Saturday 23 April 2016

पर्चा : शिक्षित बनो ! संघर्ष करो ! संगठित रहो !


                     
बाबासाहेब अम्बेडकर ने कहा था इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि मैं अपने देश को प्यार करता हूँ। लेकिन मैं इस देश के लोगों को यह भी साफ़ साफ़ बता देना चाहता हूँ कि मेरी एक और निष्ठा भी है जिस के लिए मैं प्रतिबद्ध हूँ। यह निष्ठा है अस्पृश्य समुदाय के प्रति जिसमे मैंने जन्म लिया है। जब कभी देश के हित और अस्पृश्यों के हित के बीच टकराव होगा तो मैं अस्पृश्यों के हित को तरजीह दूंगा। अगर कोई आततायी बहुमतदेश के नाम पर बोलता है तो मैं उसका समर्थन नहीं करूँगा। मैं किसी पार्टी का समर्थन सिर्फ इसी लिए नहीं करूँगा कि वह पार्टी देश के नाम पर बोल रही है। सब मेरी भूमिका को समझ लें। मेरे अपने हित और देश के हित के साथ टकराव होगा तो मैं देश के हित को तरजीह दूंगा, लेकिन अगर देश के हित और दलित वर्गों के हित के साथ टकराव होगा तो मैं दलितों के हित को तरजीह दूंगा।

                                                                                        (1939 Bombay legislative Council)

बाबासाहेब की बात से साफ जाहिर है कि किसी भी देश का हित उसमें रहने वाली दलित-दमित जनता के हित से अलग नहीं होता है। क्या देश में रहने वाले सभी समुदायों के हित एक-जैसे ही होते हैं या इनमें आपस में टकराव भी होता है? जाहिर सी बात है कि जहां पर भेदभाव, जुल्म होगा, वहाँ पर अधिकारों, आत्मसम्मान और न्याय की लड़ाई के लिए संघर्ष भी होगा।

जब एक तरफ दमन बढ़ेगा तो उसका प्रतिरोध भी होगा। रोहित वेमूला का संघर्ष और उनकी संस्थानिक हत्या इस बात का प्रमाण है। रोहित के लिए लगातार जातिगत उत्पीड़न और भेदभाव का शिकार होना इतना भयावह था कि उन्होंने मजबूर होकर अपनी जान ले ली| उन्होंने अपने विश्वविद्यालय के वाईस चांसलर को ख़त लिखा कि उके जैसे दलित विद्यार्थियों को दाखिले के समय ही 10 मिलीग्राम ज़हर या फांसी के लिए रस्सी दे देनी चाहिए क्योंकि वैसे भी बिना आत्म-सम्मान के वे ज़्यादा दिन यूनिवर्सिटी में जी नहीं पाएंगे| रोहित की स्कॉलरशिप बंद कर दी गयी थी और वो अपने गरीब परिवार को पैसे नहीं भेज पा रहे थे| एक गरीब दलित विद्यार्थी की स्कॉलरशिप बंद करना उस पर शारीरिक व मानसिक हमला है।
                                                                
हाल ही में राजस्थान के जैन आदर्श टीचर ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट की 17 साल की दलित छात्रा डेल्टा मेघवाल का मृत शरीर उनके छात्रावास के पानी के टैंक में मिला| मौत से एक दिन पहले डेल्टा को उनकी हॉस्टल वार्डन ने एक पुरुष शिक्षक का कमरा साफ करने को कहा थादेखा जाए तो ऐसा आदेश देना ही गलत है लेकिन सच्चाई यह है कि विद्यार्थियों से इस तरह के काम लेना एक आम बात है और अक्सर दलित विद्यार्थी, खासकर लड़कियाँ चाह कर भी मना नहीं कर पाती हैं। डेल्टा के साथ बलात्कार होने और मारे जाने की आशंका व्यक्त की गयी है| डेल्टा की हत्या की जांच अभी चल रही है लेकिन चुनौतियों को पार करके इतने असुरक्षित माहौल में पहुंची वो अकेली दलित विद्यार्थी नहीं है जिसकी शिक्षा यात्रा को मौत के अंजाम पर पहुँचा दिया गया हो| हाल के वर्षों में श्रेष्ठतम उच्च शिक्षा संस्थानों में 25 विद्यार्थियों ने आत्महत्या की है| आखिर क्या वजह है कि इनमें से 23 विद्यार्थी दलित थे?

