Wednesday 5 July 2017

शिक्षक-विद्यार्थी रिश्ते: कुछ प्रारंभिक ख़याल और अवलोकन


कुछ साल पहले अख़बार में एक फ़ोटो देखी थी जिसमें संयुक्त राज्य अमरीका की एक प्राथमिक या पूर्व-प्राथमिक शिक्षिका छुट्टियों के बाद स्कूल खुलने पर एक विद्यार्थी को अपनी बाहों में झुला रही थीं। लग रहा था कि लंबे अंतराल के बाद मिलने पर दोनों ख़ुशी से झूम रहे हैं। ज़ाहिर है कि ऐसी अनुभूति और उसकी प्रस्तुति उन शिक्षकों के अनुभव का अधिक संभावित हिस्सा है जो छोटी उम्र के विद्यार्थियों के साथ काम करते हैं। शिक्षक-विद्यार्थी के रिश्तों पर किए गए शोध यह भी बताते हैं कि जहाँ छोटी कक्षाओं के बच्चे अपने शिक्षकों के बर्ताव से प्रभावित होकर उनसे एक भावनात्मक संबंध में जुड़ते हैं, वहीं बड़ी कक्षाओं के बच्चे अपने शिक्षकों के शिक्षण के आधार पर उन्हें पसंद-नापसंद करते हैं। कहना नहीं होगा कि ये कोई भौतिकी का सार्वभौमिक नियम नहीं है, बल्कि एक संभावित, विविध व मिश्रित परिघटना है। यह कहा जा सकता है कि उक्त शोध ज़रूर शिक्षकों की उस जिज्ञासा को ध्यान में रखकर किए गए होंगे कि आख़िर उनके विद्यार्थी उन्हें किस आधार पर पसंद-नापसंद करते हैं। या यूँ कहें, विद्यार्थियों के बीच अपनी लोकप्रियता का सूत्र जानने की इच्छा से। वरना, जानने योग्य तो यह तथ्य भी है कि आख़िर वो कौन-से कारक हैं जिनके आधार पर शिक्षक अपने विद्यार्थियों को पसंद-नापसंद करते हैं। यह कहना ग़लत नहीं होगा कि इसमें भी कक्षाई स्तर के हिसाब से फ़र्क़ पड़ेगा। उदाहरण के तौर पर, एक सरसरी दृष्टि से यह माना जा सकता है कि जहाँ एक प्राथमिक शिक्षक के द्वारा अपने किसी विद्यार्थी को नापसंद करने की संभावना बहुत कम होगी, वहीं बड़ी कक्षाओं में विद्यार्थियों की बढ़ती उम्र (और शायद स्वतंत्र व्यक्तित्व के उभरने) के साथ इसकी संभावना भी बढ़ती जाएगी। इसका एक सीधा-सा कारण तो यही है कि हमारी सामंती संस्कृति में छोटी उम्र के बच्चे वयस्कों के आगे दबाव की स्थिति में रहते हैं और अपना विरोध तो क्या, अपनी असहमति भी प्रकट नहीं कर पाते हैं। जबकि बढ़ती उम्र के साथ सत्ता का यह असंतुलन चुनौती पाता है और इसका एक परिणाम रिश्तों में तनाव के रूप में सामने आता है। चूँकि हमारे स्कूलों में भी शिक्षक-विद्यार्थी संबंध किसी ज्ञानमीमांसा या लोकतन्त्र को हासिल करने की दृष्टि से नहीं रचे जाते हैं इसलिए उनपर व्यापक समाज में स्थापित व अनुकरणीय बाल-वयस्क संबंधों की ही गहरी छाप होती है। इस बिना पर हम कह सकते हैं कि छोटी कक्षाओं के शिक्षकों का अपने विद्यार्थियों के प्रति जो अपेक्षाकृत कोमल व्यवहार नज़र आता है उसके लिए उन्हें बधाई नहीं दी जा सकती क्योंकि वो सहज है, उसमें कोई चेष्टा या संघर्ष या फिर लोकतांत्रिक मूल्य नहीं हैं। (हाँ, सामान्य से भी कम कोमल व्यवहार प्रदर्शित करने के लिए दोष ज़रूर दिया जा सकता है।) शिक्षकों द्वारा विद्यार्थियों के प्रति विशेष लगाव रखने के पीछे, विशेषकर प्राथमिक कक्षाओं में, कई अनाकादमिक कारण भी होते हैं - किसी की मासूमियत, किसी की हँसी, किसी का दोस्ताना व्यवहार, किसी की शरारतें, तो किसी का खेल या कला कौशल। बल्कि यही वो चीज़ है जो विद्यार्थियों के साथ हमारे रिश्ते को मात्र कामकाजी व एकांगी होने से बचाकर, एक इंसानी संपूर्णता प्रदान करती है। 

