Tuesday 30 May 2017

दिल्ली सरकार के स्कूलों में दाखिले से संबंधित आ रही समस्याओं पर शिकायती पत्र

यह पत्र लोक शिक्षक मंच द्वारा स्कूलों में दाखिले से संबंधित आ रही समस्याओं पर शिक्षा मंत्री,दिल्ली सरकार को भेजा गया 

प्रति,
 शिक्षा मंत्री
दिल्ली सरकार, दिल्ली  

विषय : 2017-18 सत्र में दाखिले से संबंधित समस्याएं

आदरणीय महोदय,                                                                                  
लोक शिक्षक मंच दिल्ली सरकार के स्कूलों में दाखिले से संबंधित आ रही समस्याओं पर आपका ध्यान खींचना चाहता है –

1. 2017-18 में पहली बार दाखिले ऑनलाइन किये गए हैं | अध्यापकगण एवं अभिभावकों को यह स्पष्ट नहीं है कि इस कदम के पीछे क्या कारण या तर्क हैं| जब हम यह जानते हैं कि दिल्ली के सरकारी स्कूलों में अधिकांश विद्यार्थी ऐसी पृष्ठभूमियों से आते हैं जिनके पास कंप्यूटर की सुविधा उपलब्ध नहीं है तो उन पर ऑनलाइन फॉर्म भरने की शर्त थोपना कहाँ तक उचित है ?

सच्चाई यह है कि एक-एक फॉर्म भरने के लिए अभिभावक इन्टरनेट कैफ़े में 200-300 रुपये देने पर मजबूर हैं | शिक्षा अधिकार अधिनियम, जो मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा की गारंटी देने की बात करता है, के इस उल्लंघन की जवाबदेही किसकी है? वैसे भी हम शिक्षक सालभर हर दिन कंप्यूटर की सेवा करने में लगे रहते हैं तो दाखिले को डिजिटल करना इतना आवश्यक क्यों था?

इस दौरान हमारा अनुभव रहा कि दाखिले की परेशानियों को लेकर बहुत से अभिभावकों ने खीझकर यह तक कह डाला कि वे अपने बच्चों (विशेषकर लड़कियों को) आगे नहीं पढ़ाएंगे | क्या बच्चों को स्कूलों से पुश-आउट करना नहीं है? एक तरफ सरकारी स्कूलों में नामांकन घट रहा है, शिक्षक-पद कम होते जा रहे हैं और दूसरी तरफ ऐसी नीतियां अभिभावकों की मुश्किलें बढ़ा रही हैं | अगर ऑनलाइन दाखिले इतने ही आवश्यक थे तो स्कूलों में ऑनलाइन फॉर्म भरने के उचित प्रबंध क्यों नहीं किए गए? जिस देश में आज भी कंप्यूटर अधिकांश लोगों की पहुँच में नहीं है, उस देश में डिजिटल इंडिया थोपना गैर-लोकतांत्रिक है |

2. ऑनलाइन फॉर्म भरने में कई तकनीकी समस्याएं भी आ रही हैं –

·        अगर फॉर्म में जन्मतिथि गलत भरी गई तो बच्चे को आयु-अनुसार दाखिला नहीं मिल पा रहा है | यह स्पष्ट नहीं है कि इसके लिए सुधार कब और कैसे होगा? इस पूरी प्रक्रिया में बच्चों समय बर्बाद हो रहा है |

·        फॉर्म भरते समय अभिभावकों को पड़ोस के 5 स्कूलों के नाम नहीं पता होने पर दूर के स्कूलों के नाम भरवा दिए गए | अब वे अपने बच्चों को इतनी दूर दाखिला दिलवाने की स्थिति में नहीं हैं |

·        KG एवं कक्षा I के फॉर्म में आधार कार्ड तथा बैंक अकाउंट detail अनिवार्यत: मांगने का क्या औचित्य था? क्या इससे अभिभावकों पर अनुचित दबाव नहीं बना होगा ? बैंक अकाउंट वजीफे के लिए आवश्यक है लेकिन दिल्ली सरकार के स्कूलों में आधार एवं बैंक अकाउंट को ऐसा बना दिया गया है जैसे कि इनके बिना बच्चे पढ़ ही नहीं सकते |

·        जब अभिभावक बैंक अकाउंट बनवाने जा रहे थे तो कभी पैन कार्ड और कभी प्रधानाचार्य के हस्ताक्षर मांगे जा रहे थे | ख़ास तौर पर इलेक्शन ड्यूटी के दौर में प्रधानाचार्यों की उपलब्धतता ना हो पाना भी परेशानी का कारण बना | 

3. जो अभिभावक किसी भी कारणवश 31 मार्च तक KG और कक्षा I के फॉर्म नहीं भर पाए थे, उनके लिए कोई विकल्प नहीं बचा? पिछले 1.5 महीने में उनकी परेशानी कम करने के लिए कोई निश्चित निर्देश क्यों नहीं दिए गए ?

