Thursday 22 June 2017

शिक्षकों/शिक्षा पर एक नए आघात की तैयारी



31 मई को अंग्रेज़ी अख़बार द हिन्दू के मुखपृष्ठ पर 'Tabs to watch over truant teachers' के शीर्षक से एक ख़बर छ्पी। इसमें बताया गया था कि केंद्र सरकार एक नया कार्यक्रम लाने जा रही है जिसके तहत सरकारी स्कूलों के शिक्षकों की उपस्थिति पर एक जीपीएस-युक्त tablet यंत्र से निगरानी रखी जाएगी। इस योजना को अगस्त से चार राज्यों में लागू किया जाएगा। जबकि प्रारंभ में इसे केवल छत्तीसगढ़ में लागू किया जाना था, अब झारखंड, आंध्र-प्रदेश और राजस्थान भी इसमें शामिल हो गए हैं। यह ग़ौरतलब है कि ख़ुद केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित इस खर्चीली योजना के लिए ये राज्य केंद्र से कोई आर्थिक मदद भी नहीं माँग रहे हैं! ख़बर के अनुसार मानव संसाधन विकास मंत्रालय के सचिव श्री अनिल स्वरूप का कहना है कि सरकारी स्कूलों में शिक्षकों के ग़ायब रहने का स्तर 25% तक है और यह ख़राब अधिगम परिणामों की एक प्रमुख वजह है। उन्हें यह कहते हुये भी उद्धृत किया गया कि तीन महीनों के प्रयोग के बाद इस कार्यक्रम को राष्ट्रीय स्तर पर लागू किया जाएगा। ख़बर में यह भी बताया गया है कि राज्यों का मानना है कि इसपर जो ख़र्चा आएगा उसकी भरपाई ग़ैर-हाज़िर शिक्षकों के वेतनों की कटौती से अपने आप हो जाएगी!
इस ख़बर के आधार पर ही हम कुछ संक्षिप्त टिप्पणी कर सकते हैं और फिर कुछ सवाल भी खड़े कर सकते हैं। स्कूल और स्कूली शिक्षा संविधान की समवर्ती सूची में है और इस हिसाब से केंद्र सरकार यह तय नहीं कर सकती कि कोई राज्य सरकार अपने स्कूली शिक्षकों व स्कूलों की तथाकथित निगरानी के लिए कौन-सा तरीक़ा अपनाए। राज्यों के अधिकार क्षेत्र में दख़ल देना एक निरंकुश सत्ता व तानाशाही मानसिकता को दर्शाता है। इस तरह सचिव महोदय का यह ऐलान करना कि तीन महीनों के बाद इसे राष्ट्रीय स्तर पर लागू किया जाएगा निराधार है और देश व संविधान के संघीय ढाँचे को एक अपमानजनक चुनौती भी है। यह भी स्पष्ट नहीं है कि सचिव को ये आँकड़ा कहाँ से मिला है कि सरकारी स्कूलों के 25% शिक्षक अनुपस्थित रहते हैं। ख़ुद सरकार की किसी प्रामाणिक रपट ने अब तक यह निष्कर्ष नहीं निकाला है। हाँ, सार्वजनिक स्कूलों के शिक्षकों को लांछित करने के उद्देश्य से इस तरह के दावे centre square foundation जैसी वो संस्थाएँ करती रही हैं जिनका मानना है कि शिक्षा बाज़ार की वस्तु है और जिनका मक़सद है कि यह निजी पूँजी के मुनाफ़े का ज़रिया बने। विडंबना तो यह है कि शिक्षा को देखने वाले केंद्र सरकार के सचिव इस विषय पर आई उस हालिया रपट से भी अनभिज्ञ दिखते हैं जिसकी ख़बर द हिन्दू व इंडियन एक्सप्रेस जैसे अख़बारों में (26 अप्रैल को) प्रमुखता से छ्पी थी। मार्च 2017 में अज़ीम प्रेमजी फ़ाउंडेशन के एक शोध समूह की रपट आई जिसमें 6 राज्यों के 619 सरकारी स्कूलों व 2861 शिक्षकों के बीच किए गए अध्ययन के आधार पर यह बताया गया कि अनाधिकृत रूप से अनुपस्थित रहने वाले शिक्षकों का अनुपात 2.5% है। इस रपट में यह रेखांकित किया गया कि शिक्षकों के अनुपस्थित रहने को लेकर जो बयानबाजी होती है वह न सिर्फ़ अतिशयोक्तिपूर्ण है बल्कि 2.5% ग़ैर-वाजिब अनुपस्थिति का आँकड़ा असल में बाक़ी शोध-अध्ययनों से भी कमोबेश मेल खाता है।  