Thursday 18 February 2016

दिल्ली नगर निगम में हड़ताल के अनुभव व कुछ सवाल


दिल्ली नगर निगम के विभिन्न कर्मचारियों द्वारा की गई हालिया संयुक्त हड़ताल के अनुभव से बहुत कुछ सीखने को मिला और कुछ सवाल भी खड़े हुए जिन्हें साझा करने का मक़सद हम शिक्षकों की समझ को बेहतर करना है ताकि संगठन व आंदोलन को मज़बूत किया जा सके। 

सभी कर्मचारियों का एकजुट होना ऐतिहासिक व स्वागतयोग्य था। हालाँकि यह स्पष्टता नहीं थी कि संयुक्त समिति के सदस्य कौन-कौन हैं और उसकी बैठकें किस तरह संचालित होती हैं। आज के दौर में तकनीकी का इस्तेमाल करके इस बारे में अधिक व्यापक व लोकतान्त्रिक संदेश दिए जा सकने की संभावना है। 
हड़ताल का पहला चरण 'चॉक-डाउन' था। चरणबद्ध ढंग से विरोध करने का यह फैसला ठीक जान पड़ता है। हालाँकि, क्या इसमें और कदम जोड़े जा सकते थे? कई साथियों को लगने लगा था कि एक तरीका विभाग (निगम व सरकार) से पूर्णतः असहयोग का भी हो सकता था जिसमें विद्यार्थियों को किसी न किसी रूप में पढ़ाना जारी रहता। 
हड़ताल की मज़बूती निःसंदेह सफाई-कर्मचारियों के बल पर अधिक टिकी थी। न सिर्फ इन साथियों का संख्या-बल ज़्यादा है, बल्कि शायद ख़ास वर्गीय स्थिति, संगठन व चेतना से लैस होने के कारण इनके आंदोलन के प्रतिरोधक तेवर भी तीखे थे। डॉक्टरों ने, शायद अपने पेशे के ऐतेहासिक चरित्र की ज़िम्मेदारी के चलते, हमेशा की तरह आपातकालिक सेवाएँ जारी रखीं। फिर भी मीडिया में जो गंभीरता व चिंता स्वास्थ्य व सफाई के क्षेत्र में हड़ताल को लेकर नज़र आई वह शिक्षकों या स्कूलों के संदर्भ में नदारद थी। क्या इसका कारण हमारे स्कूलों में पढ़ने वालों की वर्गीय स्थिति ही है या फिर इसमें शिक्षा - वो भी प्राथमिक - के प्रति एक उदासीनता भी शामिल है?
हड़ताल के खत्म होने की प्रक्रिया में आपसी एकता में तालमेल की कमी नज़र आई। यह आगे के आंदोलनों के लिए एक खतरनाक संकेत था। यह अलग-अलग वर्गों में बँटे हुए मेहनतकशों के साथ आकर लड़ने की संभावना पर सवाल खड़े करता है। खासतौर से तब जब उनमें से अधिक वेतन पाने वाले या प्रशासनिक-सामाजिक पदानुक्रम में श्रेष्ठ समझे जाने/समझने वाले वर्गों में आर्थिक अलगाव के पार जाने वाले क्रांतिकारी राजनैतिक बोध का कोई कार्यक्रम नहीं चला है। शिक्षक संगठनों को इस मुद्दे पर काम करने की ज़रूरत है अन्यथा आगे की लड़ाइयों को खड़ा करने में समस्याएँ आयेंगी। 
कई साथियों ने अपने प्रतिनिधि संगठन के इस निर्णय पर ऐतराज़ जताया। एक तरफ उनकी शिकायत हड़ताल को बिना अंजाम पर पहुँचाये वापस लेने पर थी और दूसरी तरफ शिक्षकों द्वारा अन्य संगठनों का साथ छोड़ देने की छवि के प्रति चिंता को लेकर थी। हड़ताल करने, उसका स्वरूप तय करने, अन्य संगठनों से सामंजस्य बिठाने और हड़ताल वापस लेने, इन सभी निर्णयों के संदर्भों में अधिक लोकतान्त्रिक प्रक्रिया आज़माने की गुंजाइश है। तकनीकी के स्तर पर भी आज यह सम्भव है कि न सिर्फ सभी साथियों को फैसलों के बारे में सूचित किया जाये बल्कि उन्हें आंदोलन में शिक्षित भी किया जाये व उनकी राय भी ली जाये। 