4. कक्षा VI व IX में NON PLAN एडमिशन के लिंक 17 अप्रैल 2017 से खुलने थे लेकिन नहीं खुले| फिर 19 अप्रैल से खुलने के निर्देश आए | इससे स्पष्ट है कि विभाग की पहले से तैयारी नहीं थी | इसके अलावा इन बच्चों की करीब एक महीने की पढ़ाई के नुकसान के लिए कौन ज़िम्मेदार है ?

5. ट्रांसफर का विकल्प अप्रैल महीने के शुरू में ही खुल जाना चाहिए ताकि ना अभिभावकों को परेशानी हो और ना स्कूलों को अपनी सीटें खाली रह जाने का डर हो | यह लिंक केवल 2-3 दिनों के लिए ही खुला था| इस बीच जिन बच्चों का ट्रान्सफर हुआ भी है, उनकी ऑनलाइन entry नहीं हो पा रही है, जिसके कारण उनके  दाखिला निश्चित नहीं हुआ है |

इस पूरी प्रक्रिया में अभिभावक और शिक्षक जिस मानसिक उत्पीड़न और आपसी टकराव से गुज़र रहे हैं, उसे व्यक्त कर पाना मुश्किल है | बच्चों के दाखिले के लिए माता-पिता को अपनी कितने ही दिनों की दिहाड़ी छोड़नी पड़ी है | इसकी भरपाई कौन करेगा? हमें डर है कि ऐसी शर्तें थोपने से बहुत से बच्चे दिल्ली सरकार के स्कूलों से बाहर रह जायेंगे और संभवत: स्कूल ही नहीं जा पाएंगे | 

यह स्पष्ट है कि शिक्षा पाना सरल नहीं जटिल होता जा रहा है , कंप्यूटर शिक्षकों की नहीं, हम शिक्षक कंप्यूटर की सेवा में कार्यरत हैं, सरकारी स्कूल पढ़ाने के नहीं आंकड़ों को इकट्ठा करने के यंत्र बनते जा रहे हैं | यह स्पष्ट है कि सत्ताधारी भारत कमज़ोर वर्गों पर अपनी नीतियाँ थोप रहा है | उम्मीद है कि आप अभिभावक और शिक्षकों की इन परेशानियों के समाधान के लिए उचित कदम उठाएंगे |

हमारी मांगें –

1.      दाखिले की प्रक्रिया को सरल बनाया जाए | ऑनलाइन दाखिले की शर्त को ख़त्म किया जाए |

2.      कक्षा KG, I, VI, IX के जिन बच्चों ने ऑनलाइन फॉर्म नहीं भरे हैं या नहीं भर पाए हैं, उनके लिए स्कूलों को निर्देश दिए जाएं कि ऐसे बच्चों को ऑफलाइन दाखिले दिए जाएं |

3.      स्कूलों को निर्देश दिए जाएं कि किसी भी बच्चे को ऑनलाइन फॉर्म या दस्तावेज़ ना होने के कारण वापस ना भेजा जाए | दाखिला लेने के इच्छुक प्रत्येक बच्चे को तुरंत दाखिला दिया जाए |

4.      ट्रान्सफर लिंक को तुरंत खोला जाए | इस लिंक को अप्रैल के शुरू में ही खोल दिया जाना चाहिए | 

5.      कक्षा VI-VIII के Non-Plan दाखिलों को स्कूल के स्तर पर ही रहने दिया जाए ताकि बच्चों की पढ़ाई का समय बर्बाद ना हो | 

6.      शिक्षा अधिकार कानून का पालन करते हुए दाखिले की अंतिम तारीख की शर्त हटाई जाए | 

7.      स्कूलों को आंकड़े इकट्ठा करने का यंत्र ना बनाया जाए | शिक्षा पाना सरल नहीं जटिल बनाया जा रहा है | शिक्षकों को कंप्यूटर की सेवा में कार्यरत करना बंद किया जाए |