शिक्षकों की सालाना गोपनीय/मूल्यांकन रपट में भी एक बिंदु विद्यार्थियों के बीच उनकी लोकप्रियता से संबंधित है। कम-से-कम प्राथमिक कक्षाओं के लिए तो इस रिश्ते को काफ़ी अहमियत दी गई है जोकि इससे भी ज़ाहिर होती है कि देश में कई जगहों पर यह व्यवस्था है कि शिक्षक एक ही समूह को उनकी प्रथम कक्षा से पाँचवीं कक्षा तक पढ़ाए। (वो भी सभी विषय।) स्थायित्व रिश्तों को गहरा बनाने में अवश्य ही लाभकारी है और स्कूलों के संदर्भ में यह जुड़ाव बच्चों से होते हुये, उनके अभिभावकों व स्कूली समुदाय तक पहुँच सकता है। इसके पक्ष में उन प्रसंगों को रखा जा सकता है जिनमें किसी गाँव अथवा इलाक़े के निवासियों ने शिक्षा विभाग व प्रशासन के सामने विरोध-प्रदर्शन करके जनता के किसी चहेते शिक्षक का तबादला रुकवा दिया। आज भी इस तरह की ख़बरें आती हैं, विशेषकर ऐसी जगहों से जहाँ समुदाय की एक साझा राजनैतिक पहचान है और स्कूल भी सही मायनों में साझा है। अख़बारों की मानें तो हरियाणा इसका एक नज़दीकी उदाहरण है। शहरों में, वो भी अस्थाई बसाहटों के बीच विभक्त स्कूलों में, अपनेपन और एकजुटता की ऐसी मिसाल मिलना असंभव नहीं तो अप्रत्याशित ज़रूर है। यह भी तय है कि ऐसे संबंधों के बनने की संभावना न तो व्यावसायिक उद्देश्य से स्थापित उन निजी स्कूलों में है जहाँ शिक्षकों को समयबद्ध ठेके पर ही रखा जाता है और 'रखो-निकालो' की नीति अपनाई जाती है, और न ही सरकार के उस अफ़सरशाही निज़ाम में है जिसमें हर कुछ वर्षों पर शिक्षकों के तबादले कर दिये जाते हैं। शायद इसीलिए चाहे वो 'पहला अध्यापक' जैसा साहित्य हो या 'जागृति' जैसी फ़िल्म या फिर हमारे आस-पास बिखरे पड़े ढेरों क़िस्से, अविस्मरणीय शिक्षक की छवि व यादें किसी एक स्कूल के इर्द-गिर्द रची-बसी होती हैं। 

एक साथी ने अपने ब्लॉग पर लिखे एक संस्मरण में अपने पैतृक गाँव का बेहद भावनात्मक चित्रण किया है। उनके लेखन में उन शिक्षकों का भी भावुक व सम्मानजनक ज़िक्र है जिनसे गाँव की एक से अधिक पीढ़ियाँ पढ़ीं और 'संस्कारित' हुईं। यह बात ध्यान देने योग्य है कि प्रगतिशील विचारों के ये साथी जो आज स्कूलों में शारीरिक दंड को शायद आपराधिक ही मानते हैं, उन शिक्षकों की दंडात्मक सख़्ती को स्नेह से याद करते हैं। अवश्य ही ऐसा कहकर वो शारीरिक दंड को जायज़ नहीं ठहरा रहे हैं, बल्कि अपने प्यारे शिक्षकों के व्यक्तित्व को उनके युग व संस्कृति सापेक्ष स्वरूप में देख रहे हैं। हम भी ऐसे कितने ही लोगों को जानते हैं जो या तो अतीत में स्कूलों में दिये जाने वाले दंड को सकारात्मक रूप से याद करते हैं या आज, अपने परवारों के बच्चों के संदर्भ में भी, इसकी वकालत करते हैं। ऐसे में अधिक विस्मृत होकर हम यह नहीं भूल सकते कि इसी हिंसात्मक सख़्ती की वजह से कितने बच्चे स्कूल ही छोड़ देते थे या ये कि इस सख़्ती में अकसर एक सामाजिक भेदभाव भी व्यक्त होता था या फिर ये कि इस हिंसा ने समाज में हिंसा को कैसे एक जायज़ साधन ही नहीं बल्कि एक मूल्य की तरह स्थापित किया है।

