अपनी यूनियन, संयुक्त समिति या फैसला करने वाली कार्यकारिणी इकाइयों में महिला साथियों की भागीदारी बेहद कम थी। यह आंदोलन के लोकतान्त्रिक चरित्र व लैंगिक प्रतिनिधित्व पर गंभीर सवाल खड़े करता है। स्थिति तब और चिंताजनक हो जाती है जब हम इस घोर असंतुलन को महिला शिक्षकों की बड़ी व बढ़ती संख्या के परिप्रेक्ष्य में रखते हैं। एक तरफ निर्णयों की प्रक्रिया से एक वर्ग का वंचित रहना हमारे संगठन के लोकतान्त्रिक चरित्र पर प्रश्न खड़ा करता है, वहीं दूसरी ओर यह चलन आने वाले संघर्षों को कमज़ोर करेगा। इस संदर्भ में स्थापित यूनियन, बाक़ी साथियों व खासतौर से महिला साथियों को एक ठोस कार्यक्रम तथा रणनीति तैयार करने की ज़रूरत है।  
हड़ताल में बच्चे स्कूल नहीं आये या अगर किसी दिन कुछ आये भी तो उन्हें वापस जाना पड़ा। शुरु के कुछ दिन, चॉक-डाउन के काल में, यूनियन ने साथियों से अपील की थी कि बच्चों को स्कूल में सुरक्षित रखने, हाज़री लेने व खाना बँटवाने की ज़िम्मेदारियाँ पहले की तरह निभाते रहें। यह एक परिपक्व फैसला था। जब हड़ताल अगले चरण में पहुँची तो स्कूल में कोई बच्चा नहीं रहता था - उन अपवादों को छोड़कर जिनके माता-पिता उन्हें बहुत जल्दी छोड़ जाते थे और छोटी उम्र के कारण उन्हें अकेले घर नहीं भेजा जा सकता था। परन्तु हड़ताल में भी किसी भी कारण स्कूल आ गए बच्चों की सुरक्षा की नैतिक ज़िम्मेदारी की दृष्टि से (व शायद वैधानिक भी) इस बारे में विचार किया जाना चाहिए कि उन्हें ऐसे में स्कूल की छुट्टी के नियमित समय तक प्राँगण में रहने दिया जाये। हमारे विद्यार्थियों के लिए हमारे स्कूल हमारे बाक़ी शहर से कहीं ज़्यादा सुरक्षित तथा आज़ाद स्थल हैं और फिर वो बच्चा सुबह-सुबह तैयार होकर आया है। इससे हड़ताल पर कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ेगा क्योंकि वही बच्चा अगले दिन नहीं ही आएगा। उन दिनों की उपस्थिति का क्या होगा, इस बारे में भी श्रेष्ठ फैसला करने की ज़रूरत है। एक प्रस्ताव यह हो सकता है कि रजिस्टर पर लिखा जाए कि हड़ताल के कारण विद्यार्थी नहीं आये और फिर, माह के अंत में, सभी की उतनी हाज़री जोड़ दी जाये जितने दिन हड़ताल रही। इस तरह हड़ताल दर्ज भी होगी और बच्चों को उपस्थिति की बलि भी नहीं देनी पड़ेगी। अगर आंदोलन सही दिशा में है तो उसे सच्चे और नैतिक बयानों तथा प्रक्रियाओं का त्याग नहीं करना चाहिए। क्या यह अपरिपक्व विचार है कि हक़ का संघर्ष झूठ की ज़मीन पर नहीं लड़ा जाना चाहिए?