आज भी भारत के बहुत से गाँवों में दलित विद्यार्थियों को कक्षा में बैठने, पानी पीने, मिड-डे-मील परोसने, शारीरिक व मानसिक प्रताड़ना देने आदि स्तरों पर भेदभाव का सामना करना पड़ता है। ऐसे में यह कोई हैरानी की बात नहीं है कि दलित विद्यार्थियों के स्कूल छोड़ने का दर सामान्य विद्यार्थियों से कहीं ज़्यादा है। इसके कई सामाजिक-आर्थिक कारण भी हैं जिनमें जल-जंगल-जमीन से बेदखल किया जाना प्रमुख हैज़्यादातर दलित बच्चे अपने घर-खानदान-मोहल्ले से पढ़ने वाली पहली पीढ़ी के होते हैं| हम कल्पना कर सकते हैं कि अगर इतिहास में ज्योतिबा, सावित्री बाई और डॉ अंबेडकर की अगुवाई में लोगों ने संघर्ष ना किया होता तो हमारे सामने स्थिति और कितनी भयावह होती      

शिक्षा के इतर भी जाति व्यवस्था अपने संकीर्ण व क्रूरतम रूप में काम करती है। मार्च, 2016 में एक और अंतर्जातीय प्रेम विवाह में तमिलनाडु के त्रिपुर जिले में दलित लड़के शंकर और सवर्ण लड़की कौशल्या पर जानलेवा हमला किया गया। कौशल्या के परिवार वालों ने जाति के झूठे सम्मान को बचाए रखने के लिए इंजिनियरिंग के विद्यार्थी शंकर को मौत के घाट उतार दिया। शादी के आठ महीनों बाद यह हमला तात्कालिक गुस्से का परिणाम नहीं हो सकता| यह जातिगत सर्वोच्चता का अहंकार ही है जो अपने से निम्न माने जाने वाली जातियों से इस हद तक नफरत कराता है कि लोग अपने बच्चों की खुशियों की बलि और उनकी जान तक ले लेते हैं। पिछले तीन सालों में अकेले तमिलनाडु में ऐसी 80 हत्याएं हो चुकी हैं, जिनमें 80% मौतें महिलाओं की हुई| यह हमारी शिक्षा की भी विफलता है कि हमारा समाज आज भी डॉ अंबेडकर के और भारत के संविधान में दिये गए बराबरी, बंधुत्व, इंसाफ और आज़ादी के मूल्यों को आत्मसात नहीं कर पाया है।

तमाम तरह के भेदभाव के बावजूद संघर्ष करके जब कुछ दलित विद्यार्थी पढ़-लिखकर कामयाब होते हैं,  और समाज में सम्मान और गरिमा के साथ जीने की कोशिश करते हैं तो उन्हें खैरलांजी, मिर्चपुर, धर्मपुरी हत्याकांड जैसी जातिगत हिंसा का शिकार होना पड़ता है। जब वे अपने हकों की आवाज़ उठाते हैं, जायज़ मजदूरी की मांग करते हैं, शादी-बारात में घोड़ी पर चढ़ते हैं तो उन पर रणवीर सेना जैसी निजी सेनाएं हमला करती हैं। ऐसी दमनकारी शक्तियों को समय-समय पर सत्तापक्ष का संरक्षण मिलता रहा है। आज जब दलित शिक्षित और संगठित होक संघर्ष कर रहे हैं तो सत्ता पर काबिज तबका यह बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है और उन पर तरह-तरह के राज्य संचालित हमले कर रहा है।