शिक्षक-विद्यार्थी संबंधों पर बात करते हुये हमें अति-रूमानियत से भी बचना होगा क्योंकि अकसर यह एक खूबसूरत भविष्य की संभावना की ओर संकेत के रूप में नहीं बल्कि सामाजिक असमानता के यथार्थ की विद्रूपता को नकारने के भ्रम में आती है। इसे कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है। बहुत-से लोगों को बहुत भावुकता में अपने शिक्षकों को अपनी 'सफलता' का श्रेय देते हुये सुना जाता है। जहाँ यह सच है कि एक ऐसे शिक्षक का जो अपने विषय व शिक्षण दोनों में पारंगत हो व विद्यार्थियों से स्नेह भी करता हो अपने विद्यार्थी के जीवन पर ख़ासा असर पड़ सकता है, वहीं हम यह नहीं भूल सकते कि जो लोग इस योगदान को रेखांकित कर रहे होते हैं - चाहे वो पूर्व-विद्यार्थी हो या फिर ख़ुद शिक्षक ही क्यों न हो - वो, जाने-अनजाने, इस असमान समाज में विरासत में मिलने वाली सांस्कृतिक-आर्थिक पूँजी के योगदान पर भी पर्दा डाल रहे होते हैं। जब वो किसी की सफलता का श्रेय किसी शिक्षक को देते हैं तो परोक्ष रूप से वो उसी शिक्षक के पढ़ाये हुये 'असफल' विद्यार्थियों के उदाहरणों से मेरिट के तर्क को स्थापित करने की कोशिश कर रहे होते हैं।   (कहना न होगा कि मेरिट के तर्क को जातिवादी, नस्लवादी, स्त्रीविरोधी व वर्ग-आधारित सत्ताधारियों ने ग़ैर-बराबरी को सामान्य सिद्ध करने के लिए इस्तेमाल किया है।) एक अन्य उदाहरण निजी स्कूलों से लिया जा सकता है। उनमें पढ़ाने वाले हमारे कई साथी ऊँची फ़ीस देने वाले परिवारों के बच्चों से अपने संबंधों को लेकर एक ख़ास असंतोष व्यक्त करते रहते हैं। अगर इसकी तुलना सरकारी स्कूलों के शिक्षकों की अपने विद्यार्थियों को लेकर की जाने वाली शिकायतों के स्वरूप से की जाये तो हमें दोनों के बीच के फर्क से यह समझ में आ जाएगा कि वर्गीय दूरी व सत्ता के असंतुलन का रिश्तों पर कैसा स्पष्ट असर पड़ता है। इसका प्रभाव दोनों के परस्पर व्यवहार में भी झलकता है। अंतिम उदाहरण हमारी उस प्रतिक्रिया व अपेक्षा में मिलता है जिसे हम अपने पुराने विद्यार्थियों के कई वर्षों बाद मिलने पर व्यक्त करते हैं। सामान्यतः जिस गर्व व गर्मजोशी से हम अपने उस पुराने विद्यार्थी से मिलते हैं - उसे ढूँढ भी लेते हैं - जो 'सफलता' हासिल करके किसी काम के पद पर पहुँच गया हो, उसी खुलूस से हम अपने नाकाम विद्यार्थी से नहीं मिलते। ज़ाहिर है कि जब हमारे द्वारा भी रिश्ते मोल-तोल पर पाले-पोसे जायेंगे तो फिर यह माँग करना ग़लत है कि उनका सिला प्यार और सम्मान से मिले। तो हम एक वर्गीय समाज में हैं जिसका होना ही हमारे रिश्तों को विकृत करता है। यह हमारे कर्म में निहित असीम उम्मीद व गुंजाइश का ही सबूत है कि इसके बावजूद विद्यार्थियों के साथ अपने रिश्तों में हम निश्छलता और अपनाइयत को ही आदर्श मानकर तलाशते हैं।  

अब इस बात की व्याख्या कैसे की जाये कि घरों में बड़े-बूढ़ों की ही तरह बहुत-से शिक्षक भी यह शिकायत करते हुये मिल जाते हैं कि आज उनके विद्यार्थी उनका सम्मान नहीं करते? अगर यह मान भी लें कि सम्मान पाने की चाह रखना ही अनुचित है और जायज़ तो सिर्फ़ यह अपेक्षा है कि हमारा अपमान न हो, फिर भी शिक्षकों में उनके साथ होने वाले व्यवहार को लेकर जो असंतोष है उसे नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता है। इस विषय पर कुछ शिक्षकों से बात करने पर कम-से-कम दो-तीन चिंताएँ समान रूप से दिखाई दीं। लगभग सभी साथियों का मानना था कि आज विद्यार्थियों व शिक्षकों दोनों पर ही