Wednesday 18 October 2017

जय हिंद: आकर्षण-विकर्षण के बीच

लेखक प्राथमिक शिक्षक हैं 

13 सितंबर को The Hindu में छपी एक ख़बर के अनुसार मध्य-प्रदेश के स्कूली शिक्षा मंत्री विजय शाह ने प्रधानाचार्यों को कहा है कि वो विद्यार्थियों को निर्देश दें कि 1 अक्टूबर से वो कक्षा में हाज़िरी का जवाब 'जय हिंद' से दें। रपट में यह स्पष्ट नहीं है कि ये आदेश किस स्तर पर लागू होंगे, क्योंकि इसका पहला वाक्य केवल सतना ज़िले के स्कूलों का ही ज़िक्र करता है। रपट के अनुसार इसका उद्देश्य सरकारी स्कूलों के विद्यार्थियों में 'देशप्रेम' बढ़ाना है। रपट में मंत्री को हाज़िरी के दौरान 'yes sir', 'yes madam' या 'present' जैसे अंग्रेज़ी जवाबों की उपयोगिता पर सवाल खड़ा करते हुए उद्धृत किया गया है। 
इस रपट को पढ़कर मुझे दो-चार बातें याद हो आईं। चूँकि मेरे पिता फ़ौज में थे, तो 'जय हिंद' के संबोधन से मेरा कुछ नज़दीकी जुड़ाव रहा है। बाद में, जब कुछ बड़े होकर यह पढ़ा कि किन परिस्थितियों में और किन उद्देश्यों से इसे आज़ाद हिंद फ़ौज ने अपने सदस्यों की आपसी सलामी के रूप में अपनाया था तो इसके प्रति मेरा लगाव कुछ और बढ़ गया। इसकी संक्षिप्त पृष्ठभूमि ये है कि जब सुभाष चंद्र बोस ने ब्रिटिश हुकूमत की सेवा में निर्मित व लगी भारतीय फ़ौज के उन अफ़सरों व सिपाहियों को जोड़कर आज़ाद हिंद फ़ौज बनाना शुरु किया जोकि जर्मन हिरासत में थे तो उनका सामना इसकी जड़ों में पड़े क्षेत्रीय, जातिगत व धार्मिक आधार से हुआ। (आज भी भारतीय फ़ौज की टुकड़ियाँ का एक बड़ा आधार पहचान के यही स्वरूप हैं जिन्हें हम सिख रेजिमेंट, राजपुताना राइफल्स, डोगरा रेजिमेंट आदि नामकरणों में देख सकते हैं।) तो अलग-अलग पृष्ठभूमि के फ़ौजियों का आपसी अभिनंदन भी अलग-अलग था, जैसे 'राम-राम', 'सलाम-अलै-कुम', 'सत स्री अकाल' आदि। इस मद्देनज़र आज़ाद हिंद फ़ौज को देशव्यापी पहचान पर गठित करने के लिए और साम्प्रदायिक आधार पर बनी टुकड़ियों की संस्कृति से परे जाने के लिए 'जय हिंद' की सलामी को चुना गया। बहुत-से इतिहासकारों का मानना है कि इस नारे को चंपकरामन पिल्लई ने गढ़ा था और आज़ाद हिंद फ़ौज के लिए आबिद हसन के प्रस्ताव पर 1941 में सुभाष ने मंज़ूर किया था। बाद में इसे राष्ट्रीय नारे के रूप में और भारत की आज़ादी के बाद देश की फ़ौज ने भी अपनी सलामी के रूप में अपनाया। हालाँकि दक्षिणपंथी राजनैतिक ताक़तों ने हमेशा ही 'वंदे मातरम' को इस नारे के ऊपर तरजीह दी। ज़ाहिर है कि इसका प्रमुख कारण एक की साम्प्रदायिकता-विरोधी जड़ें और दूसरे की साम्प्रदायिक-नफ़रत फैलाने के लिए उपयोगिता है। इसके लिए हमें बंकिम के उपन्यास 'आनंदमठ' को पढ़ना होगा। ख़ैर, पढ़ने-लिखने की ज़हमत उठाना कभी भी दक्षिणपंथियों की कमज़ोरी नहीं रही है। 