इस रपट के कुछ निष्कर्ष ग़ौरतलब हैं। जैसे - सरकारी स्कूलों के 19% शिक्षक व्यवस्था के द्वारा सौंपी गई ज़िम्मेदारी निभाने के कारण स्कूल से अनुपस्थित थे; स्कूलों तक कठिन पहुँच, ख़राब अधिसंरचना व ऊँचे विद्यार्थी-शिक्षक अनुपात के बावजूद शिक्षक समर्पित दिखे जिसकी पुष्टि अधिकारियों व समुदाय की गवाही से भी हुई; अगर सकारात्मक कार्य-माहौल हो जोकि मेलजोल, अपनेपन व विश्वास को बढ़ावा दे तो शिक्षक बिना किसी बाहरी निगरानी के अपने कार्य के प्रति समर्पण व उत्साह प्रदर्शित करते हैं तथा ख़ुद ही स्वयं को जवाबदेह साबित करते हैं। रपट में यह भी चेताया गया है कि व्यवस्था की कमियों को नज़रंदाज़ करके मात्र शिक्षकों के सर ठीकरा फोड़ने और उन्हें बदनाम-हतोत्साहित करने का परिणाम ख़राब होगा और सरकारी स्कूल व्यवस्था को नकारात्मक रूप से प्रभावित करेगा। 
विचित्र तो यह है कि कभी विद्यार्थियों के बैंक खाते खुलवाने के नाम से, कभी उनके आधार कार्ड बनवाने हेतु या फिर रोज़मर्रा की कार्यवाही के तहत स्कूल से जुड़ी एक-एक चीज़ को ऑनलाइन करने के लिए शिक्षकों से (शिक्षा अधिकार क़ानून के खिलाफ़ जाकर) धड़ल्ले-से न सिर्फ़ सभी तरह के ग़ैर-शैक्षिक काम लिए जा रहे हैं बल्कि इनका बोझ बढ़ता ही जा रहा है, लेकिन फिर भी आग्रह और ज़िद यह है कि 'सुधार' का उपाय यही है कि शिक्षकों पर अपराधियों की तरह नज़र रखी जाए व उन्हें दंडित किया जाए। इस कार्यक्रम का दर्शन व इसकी राजनीति समझने के लिए शायद हमें यह ध्यान देने से भी कुछ मदद मिले कि वे चार राज्य कौन-से हैं जो इसे लागू करने के लिए इतने आतुर हैं। इनमें सार्वजनिक शिक्षा की स्थिति क्या है, सरकारों ने शिक्षा के क्षेत्र में और कौन-से निर्णय लिए हैं, आर्थिक नीति किस ओर अग्रसर है, श्रम, वन तथा सार्वजनिक संसाधनों को लेकर किस तरह के क़ानून लाये गए हैं आदि। वैसे तो लगभग सभी राज्यों में नवउदारवादी नीतियाँ ही लागू हैं और साम्राज्यवादी पूँजी के हित साधे जा रहे हैं लेकिन फिर भी कुछ राज्यों में इनका तेज अलग से ही दिखाई देता है। इसी कड़ी में इस कार्यक्रम को एक अन्य विचार-समूह से प्रत्यक्ष बल मिलता है - डिजिटल इंडिया व ई-गवर्नेंस के इर्द-गिर्द बुना जा रहा आख्यान। यह अपने-आप में पर्याप्त है कि आली-जनाब ने इस जुमले को चहूँ ओर प्रसारित कर दिया है - अब इसकी पुष्टि करने की जरूरत नहीं है कि जिन स्कूलों में कंप्यूटर है भी वहाँ उसकी स्थिति क्या है और जो