प्रदर्शन का बहुत अधिक दबाव है। इसका मुख्य कारण गलाकाटू प्रतियोगिता की व्यवस्था को बताया गया। एक साथी बोले, 'हमारी सरकारी नीतियाँ इस तरह से बनाई जाती हैं जिससे शिक्षक की तरफ़ से होने वाली कमियों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जाता है, लेकिन उस दबाव को अनदेखा किया जाता है जो शिक्षक समाज और उसका विद्यार्थी वर्ग झेल रहा है। हमारी शिक्षा व्यवस्था ने एक शिक्षक पर कार्य का इतना बोझ डाल दिया है कि उसके पास अपने विद्यार्थियों के साथ बिताने के लिए समय ही नहीं है। न शिक्षक विद्यार्थियों के विचार जान पाता है और न ही अपनी भावनाओं को उनको समझा पाता है। उसका ग़ैर-शैक्षिक काम का बोझ इतना बढ़ गया है कि वह बच्चों के विकास के बजाय काग़ज़ी खानापूर्ति में ही लगा रहता है।' इस प्रकार के विचारों में हम उस छटपटाहट की अभिव्यक्ति पाते हैं जो रिश्तों की संभावना ख़त्म करने वाले काम में उलझा दिए जाने की पीड़ा को बयान करती है। यह ख़ासतौर से शिक्षण के पेशे में उन नवागंतुकों के लिए बेहद त्रासद होता है जोकि इस पेशे में मुख्यतः बच्चों के साथ संवाद की अंतःक्रिया तलाशने के उद्देश्य से ही आते हैं। एक अन्य शिक्षिका के अनुसार समाज व स्कूलों में बढ़ती हिंसा के कारण व समाधान मात्र शिक्षा एवं इसकी व्यवस्था में ढूँढना व्यर्थ है क्योंकि इसकी बुनियाद उस आर्थिक-सांस्कृतिक व्यवस्था में है जो लोगों के एक-दूसरे से अलगाव पर टिकी है। उनके शब्दों में: 'एक बच्चे को सज़ा देकर हालात बदले नहीं जा सकते।' हालाँकि इन्हीं शिक्षिका का यह भी कहना था कि अगर निगरानी का रास्ता चुनकर ठोस क़दम उठाए जा रहे हैं या गुणवत्ता सुधारने के लिए नियंत्रण थोपा जा रहा है तो इन उपायों के असरदार साबित होने पर इन्हें अपनाने में कोई बुराई भी नहीं है। यहाँ हम एक विरोधाभास देख सकते हैं कि अलगाव को चिन्हित करने के बावजूद ऐसे प्रशासनिक तरीक़ों में उम्मीद देखी जा रही है जो अविश्वास, अपमान और अंततः अलगाव पर ही टिके होते हैं। शायद यह एक हताशा से उपजा दृष्टिकोण है। प्रशासन को बच्चों व शिक्षकों दोनों पर एक अनुचित दबाव बनाने के लिए जिम्मेदार ठहराते हुये एक अन्य शिक्षक ने शिकायत की: 'अध्यापकों को कोई भी अफ़सर, माता-पिता, मंत्री, कोई भी कुछ भी कह देता है तथा उसे सबकी सुननी भी पड़ती है। यही कारण है कि समाज में गुरु की महिमा में कमी आई है और बच्चे भी इसी समाज का ही हिस्सा हैं।' दरअसल ये काफ़ी प्रातिनिधिक विचार हैं और इसलिए इनपर ठहरकर सोचना ज़रूरी है। आख़िर शिक्षक को महिमा की आवश्यकता क्यों है, महिमा से हमारा क्या मतलब है आदि प्रश्नों से जूझे बिना इन चिंताओं के जवाब नहीं दिये जा सकते। एकलव्य की कथा इस बात की ओर इशारा करती है कि इस देश में गुरुओं की महिमा की क़ीमत समाज के कौन-से वर्गों ने चुकाई है। फिर एक लोकतांत्रिक देश में हम शिक्षक इस बात की भी शिकायत नहीं कर सकते कि बच्चों के माता-पिता या पड़ोस के निवासी हमसे सवाल क्यों पूछते हैं। इस तरह की अपेक्षा रखना सामंती विचार है कि गुरु का आदर-सत्कार ही किया जाए। महिमा की इच्छा का मनोविश्लेषण करें तो इसके पीछे दो कारण हो सकते हैं - गहरी पैठी आत्म-हीनता की ग्रंथि और एकाधिकारवादी वर्चस्व की लालसा। और शायद किसी स्तर पर ये दोनों एक ही हों। (हाँ, ये ज़रूर है कि हम शिक्षक अपने उद्देश्यों, अपनी प्रणाली आदि में एक पेशागत बौद्धिकता के प्रति निष्ठा रखते हैं, किसी दुकान या कंपनी में काम करने वाले मुलाज़िम की तरह उपभोक्ता की माँग के प्रति नहीं। और इसलिए हम अभिभावकों क्या राज्य तक के शिक्षा-विरोधी आदेश-निर्देश को मानने के लिए बाध्य नहीं हैं क्योंकि हमारी पहली प्रतिबद्धता अपने विद्यार्थियों के शैक्षिक हितों के प्रति है।)