कुछ साल पहले मेरे स्कूल में एक युवा साथी पढ़ाते थे जो बाद में हरियाणा के सरकारी स्कूल में नियुक्ति पाकर दिल्ली से चले गए। हमारी अच्छी घनिष्ठता थी और वैचारिक धरातल पर भी बढ़िया आदान-प्रदान होता था। मैंने पाया कि उनकी कक्षा के विद्यार्थी हाज़िरी का जवाब 'जय हिंद' से देते थे। उनके जाने के बाद मुझे उनकी उसी कक्षा को पढ़ाने का मौक़ा मिला तो भी काफ़ी विद्यार्थियों ने वो सिलसिला जारी रखा। मुझे याद आता है कि उनके उदाहरण के पश्चात मैंने ख़ुद स्कूल की दैनिक सभा में एक-आध बार विद्यार्थियों को हाज़िरी का जवाब 'जय हिंद' से देने के लिए उकसाया/प्रेरित किया है। जब मैंने पढ़ाना शुरु किया था तो अपने विद्यार्थियों को हमेशा यही कहता था कि वो हाज़िरी का जवाब इस तरह से दें कि मुझे मालूम हो जाए कि वो आये हैं। मैंने उनसे कहा कि इसके लिए वो प्रचलित शब्दों के अलावा 'हाज़िर हूँ' या 'आया/आई हूँ' आदि भी बोल सकते हैं। बल्कि भाषा व सांस्थानिक अनुशासन के बनावटी स्वरूप के विरुद्ध रुझान रखने के कारण शायद मैंने हमेशा ही इन सीधे, सरल जवाबों को दक़ियानूसी जवाबों से ज़्यादा प्रोत्साहित किया है। आख़िर हाज़िरी का मक़सद विद्यार्थियों की उपस्थिति दर्ज करना ही तो है। फिर उस समय एक कक्षा में संख्या भी ख़ासी होती थी। बल्कि पहली कक्षा के ही 200 से अधिक विद्यार्थियों को 'पढ़ाने' के अनुभव के संदर्भ में मुझे समझ में आया कि जब शिक्षक को पता है, उसने देख लिया है कि आज अमुक विद्यार्थी आई है तो फिर उसका नाम पुकारने की ज़रूरत ही क्या है। हालाँकि अर्धावकाश के बाद नाम बुलाकर हाज़िरी लेने की आदत का मैंने अधिकतर पालन किया है क्योंकि इससे विद्यार्थियों को भी समझ में आता है कि उनकी उपस्थिति महत्व रखती है और यह उनके साथ शायद हमारी 'सुरक्षा' के लिए भी ज़रूरी है। इस तरह हाज़िरी के प्रति एक तटस्थ परंतु सजग समझ बरतते हुए पिछले कुछ वर्षों में मैं इस आदत पर पहुँचा हूँ कि अपनी नई कक्षा में या नए विद्यार्थियों को यह स्पष्ट कर देता हूँ कि नाम पुकारे जाने पर वो किसी भी तरह से मुझे अपनी उपस्थिति के बारे में अवगत करा दें - यस सर, प्रेजेंट, जी, हाज़िर हूँ, आई हूँ आदि - लेकिन 'जय हिंद' के प्रति अपनी तरफ़दारी भी जता देता हूँ। पिछले डेढ़ महीनों से पहली कक्षा पढ़ा रहा हूँ, जिसके औसतन 25 उपस्थित विद्यार्थियों में से 5 'जय हिंद' बोलती हैं जबकि इस बार मैंने इसके बारे में ज़्यादा बात नहीं की है। (कई प्रसंगों में बच्चे, हमारी ही तरह, देखा-देखी अपने