सधन्यवाद      



संयोजक समिति सदस्य                संयोजक समिति सदस्य                                                                        
लोक शिक्षक मंच                         लोक शिक्षक मंच 


अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के मौक़े पर शिक्षक/ शिक्षिकाओं के विचार

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के मौक़े पर ये विचार एक निगम स्कूल के शिक्षकों ने लिखकर व्यक्त किये थे। विभिन्न कारणों से इन्हें समय पर दर्ज नहीं किया जा सका लेकिन लैंगिक ग़ैर-बराबरी व उत्पीड़न का यह विषय किसी दिन विशेष की चर्चा तक सीमित नहीं किया जा सकता और रोज़-ब-रोज़ हमारे राजनैतिक हस्तक्षेप की माँग करता है। ज़रूरी नहीं कि इन शिक्षकों के सभी विचारों या विश्लेषण से हमारी पूर्ण सहमति हो। फिर भी, एक-दूसरे को सुनना व संवाद बनाये रखना एक ऐसी प्रक्रिया है जिसपर आज तेज़ी से कुठाराघात हो रहा है। इसलिए भी हमें महिलाओं व छात्राओं के लिए आज़ादी व बराबरी के मूल्यों तथा उद्देश्यों से समझौता नहीं करते हुए अपने साथियों के उन विचारों को भी रखना तो होगा जिन्हें हम प्रतिगामी मानते हैं, ताकि उनकी राजनैतिक-दार्शनिक ज़मीन और उनकी चिंताएँ समझ सकें।

शिक्षिका 

किस प्रकार हमारे समाज ने कुछ आदतों व कामों को stereotype [रूढ़िबद्ध] कर दिया है, यह बात हैरानी की है। "लड़कियों की तरह क्यों रो रहा है?", "तू लड़की है जो झाड़ू लगा रहा है?", "देखो, लड़के जैसे बाल कटवा लिए इसने!", "आदमियों से उन्हीं की तरह बहस करती है!" इत्यादि बातें छोटे बच्चे-बच्चियों के मन-मस्तिष्क में उन्हीं के परिवार के सदस्य इस प्रकार डाल देते हैं मानो बचपन भी इस भेदभाव को झेलने के लायक़ हो। बचपन में ही equal environment [समान वातावरण] छीन लिया जाता है और यही insensitivity [असंवेदनशीलता] आगे चलकर समाज में और घिनौने रूप में स्थापित हो जाती है। मेरी समझ से बचपन से ही कम-से-कम कामों व आदतों का लड़कों-लड़कियों में विभाजन न करने से भावी पीढ़ी में सुधार की कुछ उम्मीद की जा सकती है। 

शिक्षिका 

लैंगिक भेदभाव - एक अभिशाप है...एक दीमक है जो समाज को खोखला बना रहा है। आज आधुनिकता की बात करते हैं, वैज्ञानिक युग की बात करते हैं लेकिन जब बात किसी को अवसर देने की आती है तो प्राथमिकता लड़कों को दी जाती है। भेदभाव तो बचपन से शुरु होकर अंतिम साँस लेने तक होता है। घर से विद्यालय, फिर कॉलेज, फिर शादी-विवाह या फिर नौकरी, हर जगह इस दंश के साथ चलना पड़ता है कि हम एक लड़की, एक महिला, एक स्त्री हैं। आज भी कई क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ महिलाओं का प्रवेश वर्जित है। ऐसा कहीं सुनते हैं कि फ़लाँ काम पुरुष नहीं कर सकते? लेकिन लड़कियों को कहा जाता है कि तुम एक लड़की हो और यह काम नहीं करना चाहिए, यह तुम्हारे लायक़ नहीं है। ठीक इसके विपरीत यदि कोई लड़का खाना बनाता है तो उसे chef कहकर सम्बोधित करते हैं। कोई make-up करता है तो उसे make-up man कहते हैं।यह तो नहीं कहते कि यह केवल लड़कियों का काम है। 

शिक्षिका 

अभिनेता अमिताभ बच्चन जी ने अपनी सम्पत्ति का आधा हिस्सा अपनी पुत्री श्वेता तथा आधा हिस्सा अपने पुत्र अभिषेक बच्चन को दिया है। 
किन्तु हर शादी-शुदा स्त्री अपने माँ-बाप से यह उम्मीद नहीं करती कि उन्हें भी सम्पत्ति में हिस्सा मिले। वो चाहती है सिर्फ़ -
"मैं हूँ दो घरों का मान और सम्मान।।
दो मुझे सिर्फ़ इज़्ज़त, न दो धन-दौलत और मकान।।"