है वो क्यों है; क्या विद्यार्थियों व शिक्षकों से जुड़ी सब चीज़ें ऑनलाइन करना क़ानूनी तथा नैतिक रूप से उचित है; क्या सब चीज़ों को ऑनलाइन करना फ़ायदेमंद है भी; इनसे शिक्षकों का ग़ैर-शैक्षिक काम बढ़ रहा है या शिक्षण सुविधाजनक हो रहा है; क्या इनसे आम इंसान, बच्चों के अभिभावकों, स्कूली समुदाय की स्कूलों-शिक्षा को लेकर समझ व लोकतान्त्रिक पकड़ मजबूत हो रही है या फिर सत्ता का केन्द्रीकरण बढ़ रहा है आदि। उदाहरण के तौर पर यह पूछा जाना चाहिए कि इन tablet यंत्रों से 'dropout' दर, पीने के पानी की उपलब्धता, शौचालय, प्रयोगशालाएँ आदि की निगरानी करने में, जैसा कि दावा किया जा रहा है, कौन-सी ऐसी मदद मिलेगी जो इन सभी पैमानों को लेकर वर्तमान व्यवस्था में उपलब्ध नहीं है और जब न विभागों में नई भर्तियाँ हो रही हैं और न ही समुचित स्तर पर सार्वजनिक वित्त उपलब्ध कराया जा रहा है तो 'किसी' के द्वारा ये जान लेने से भी क्या होगा कि अमुक स्कूल में अमुक दिन यह स्थिति है। बिना इन प्रश्नों की पड़ताल किए हुये, इनको लेकर ज़मीनी शोध-अध्ययन के बिना ऐसे कार्यक्रमों को थोपने का एक ही मतलब है - सरकार बचीखुची सार्वजनिक स्कूली व्यवस्था को भी सुनियोजित ढंग से बदनाम, ख़त्म करके शिक्षा को पूरी तरह से निजी पूँजी के हाथों सौंपना चाहती है।   
त्रासदी यह भी है कि इस ख़बर को आए हुये काफ़ी दिन हो गए हैं लेकिन अभी तक किसी शिक्षक संगठन की तरफ़ से विरोध की कोई सुगबुगहट नहीं आई है। यह अफ़सोसनाक है कि शिक्षकों का एक बड़ा वर्ग आज समाज में, ख़ुद अपने विद्यार्थियों के हाथों 'उचित सम्मान' नहीं पाने को लेकर लगातार शिकायती अंदाज़ में बात करता है मगर सरकारों की उन नीतियों के खिलाफ़ नतमस्तक हो जाता है जिनका आधार व उद्देश्य ही शिक्षकों की अस्मिता व बौद्धिकता को दरकिनार करना है। इस कार्यक्रम में भी इसकी पूरी तैयारी की गई है कि शिक्षक केवल मशीनी-क्लर्क बनकर रह जाएँ, वो अपने को कोई बौद्धिक-पेशागत नज़र से लैस बुद्धिजीवी न समझें। इसीलिए इन tablet यंत्रों का एक प्रयोजन यह भी घोषित किया गया है कि अंततः इन्हें प्रशिक्षण सामग्री हस्तांतरित करने के लिए इस्तेमाल किया जाएगा। अर्थात, शिक्षक को यह सोचने-समझने की जरूरत नहीं है कि वो क्या और कैसे पढ़ाये क्योंकि यह काम - बल्कि यूँ कहें कि इसका ठेका - उन कंपनियों के ज़िम्मे होगा जो पाठ तय करेंगी और पाठ-योजना भी। कंपनियों को ऐसा बढ़िया बाज़ार कहाँ मिलेगा जो सुनिश्चित, नियमित व गतिशील मुनाफ़े की गारंटी दे, वो भी सार्वजनिक ख़र्चे पर? यह नवउदारवाद का चिर-परिचित हथकंडा है। यह संभव है कि पिछले तीन दशकों में शिक्षा के लगातार व्यावसायिक होते जाने के प्रभाव से शिक्षक भी अछूते नहीं बचे हैं और इसलिए उनमें से एक बड़ा वर्ग अपने कर्म के बौद्धिक चरित्र के प्रति काफ़ी हद तक ख़ुद भी उदासीन हो गया है। हम कह सकते हैं