साथियों या 'प्रभावी माहौल' का महज़ अनुसरण भी करते हैं।) ऊपर मैंने अपने पिता की फ़ौजी पृष्ठभूमि का ज़िक्र किया। मेरा छोटा भाई भी फ़ौज में है और मुझे याद है कि एक-दो साल पहले मैंने ही उसे इस बात पर टोका था कि वो पद में अपने से कनिष्ठ फ़ौजियों के 'जय हिंद' का जवाब मेरे हिसाब से पर्याप्त ऊँची आवाज़ में न देकर महज़ सर हिलाने की औपचारिकता निभा रहा था। उसने कुछ कहा तो नहीं लेकिन छोटे भाई के प्रति नरम होकर सोचने पर मुझे भी लगा कि शायद इतने सलामों का जवाब देते-देते उदासीन हो जाना स्वाभाविक ही हो। आख़िर, मैं ये भी देखता हूँ कि बहुत-से शिक्षक ही उन्हें मिलने वाले संबोधनों का जवाब देना तो दूर, उन छोटी उम्र के विद्यार्थियों की उपस्थिति तक दर्ज नहीं करते जो प्यार या जोश में उन्हें 'नमस्ते' से लेकर बहुत-से अभिनंदन व्यक्त करते हैं।  एक सवाल यह भी है कि आख़िर वो कौन-सी नैतिकता है जो यह माँग करती है कि पहले उम्र या पद या प्रतिष्ठा में 'छोटा' ही 'बड़े' के लिए अभिनंदन का इस्तेमाल करे और 'बड़ा' हद-से-हद, अगर चाहे तो, उसका जवाब देने की कृपा करे। ख़ैर, क्योंकि यह सवाल हमें मूल बिंदु से ज़रा दूर ले जा रहा है, इसलिए इसे यहीं छोड़ते हैं। 
मुझे पूरा विश्वास है कि मेरे वो दोस्त जोकि अपनी कक्षा में हाज़िरी के लिए 'जय हिंद' के जवाब को प्रोत्साहित करते थे मंत्री के इस निर्देश से सहमत नहीं होंगे। मैं ख़ुद, ऊपर दर्ज अपने ब्यौरे के बावजूद, न सिर्फ़ इससे सहमत नहीं हूँ बल्कि इसका विरोध करता हूँ। यह सच है कि मेरा अपना व्यवहार व अनुभव गवाही देता है कि कई बार बड़ी निरंकुशता या तानाशाही आपको अपनी छोटी सत्ता की ज़ोर-ज़बरदस्ती की तरफ़ ध्यान दिलाने में सहायक होती है। फिर भी यह आदेशात्मकता अन्य कारणों से भी ग़ैर-मुनासिब है। एक तो यह शिक्षकों व विद्यालयों की अपनी स्वायत्तता पर कुठाराघात है। जब मैं अपनी कक्षा को मैदान में खेलने ले जाता हूँ तो मुझे अपने बौद्धिक कर्म व कर्ता होने का बोध होता है। अगर कल से मुझे यही काम एक केंद्रीकृत आदेश के तहत करना पड़े, तो मैं इसे पसंद नहीं करूँगा। यह आदेश स्कूलों में मंत्रियों व सरकारों की बढ़ती हुई अनुचित व अनाधिकृत दख़लंदाज़ी का एक और नमूना है। दूसरी बात यह है कि हाज़िरी कोई अनिवार्य नैतिकता का पाठ पढ़ाने की चीज़ है ही नहीं - ये तो स्कूलों की औपचारिक परिपाटी का हिस्सा है। इसे किसी भी तरह से तोड़-मरोड़ कर क्षणिक तौर पर सिर्फ़ एक कृत्रिम दृश्य या अनुभूति पैदा की जा सकती है, कुछ स्थाई भाव नहीं। इसका एक सबूत ख़ुद वो लोग हैं जो सबसे ऊँची आवाज़ में 'देशभक्ति' के नारे लगाकर हुड़दंग और क्रूर हिंसा