विद्यार्थियों व उनके परिवारों के भावात्मक और नैतिक समर्थन का अनुभव उत्साहित करने वाला था। स्कूलों में दैनिक सभाओं व कक्षाओं में हम शिक्षकों ने शायद पहली बार एक ऐसे मुद्दे पर विद्यार्थियों को सम्बोधित किया जो सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक यथार्थ से ज्वलंत रूप से जुड़ा था। यह कोई कृत्रिम, किताबी नैतिकता या धर्म-राष्ट्र के अमूर्त आख्यान का मसला नहीं था जिसकी तरफ विद्यार्थियों को मंचीय ढंग से या अपने गुरु होने की भूमिका में प्रेरित करना था, बल्कि उनके संघर्षशील जीवन की परिस्थितियों के अनुभव से जुड़ा सवाल था। काश, इसी शिद्दत से हम अपने विद्यार्थियों के अस्तित्व की चुनौतियों से जुड़े आर्थिक-राजनैतिक आयामों पर भी स्कूली सभाओं में निरंतरता से बात कर सकें, उन्हें बात रखने के, हल खोजने के अवसर दे सकें! आखिर, स्कूली सभा अपने सही चरित्र और उद्देश्य को इसी संवाद में ही तो पा सकती है। इसने एक बार फिर मेहनतकश लोगों की इंसाफ के प्रति सहज चेतना का उदाहरण सामने रखा - तब भी जब उनके अपने हित प्रभावित हो रहे हों। यह हमें अपने विद्यार्थियों, उनके परिवारों, समुदायों व वर्गों के साथ जुड़ाव बढ़ाने को प्रेरित करता है तथा उनकी परिस्थितियों को भी उसी न्यायप्रियता से समझने को आमंत्रित करता है। कुछ साथियों ने इस प्रस्ताव पर ग़ौर किया कि क्या हड़ताल के लम्बा खिचने पर वो स्कूली समय व प्राँगण के बाहर इलाक़ों में कहीं कक्षा लगाकर बच्चों व समुदायों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी निभा सकते हैं। इसमें शायद डॉक्टरों की आपात्कालिक सेवाओं की तर्ज पर, कहीं खुले में दो घंटे पढ़ाने की संकल्पना थी। (हो सकता है कुछ साथियों ने इस पर या इससे मिलते-जुलते विचार पर, अमल भी किया हो।) इलाक़ों और उनमें रहने वाले बच्चों का बिखरा स्वरूप, कॉलोनियों में खुली, सार्वजनिक, सुरक्षित जगह की अनुपलब्धता, पितृसत्ता के संदर्भ में परिवारों में महिला शिक्षिकाओं की स्थिति तथा खुद शिक्षक यूनियन के बारे में अविश्वास जैसे कुछ कारण थे जिनकी वजह से यह आग्रह मुक़ाम तक नहीं पहुँचा। तब तक हड़ताल भी टूट गई। फिर भी, शुरु में हड़ताल का बिना शर्त व पूर्णतः समर्थन करने वाले साथियों में भी हड़ताल बीतते-बीतते कुछ ऐसे थे जिन्होंने महसूस किया कि हमारी हड़ताल की सीधी तुलना कारखानों के मज़दूरों की हड़ताल से नहीं की जा सकती। वहाँ उनकी हड़ताल से पूँजीपति, मुनाफाखोर वर्गों के हितों का प्रत्यक्ष टकराव व नुकसान होता है मगर हमारी हड़ताल का उद्देश्य जिस व्यवस्था, निगम प्रशासन, सरकार की नीतियों व सत्तासीन दलों के खिलाफ आंदोलित होकर उनके हितों पर चोट करना होता है वहीं उस चक्की में हमारे साथ खड़े वर्गों के अधिकारों पर भी आघात पहुँचता है। जबकि हमारी असल लड़ाई तो उनके साथ मिलकर, उनके पक्ष में ही लड़ी जा सकती है और लड़ी जानी चाहिए। इस चुनौती की तरफ कर्मचारी व छात्र संगठनों में सक्रिय रहे कुछ साथियों ने भी ध्यान दिलाया जब उन्होंने हड़ताल को लेकर हमारे इलाकाई जन-सम्पर्क अभियान के बारे में पूछा। इस दिशा में हमारी व शायद यूनियन की भी तैयारी नहीं थी। 