शिक्षक 

हम 21वीं शताब्दी के भारतीय होने पर गर्व करते हैं जो एक बेटा पैदा होने पर ख़ुशी का जश्न मनाते हैं और यदि एक बेटी का जन्म हो जाए तो शांत हो जाते हैं। लड़के के लिए इतना प्यार कि लड़कों के जन्म की चाह में हम प्राचीन काल से ही लड़कियों को जन्म के समय या जन्म से पूर्व मारते आ रहे हैं। यदि सौभाग्य से वो नहीं मारी जाती है तो हम जीवनभर उसके साथ भेदभाव [करने] के अनेकों तरीक़े ढूँढ लेते हैं। हालाँकि हमारे धार्मिक विचार औरत को देवी का स्वरूप मानते हैं लेकिन हम उसे इंसान के रूप में पहचानने से मना कर देते हैं। हम देवी पूजा करते हैं, पर लड़कियों का शोषण करते हैं। जहाँ तक कि महिलाओं के संबंध में हमारे दृष्टिकोण का सवाल है, तो हम दोहरे मानकों का एक ऐसा समाज हैं जहाँ हमारे विचार और उपदेश हमारे कार्यों से अलग हैं। 
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त "अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी" कहकर सहानुभूति रखने की प्रेरणा देते हैं तो कामायनी के रचनाकार जयशंकर प्रसाद जी ने "नारी केवल तुम श्रद्धा हो" कहकर नारी को श्रद्धेय बताया है। 
लड़की को बचपन से शिक्षित करना अभी-भी एक बुरा निवेश माना जाता है क्योंकि एक दिन उसकी शादी होगी और उसे पिता का घर छोड़कर दूसरे घर जाना पड़ेगा। सिर्फ़ शिक्षा के क्षेत्र में नहीं बल्कि परिवार, खाने की आदतों के मामलों में भी वो केवल लड़का ही होता है जिसे सभी प्रकार का पौष्टिक व स्वादिष्ट, पसंदीदा भोजन प्राप्त होता है। 
अतः उपर्युक्त विवेचना के आधार पर कहा जा सकता है कि महिलाओं के साथ असमानता और भेदभाव का व्यवहार समाज में, घर में और घर के बाहर विभिन्न स्तरों पर किया जाता है। लड़कियों को सरकारी स्कूल व लड़कों को बढ़िया-से-बढ़िया [महँगे?] प्राइवेट स्कूल भेजने की सोच उसी दोहरी मानसिकता को दर्शाती है। 
महिलायें शादी के बाद भी अपने मन की कुछ नहीं कर सकती हैं। न जाने वो शादी के बाद कितने अरमानों व इच्छाओं का गला दबाते हुए हँसती हैं व ख़ुश रहने का स्वाँग रचती हैं। वास्तव में देखा जाए तो [औरत] जन्म से लेकर मृत्यु प्राप्त होने तक हर पल समझौता [करती है तथा], क़ुर्बानी व दूसरों को ख़ुशी देती रहती है।      