करते हैं। यह कहना भी मुश्किल है कि आज वो विद्यार्थी जो 'जय हिंद' से हाज़िरी का जवाब देते थे, अपने अन्य साथियों के मुक़ाबले देश से ज़्यादा प्रेम करते हैं या फिर अगर करते भी हैं तो इसमें उनकी हाज़िरी का कितना योगदान है। तीसरी बात यह है कि किसी भी नारे को अनिवार्य करना एक कर्मकांड की संस्कृति को बढ़ावा देता है। ख़ासतौर से तब जब उसके पीछे सत्ता का डंडा हो। 'जय हिंद' के धर्मनिरपेक्ष व साम्प्रदायिकता-विरोधी इतिहास के बावजूद हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह एक फ़ौजी सलाम है और राष्ट्रीय नारा होने के बाद भी इसे न तो नागरिक जीवन पर थोपा गया है और न ही इसके संदर्भ में किसी दंड का विधान है। धर्मनिरपेक्षता व साम्प्रदायिक-विरोध हमारे स्कूलों के लिए अवश्य ही आदर्श हैं लेकिन फ़ौजी माहौल या ज़ोर-ज़बरदस्ती के उसूल स्कूलों के वृहत उद्देश्यों को विकृत करते हैं और विद्यार्थियों की शिक्षा को कमज़ोर करते हैं। पता नहीं सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे मेहनतकश वर्गों व दलित-दमित तबक़ों के बच्चों को ही देशभक्ति का पाठ पढ़ाने की इतनी आतुरता क्यों है? जबकि इस देश के संसाधनों को लूटने, प्रकृति को तबाह करने, आदिवासियों-किसानों को जल-जंगल-ज़मीन से बेदख़ल करने तथा श्रम का निर्बाध शोषण करने के कृत्यों से इन बेबस-मासूमों का दूर-दूर तक कोई नाता नहीं होता है। या शायद इसीलिए हमें और इन्हें देशभक्ति के इन पाठों की ज़रूरत होती है कि इस अफ़ीम को चाट कर सब दुःख-दर्द भूल जाएँ और गाँधी के नेक बंदर बन जाएँ।         
कुछ माह पहले सर्वोच्च न्यायालय ने यह आदेश जारी किया था कि सभी सिनेमा हॉलों में फ़िल्मों से पहले राष्ट्रगान चलाया जाये जिसपर सब उपस्थित दर्शकों के लिए खड़े होना अनिवार्य हो। इस आदेश का उद्देश्य भी लोगों में देशभक्ति की भावना बढ़ाना था। यह रोचक है कि अदालत ने इस प्रस्ताव को ख़ारिज कर दिया कि उसकी ख़ुद की दैनिक कार्यवाही राष्ट्रगान से शुरु हो। (हालाँकि यहाँ इसकी गहराई में नहीं जाया गया है, लेकिन यह कहना ज़रूरी है कि देशप्रेम व देशभक्ति में फ़र्क़ है और पहला भाव अहिंसा व आज़ादी के कोमल, सहज एहसासों के क़रीब है, जबकि दूसरे में अतार्किकता व एकाधिकारवाद के हिंसक बीज छुपे हैं। कुछ इसी तरह का फ़र्क़ देश व राष्ट्र की अवधारणाओं के बीच भी किया जा सकता है।) लोगों में देश के प्रति एक उदात्त भावना का संचार भले ही हुआ हो या न हुआ हो, इस आदेश का एक परिणाम यह ज़रूर हुआ कि राष्ट्रगान से (ख़ासतौर से राष्ट्रगीत के अधिक संकुचित इतिहास की तुलना में) स्नेह व सहानुभूति रखने वाले एक वर्ग में