ये भेदभाव सब जगह दिखाई पड़ता है। कहीं दलितों को पुलिस थाने और राशन की दुकानों में घुसने नहीं दिया जाता, तो कहीं स्थानीय हाट में सामान नहीं बेचने दिया जाताइससे यह स्पष्ट हो जाता है कि कानून, शिक्षा, सत्ता, संपत्ति पर केवल कुछ वर्गों का ही कब्जा है। गाँव हो या शहर, सफाई – सकें-नालियाँ-घर-दफ्तरों में शौचालय, मैला ढोना - ऐसा काम है जो सिर्फ और सिर्फ दलित ही करते हैं| 10 लाख से ज्यादा मैला ढोने वालों में 95% दलित हैं| वो वर्ग जो संसाधनों का दोहन करने और कूड़ा पैदा करने में अगुवाई दिखाते हैं, वो कूड़ा साफ़ करने में आगे क्यों नहीं रहते? हरियाणा में पंचायती चुनाव में उम्मीदवार बनने के लिए जब ऋणमुक्त होने की शर्त के साथ दलित महिला की न्यूनतम शिक्षा पाँचवीं पास और दलित पुरुष की आठवीं पास रखी गयी तो 68% दलित महिलाएं और 41% दलित पुरुष पंचायती चुनाव में खड़े होने के लिए ही अयोग्य हो गए| यह कैसा लोकतन्त्र है जो हमेशा से दबाए गए तबके को हाशिये पर रखता है और फिर उन्हें अयोग्य बताकर अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेता है तथा उन्हें ही उनकी स्थिति का दोषी घोषित कर देता है?   

आज दलित समाज जान चुका है कि उसे संस्थागत हिंसक तरीके से रोकने की हर संभव कोशिश की जाएगी लेकिन वह यह भी जानता है कि इन संघर्षों से गुज़रकर ही वह अपनी जगह बना पाएगा| दलित विमर्श देश को शिक्षित कर रहा है, तमाम संघर्षों को एकजुट कर रहा है, लोकतंत्र को मजबूत कर रहा है और हमारे सामने कुछ नए सवाल खड़े कर रहा है जिनके जवाब हमें मिलकर ढूँढने हैं।

आप सादर आमंत्रित हैं
                                                      
कार्यक्रम: फिल्म प्रदर्शन और चर्चा    
तिथि: 24 अप्रैल [रविवार], 2016
समय: दोपहर 3:30 बजे
     स्थान: सत्य विहार चौपाल, बुराड़ी      

Saturday 9 April 2016

सरस्वती पूजा- धार्मिक वर्चस्व पर सांस्कृतिक ठप्पा

अर्जुन 
युवा कवि व विद्यार्थी 

(लेखक ने कुछ समय निजी स्कूल में पढ़ाया है और उसी के अनुभव के आधार पर अपने विचार रखे हैं, बहुत से शिक्षक साथियों ने भी समय समय पर इस तरह के कार्यक्रम के अनुभव और अपनी परेशानियों को हमारे साथ साझा किया है --------------------------संपादक