कि इसी क्रम में एक वर्ग मानवीय गरिमा की बुनियादी समझ व संवेदनशीलता से भी इस क़दर दूर हो गया है कि अविश्वासी CCTV, अपराधीनुमा बायोमेट्रिक हाज़िरी व GPS के पशुनुमा बिल्ले आदि तक के आत्म-निगरानी तंत्र उसके आत्म-सम्मान को विचलित नहीं करते। यह भी सच है कि उपभोक्तावादी तकनीकी की चकाचौंध में आज हम शिक्षकों का भी एक ख़ासा बड़ा हिस्सा सूचना प्रोद्योगिकी को प्रश्नांकित करना ही भूल गया है, फिर चाहे वो पूँजीवादियों के लालच पर सवार होकर हमारी कक्षाओं, हमारे स्कूलों में घुसपैठ करके हमें अपने ही कर्मक्षेत्र में अजनबी, ग़ुलाम बनाकर, उससे बेदख़ल करने पर ही क्यों न आमादा हो।   
ऐसे में हमे इस कार्यक्रम के पक्ष में दिये गए एक आर्थिक तर्क की भी पड़ताल करनी चाहिए। जब यह पहले ही घोषित कर दिया गया है कि हर चार में से एक शिक्षक चोरी से ग़ैरहाज़िर रहता है और इनके वेतन से जो कटौती होगी उससे ही इस कार्यक्रम के व्यय की भरपाई होगी, तो इस कार्यक्रम की सफलता के लिए यह अनिवार्य हो जाता है कि इतने प्रतिशत शिक्षकों की तनख्वाह किसी भी बहाने से काटी ही जाये। यह बात दीगर है कि तानाशाही प्रशासनिक फ़रमानों के इस दौर में यह देखने की भी ज़हमत नहीं उठाई जाएगी कि क्या सेवा-नियम इस तरह की कार्रवाइयों की इजाज़त देते हैं और यांत्रिक ग़लतियों से जो अन्याय होगा या अस्पष्टता पैदा होगी उसका समाधान कैसे होगा। 
आज अगर हम अपने को सांगठनिक रूप से कमज़ोर पा रहे हैं तो जहाँ इसका एक कारण सत्ता की बढ़ती निरंकुशता है तो वहीं एक अन्य कारण हमारा सत्ता से समझौते-सुविधा का रिश्ता स्थापित करना तथा अपनी सामाजिक-बौद्धिक ज़िम्मेदारी से विमुख होना भी है। इन्हीं परिस्थितियों के बीच हम अपने पुराने, स्थापित संगठनों को संघर्ष के लिए कभी अनुपयुक्त रूप से तैयार तो कभी संलिप्त पा रहे हैं। ऐसे में एक तरफ़ जहाँ उन संगठनों पर यह दबाव डालना होगा कि वो अपनी लोकतांत्रिक  जवाबदेही निभाएँ, वहीं दूसरी तरफ़ नई तरह की सामूहिकता की भी खोज करनी होगी, विरोध के नए, रचनात्मक रास्ते ईजाद करने होंगे।                

3 comments:

RAJAN said...

Stop scapegoating teachers...with draw anti education policies of the state.protect the Rights and dignity of teachers...

Anonymous said...

yes, that is what we should demand. but it is also our responsibility to see that teachers' organisations become more representative and fight for the growing body of contractual teachers, instead of weakening the cause by getting fractured along these lines which only suits the establishment agenda of destroying public education.

Unknown said...

ONE CAN ALSO READ THE REPORT
http://www.livemint.com/Opinion/gf6BADNyaDO0gPulIRfH1M/The-false-narrative-of-teacher-absenteeism.html