शिक्षा व स्कूलों का केन्द्रबिन्दु शिक्षकों व विद्यार्थियों के बीच के गहरे व जीवंत रिश्ते ही हैं। आज हम इस बात को नज़रंदाज़ नहीं कर सकते कि उम्र व पीढ़ी के बीच की सदा रही दूरी के अलावा हमारे बीच वर्गीय अलगाव भी बढ़ा है। आज सरकारी स्कूलों के शिक्षक प्रायः उस आर्थिक-सामाजिक पृष्ठभूमि से नहीं आते जिससे उनके विद्यार्थी आते हैं। ऐसे में अपने विद्यार्थियों के साथ एक सहज रिश्ता बनाए रखना हमारे लिए पहले से भी अधिक ज़रूरी व चुनौतीपूर्ण हो गया है। दूसरी तरफ़ सरकारें लगातार जनकल्याण का मुखौटा तक उतारती जा रही हैं और सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था को उपेक्षित व बर्बाद करके वैश्विक पूँजी के पक्ष में निजीकरण की नीति को समर्पित होकर लागू कर रही हैं। ऐसे में हमें अपनी प्रतिक्रिया के शिक्षक बनाम विद्यार्थी या अभिभावक की दिशा में मुड़ने के ख़तरे के प्रति सतर्क रहना होगा। शिक्षक एकता दिखाने के साथ-साथ हमें अपने विद्यार्थियों, स्कूली समुदायों को साथ लेकर सरकारों व प्रशासन की जनविरोधी नीतियों की मुखालफत करनी होगी। आज हम एक ज़बरदस्त दबाव के माहौल में काम कर रहे हैं। परिणामों की जवाबदेही व उन्हें सुधारने के बहाने हमपर एक अपमानजनक निगरानी रखने की कोशिश की जा रही है। हमारी पेशागत व बौद्धिक स्वायत्ता पर कुठाराघात बढ़ रहा है। दूसरी तरफ़ यही व्यवस्था खासतौर से मेहनतकश वर्गों से आने वाले विद्यार्थियों की शिक्षा के अवसर भी सीमित कर रही है। विद्यार्थियों का एक बड़ा वर्ग इस व्यवस्था में घुट-घुटकर जीने को मजबूर है। हम दोनों ही घुटन, अपमान व उत्पीड़न महसूस कर रहे हैं। ज़ाहिर है कि ऐसे में हमारा आपसी टकराव परिस्थितियों को सत्ता के पक्ष में ही बनाए रखने का काम करेगा। हम यह भी जानते हैं कि शिक्षक-विद्यार्थी रिश्ते का आधार स्नेह ही है और हमें अपने विद्यार्थियों से निःस्वार्थ व अनमोल प्यार मिलता भी है। तमाम चुनौतियों, थकान और हार के पड़ावों के बीच यही हमें, हमारे संघर्ष को जिलाए भी रखता है। हमें विश्वास है कि सरकारों की नीतियों और समाज की परिस्थितियों के विकट होते जाने के बावजूद हम इस रिश्ते को बनाए रखेंगे। अपने ही स्कूलों में, अपने ही विद्यार्थियों से असुरक्षित होकर छावनीनुमा सुरक्षा उपायों में जवाब ढूँढना इन रिश्तों को कहाँ ले जाएगा? इसी तरह, एक घोर-अनैतिक व्यवस्था में कमज़ोर को ही एक-तरफ़ा (समर्पण की) नैतिकता का पाठ पढ़ाना भी एक-तरह का छ्ल ही है। उधर बढ़ती जरूरत की अपेक्षा संसाधनों को घटाते जाने और नियुक्तियों को नहीं करने या उनका ठेकाकरण करने से भी आपसी उपेक्षा, अविश्वास व टकराव तक की परिस्थितियों के बने रहने की संभावना और बढ़ जाती है। इसलिए हमें लगातार एक-दूसरे को नहीं बल्कि व्यवस्था को ही कटघरे में खड़ा करना होगा।