सोमवार का दिन है। आज स्कूल अन्य दिनों की अपेक्षा अधिक रौशन और जीवंत प्रतीत हो रहा है। ज़्यादातर लोग (अध्यापकगण) पीले वस्त्रों से सुसज्जित हैं। विद्यालय के प्रांगण में पधारने के पश्चात मैं समझ पाया हूँ कि आज सरस्वती के, ज्ञान की देवी के प्रतीक के रूप में, ज्ञान के मंदिर, स्कूल में, पूजन के लिए ये लोग पीले रंग के वस्त्रों से ऊपर से देखने पर एक रंग के तारे जैसे प्रतीत हो रहे हैं। सरस्वती को ज्ञान की देवी के प्रतीक के रूप में स्वीकारने के प्रश्न पर मेरा मस्तिष्क विचलित हो उठता है। मैं किसी भी कीमत पर सरस्वती को ज्ञान की देवी के रूप में स्वीकारे जाने के पक्ष में नहीं हूँ। ऐसा मेरी नास्तिक प्रवृत्ति होने की वजह से नहीं है बल्कि इसकी जड़ें मेरे सामाजिक और जातीय चिंतन में तलाशी जा सकती हैं। मैं इसे केवल दलितों से जोड़कर न देखूँ तो भी यह मुझे आदिवासियों की शिक्षा और शिक्षा के जिस रूप के वर्चस्व को मैं देख पाता हूँ, उन दोनों के बीच निराशा के सिवाय कुछ और दे पाने में असमर्थ है। शूद्र और दलित भारतीय जाति-व्यवस्था के वो अंतिम पायदान हैं जहाँ तक आते-आते केवल और केवल सरस्वती ही नहीं बल्कि दुनिया के किसी भी देवी-देवता की कृपा (अनुकम्पा) शिथिल पड़ जाती है। उन दलितों के लिए जिनकी हज़ारों पीढ़ियाँ तथाकथित शिक्षा व्यवस्था व ज्ञान प्राप्ति से न केवल रोकी गईं - बल्कि मंदिरों पर जाने पर आँखें फोड़ना, मंत्रोच्चारण पर ज़बान काट देना जैसी घिनौनी घटनाओं से साहित्य भरा पड़ा है - सरस्वती को ज्ञान के रूप में प्रदर्शित किया जाना और स्कूल की मुहर लगाकर उसे भारतीय परम्परा का हिस्सा बनाने की प्रक्रिया मुझे इस पीढ़ी के भविष्य की चिंताजनक कल्पना करने को मजबूर करता है। बात सिर्फ दलितों तक सीमित नहीं है। जनजातीय समाज, जिसके लिए ज्ञान के मायनों को भारतीय प्रभुत्वशाली वर्ग ने बिल्कुल बदल दिया है, उनकी संस्कृति, उनके त्यौहार, उनकी शिक्षा के लिए सरस्वती का ज्ञान का प्रतीक होना कहाँ तक सही है? साथ ही, मुस्लिम समुदाय की बात किये बिना ज्ञान और शिक्षा की बात करना विचित्र प्रतीत होता है।
अब इन सब बातों को ध्यान में रखें तो ऐसे धार्मिक वर्चस्व को संस्कृति का नाम देकर स्कूल - जोकि सार्वजनिक और धर्मनिरपेक्ष संस्था होने के लिए वचनबद्ध है - की चारदीवारी के भीतर लाने का विचार और कर्म शिक्षा के सभी सिद्धांतों के खिलाफ प्रतीत होता है। कोई भी ऐसा कार्यक्रम जो इस देश की आबादी के 50% दलित-शूद्रों, 20% मुसलमानों, ईसाइयों, सिखों, बौद्धों, जैनों और 8-9 % आदिवासियों का प्रतिनिधित्व नहीं करता, स्कूल जैसी संस्था द्वारा उसका प्रचार किया जाना और उसे लगातार पोषित करते जाना मुझे बहुत खतरनाक प्रतीत होता है। इसलिए स्कूलों को, और विशेष रूप से दिल्ली के स्कूलों को जिनमें लगभग सभी धर्मों, वर्गों, सम्प्रदायों के बच्चे पढ़ते हैं, उन्हें किसी एक विशेष धर्म-समुदाय के धार्मिक अनुष्ठानों पर स्कूल की मुहर लगाकर मतारोपण का माध्यम नहीं बनना चाहिए। जब तक स्कूलों में इस तरह की गतिविधियाँ बनी रहेंगी तब तक मेरे जैसे अध्यापक के लिए यह दुःख का कारण होगा।     