एक महत्वपूर्ण कमज़ोरी लैंगिक प्रतिनिधित्व व भागीदारी को लेकर दिखी। सड़कों पर, धरना-जुलूसों में तो शिक्षिकाओं की भागीदारी बढ़िया थी लेकिन हमारे अपनी यूनियन, संयुक्त समिति या फैसला करने वाली कार्यकारिणी इकाइयों में महिला साथियों की भागीदारी बेहद कम थी। यह आंदोलन के लोकतान्त्रिक चरित्र व लैंगिक प्रतिनिधित्व पर गंभीर सवाल खड़े करता है। स्थिति तब और चिंताजनक हो जाती है जब हम इस घोर असंतुलन को महिला शिक्षकों की बड़ी व बढ़ती संख्या के परिप्रेक्ष्य में रखते हैं। एक तरफ निर्णयों की प्रक्रिया से एक वर्ग का वंचित रहना हमारे संगठन के लोकतान्त्रिक चरित्र पर प्रश्न खड़ा करता है, वहीं दूसरी ओर यह चलन आने वाले संघर्षों को कमज़ोर करेगा। इस संदर्भ में स्थापित यूनियन, बाक़ी साथियों व खासतौर से महिला साथियों को एक ठोस कार्यक्रम तथा रणनीति तैयार करने की ज़रूरत है।  
हड़ताल में बच्चे स्कूल नहीं आये या अगर किसी दिन कुछ आये भी तो उन्हें वापस जाना पड़ा। शुरु के कुछ दिन, चॉक-डाउन के काल में, यूनियन ने साथियों से अपील की थी कि बच्चों को स्कूल में सुरक्षित रखने, हाज़री लेने व खाना बँटवाने की ज़िम्मेदारियाँ पहले की तरह निभाते रहें। यह एक परिपक्व फैसला था। जब हड़ताल अगले चरण में पहुँची तो स्कूल में कोई बच्चा नहीं रहता था - उन अपवादों को छोड़कर जिनके माता-पिता उन्हें बहुत जल्दी छोड़ जाते थे और छोटी उम्र के कारण उन्हें अकेले घर नहीं भेजा जा सकता था। परन्तु हड़ताल में भी किसी भी कारण स्कूल आ गए बच्चों की सुरक्षा की नैतिक ज़िम्मेदारी की दृष्टि से (व शायद वैधानिक भी) इस बारे में विचार किया जाना चाहिए कि उन्हें ऐसे में स्कूल की छुट्टी के नियमित समय तक प्राँगण में रहने दिया जाये। हमारे विद्यार्थियों के लिए हमारे स्कूल हमारे बाक़ी शहर से कहीं ज़्यादा सुरक्षित तथा आज़ाद स्थल हैं और फिर वो बच्चा सुबह-सुबह तैयार होकर आया है। इससे हड़ताल पर कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ेगा क्योंकि वही बच्चा अगले दिन नहीं ही आएगा। उन दिनों की उपस्थिति का क्या होगा, इस बारे में भी श्रेष्ठ फैसला करने की ज़रूरत है। एक प्रस्ताव यह हो सकता है कि रजिस्टर पर लिखा जाए कि हड़ताल के कारण विद्यार्थी नहीं आये और फिर, माह के अंत में, सभी की उतनी हाज़री जोड़ दी जाये जितने दिन हड़ताल रही। इस तरह हड़ताल दर्ज भी होगी और बच्चों को उपस्थिति की बलि भी नहीं देनी पड़ेगी। अगर आंदोलन सही दिशा में है तो उसे सच्चे और नैतिक बयानों तथा प्रक्रियाओं का त्याग नहीं करना चाहिए। क्या यह अपरिपक्व विचार है कि हक़ का संघर्ष झूठ की ज़मीन पर नहीं लड़ा जाना चाहिए?   

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