ऊपर तीन शिक्षिकाओं व एक शिक्षक ने जो विचार व्यक्त किये हैं वो हमें कुछ सोचने व सवाल खड़े करने के लिए भी मजबूर करते हैं। जैसे -
शिक्षक होने के नाते हम यह समझते हैं कि लैंगिक विभाजन कोई प्राकृतिक या नैसर्गिक घटना नहीं है, बल्कि इसके लिए बचपन का पालन-पोषण और सामाजीकरण ज़िम्मेदार है। लेकिन ख़ुद हमारे स्कूलों में ही इस लैंगिक विभाजन के बारे में कितनी बात होती है या इसपर कितने सवाल खड़े किये जाते हैं या कितने प्रगतिशील उदाहरण प्रस्तुत किये जाते हैं? कक्षाओं में छात्र-छात्राओं के बैठने, उनकी दोस्तियों को लेकर; सांस्कृतिक कार्यक्रमों, खेल-कूद में भागीदारी को लेकर; इन कार्यक्रमों के स्वरूप को लेकर (उदाहरण के लिए, शामिल किये गए गीतों के बोल); त्योहारों के बारे में चर्चा, लेखन को लेकर आदि। कहीं हमारे स्कूल भी इस विभाजन को मज़बूत नहीं कर रहे?
हम यह भी समझते हैं कि कहीं-न-कहीं यह विभाजन असल में महिलाओं के सस्ते श्रम के शोषण का रूप है और इसे बढ़ाने का काम करता है। इस तरह यह परिवार से लेकर वृहद अर्थ-व्यवस्था तक एक भूमिका निभाता है जिसमें एक के काम की क़ीमत जितनी भी है, दूसरे के उसी काम की क़ीमत उससे कम या नाममात्र की है। ऐसे में हम स्कूलों में थोपे जा रहे वोकेशनल विषयों के अंजाम को किस तरह देखें क्योंकि इनमें भी एक लैंगिक विभाजन साफ़ दिखाई देता है? यानी जो अबतक 'स्कूल-के-बाहर' के जगत की बुराई थी वो स्कूलों में ससम्मानित स्थान पा रही है। ऐसे में स्कूलों की परिवर्तनकामी भूमिका के विचार को कैसे ज़िंदा रखें? फिर, अलग-अलग मौक़ों पर छात्र-छात्राओं के समक्ष बात करते हुए हम किसे किन कामों के उदाहरण देते हैं और किन-के नहीं देते? 
मान को उचित तरजीह देना भी ज़रूरी है लेकिन जब इसके लिए बाक़ी अधिकारों को, बराबरी की माँग को छोड़ने के लिए मजबूर किया जाए तो उसे सम्मान कहेंगे या छल-कपट? क्या हम देवी या गुड़िया बनकर पूजे जाना, लाड़ पाना चाहते हैं, भले ही इसके लिए हमें एक चारदीवारी में क़ैद रहना पड़े, निर्जीव मुस्कान प्रदर्शित करनी पड़े? सम्पत्ति का हक़ तो भारतीय संविधान प्रदत्त अधिकार है, किसी की दया या ख़ैरात नहीं जो हम इसके लिए किसी का एहसान मानें या संकोच करें। फिर आज समाज को बराबरी के इस मुक़ाम तक पहुँचाने में कई पीढ़ियों की महिलाओं ने आंदोलन लड़े हैं, क़ुर्बानियाँ दी हैं; भले ही हमें व्यक्तिगत रूप से इस विषय में कुछ भी फ़ैसला करना हो, हम औरतों के सम्पत्ति के हक़ को हल्के में नकारकर उनके संघर्ष को अपमानित नहीं कर सकते। अगर कल हमें भी यही कहकर कम वेतन पर संतोष करने के लिए कह दिया जाए कि हमें मुआवज़े में मान-सम्मान मिलेगा, तो हममें से कितने ख़ुशी-ख़ुशी नौकरी करते रहेंगे?
नारी के प्रति चिंता दिखाने में क्यों हम घर की मिल्कियत को पति या पिता तक सीमित कर देते हैं? क्या इससे औरत के वजूद की, उसके श्रम की अनदेखी नहीं होती, उसका तिरस्कार नहीं होता? यह हमारी संस्कृति के संकीर्ण और अप्रतिनिधिक होने का ही संकेत है कि बहुत सद्दोश्य होने पर भी हमें राष्ट्रकवियों की पुरुषोक्त सहानुभूति की पंक्तियाँ याद आती हैं क्योंकि वो ही हमें बचपन से जवानी तक श्रेष्ठ साहित्य के नाम पर पढ़ाई गई हैं। कहाँ हैं हमारे पाठ्यक्रमों में, किताबों में, दैनिक सभाओं में, विशेष कार्यक्रमों पर, महिलाओं की अपनी आवाज़, अपनी रचनाएँ? जिनमें दुख है, व्यथा है, तो हँसी-खिलखिलाहट भी है, बहनापे का उल्लास, उसकी ताक़त भी है, ग़ुस्सा है, प्रतिकर है, विश्लेषण है, संघर्ष तथा आंदोलन के रास्ते हैं। 
स्कूलों में भी हमें उपरोक्त सभी चुनौतियों से लगातार जूझना पड़ता है, तभी जाकर हम अपने शिक्षक होने की भूमिका को अर्थ दे पाते हैं। ज़रूरत ये है कि हम इन चुनौतियों से मिलकर जूझें, एक-दूसरे के साथ मिलकर इन सवालों के जवाब तलाशें और गढ़ें।