धर्मनिर्पेक्षता के सिद्धांत और मेरा अनुभव

अर्जुन 
 युवा कवि और विद्यार्थी 

धर्मनिर्पेक्षता के सिद्धांत को वर्तमान सरकार ने जिस क़दर नेस्तोनाबूत किया है, उसका अनुभव मैंने मुज़फ्फरनगर, दादरी आदि जगहों पर हुए दंगों से उभरी कराहटों में महसूस किया है। असहिष्णुता के माहौल को भी महसूस करने के लिए वर्तमान परिस्थितियों में किसी व्यक्ति विशेष को बहुत अधिक प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है। नफरत और हिंसा से सरकार पाँव से लेकर सर तक जिस प्रकार भरी हुई है उसे आज देश के प्रत्येक कोने में महसूस किया जा रहा है। कहना न होगा कि यह इस असहिष्णुता के माहौल की ही उपज है जो मेरे जैसा युवा (जो कभी लेखन में रुचि नहीं लेता था और न लेने की सोचता था) आज अपने लेखन की शुरुआत सरकार विरोधी लेख से कर रहा है। कहते हैं कि व्यक्ति को उसके आसपास की परिस्थितियाँ निर्मित करती हैं। शायद माहौल मुझे ऐसा करने पर मजबूर कर रहा है। खैर, जब मैंने 'धर्मनिर्पेक्षता' से इस लेख का आरम्भ किया है तो यह भी बता दूँ कि अब से कुछ समय पहले तक मुझे समझ नहीं आता था कि इस देश के लिए 'धर्मनिर्पेक्ष' शब्द का प्रयोग क्यों किया गया था और कुछ लोग शुरु से ही लगातार भारतीयों में धर्मनिर्पेक्ष मूल्य विकसित करने के पक्षधर क्यों थे। लेकिन शायद अब मेरी कुछ प्रतिशत समझ पिछले कुछ सालों या महीनों के माहौल से बनी है, और उसे साझा करना चाहता हूँ। पहली बात तो जहाँ तक मुझे समझ आता है, इतिहास में अधिकतर लड़ाइयाँ और सबसे खतरनाक युद्ध - जिनमें प्रथम व द्वितीय विश्व-युद्ध भी शामिल हैं - उन लोगों के क्रियाकलापों का परिणाम रहे हैं जो धार्मिक रूप से बहुत ज़्यादा असहिष्णु रहे हैं। और अगर हम वर्तमान संदर्भों में भी देखें तो ISIS का अंतर्राष्ट्रीय चेहरा हो या अपने देश में दिल्ली, गुजरात में बड़े स्तर पर तथा हाल ही में दादरी, मुज़फ्फरनगर के दंगे, इनमें हमें धर्म के विश्वास व पहचान के तत्व साफ़ दिखाई देते हैं। 
धर्म से नज़दीकी कैसे लोगों की मानवता से दूरी बनाने में बल्कि मानवता के नरसंहार के रूप में किस प्रकार पुष्पित व पल्ल्वित हो रही है, यह आज की पीढ़ी के युवाओं के लिए शोचनीय प्रश्न है। 
अगर मैं इतिहास पर नज़र डालूँ तो मेरी आँखें कम-से-कम अभी तो ऐसी कोई लड़ाई, दंगा, युद्ध देख पाने में असमर्थ हैं जिसमें धर्मनिर्पेक्ष तथा नास्तिक लोगों ने मुख्य भूमिका निभाई हो। एक धर्मनिर्पेक्ष और नास्तिक व्यक्ति का निर्माण मानवता के सिद्धांतों को आधार बनाकर होता है। शायद इसीलिए वह व्यक्ति न तो समाज के लिए खतरा है और न ही समाज उसके लिए। मानवतावादी मूल्यों पर आधारित समाज का निर्माण जहाँ सभी को समान समझा जाता हो, स्त्री-पुरुष को केवल मानव की तरह देखा जाता हो, न कि ताक़तवर और कमज़ोर के रूप में, ऐसे समाज के निर्माण का दायित्व केवल धर्मनिर्पेक्ष और नास्तिक लोगों को ही दिया जा सकता है। और शायद इसी दूरदर्शिता से प्रेरित होकर संविधान निर्माताओं ने एक धर्मनिर्पेक्ष भारत की कल्पना की थी और प्रत्येक भारतीय में धर्मनिर्पेक्ष मूल्यों को विकसित करने की ज़िम्मेदारी शिक्षा व्यवस्था पर छोड़ी थी। लेकिन 90 के दशक के बाद बदले शिक्षा के चरित्र ने स्थिति को बद से बदतर बना दिया है, और कम-से-कम मुझे तो इसका अहसास अब होने लगा है। 
  
(अर्जुन शिक्षा के विद्यार्थी हैं और शिक्षा के विभिन्न मुद्दों पर लगातार सक्रिय रहते हैं। इन्होने कुछ समय प्राइवेट स्कूल में पढ़ाया भी है )