भी इसके प्रति एक झुंझलाहट पैदा हो गई और जगह-जगह से हिंसक हमलों व केस दर्ज होने की ख़बरें आने लगीं। मेरी जानकारी में ही कई लोगों ने सिनेमा हॉलों में फ़िल्में देखने जाना इसलिए छोड़ दिया है क्योंकि उन्हें यह विचार बेहूदा लगता है कि तय समय-स्थान-मौके पर देश के प्रति अपनी निष्ठा दिखाने के लिए उन्हें एक तयशुदा कर्मकांड से ग़ुज़रने की अग्नि-परीक्षा देनी होगी। जैसे कि आप किसी आज़ाद देश के बाशिंदे न होकर एक psychopath की गिरफ़्त में क़ैद हों। 
          आज मैं पाता हूँ कि स्कूल की दैनिक सभा के आस-पास उपस्थित अभिभावकों तक को राष्ट्रगान पर खड़े न होने के लिए टोकने वाले अध्यापक को यह देखकर अपनी पूर्व समझ पर अफ़सोस होता है कि राष्ट्रगान के दौरान बच्चे एक-दूसरे को छेड़ रहे हैं, उल्टे-सीधे बोल गा रहे हैं; शिक्षक अपनी आपस की अधूरी बात उन्हीं 52 सैकंड में पूरी करना चाह रहे हैं; माताएँ बैठी-बैठी राष्ट्र-राज्य के प्रति अपना लैंगिक विरोध नहीं तो निर्लिप्तता तो ज़रूर जता रही हैं; सफ़ाई कर्मचारी सरकार व सवर्ण समाज द्वारा अपने वक़्त और मेहनत के मामूली मोल का भाव भाँपते हुए झाड़ू किये जा रहे हैं; पेड़ हिल रहे हैं और पंछी उड़े जा रहे हैं। मैं सावधान खड़ा अपने से पूछ रहा हूँ, 'कब तक? और कब तक?' 

पर्चा : बाल यौन हिंसा पर चुप्पी तोड़ो!

रीब 6 महीने पहले दिल्ली के एक सार्वजनिक स्कूल में पढ़ने वाली कक्षा 4 की एक छात्रा ने स्कूल से घर लौटकर अपनी माँ से कहा कि वह अगले दिन से स्कूल नहीं जाएगी क्योंकि उसके प्रिंसिपल उसे छूते हैं और उसे अच्छा नहीं लगतामाँ ने अगले दिन स्कूल में शिकायत की और एक-के-बाद-एक कुछ और  छात्राओं ने भी प्रिंसिपल की लत हरकतें गिनवाईंस्थानीय कार्यकर्ताओंदिल्ली महिला आयोगराष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग, स्थानीय विधायक  आदि के हस्तक्षेप के चलते 2 महीने बाद एआईआर दर्ज हुई और पुलिस ने प्रिंसिपल को पोक्सो (POCSO) कानून के तहत गिरफ़्तार किया
 बच्चों के साथ होने वाली यौन हिंसा उनके वर्ग और जाति से अछूती नहीं है। न्याय के लिए प्रशासन और अदालतों के चक्कर लगाने पड़ते हैं, जिसकी क्षमता पीड़िताओं की आर्थिक-सामाजिक हैसियत पर निर्भर करती है| उपरोक्त केस में भी एक पीड़िता बच्ची का स्कूल व शहर छूट गया है तथा  बाक़ी छात्राओं के ऊपर इस पूरी घटना के जो मानसिक और शारीरिक असर हुए भविष्य में होंगे उन्हें समझ पाना तो दूर की बात है।  मीडिया की गंभीरता भी इस बात पर निर्भर करती है कि घटना  किसी नामी प्राइवेट स्कूल में घटी है या सरकारी स्कूल में 
हाल में मीडिया में स्कूलों में घटी बाल यौन हिंसा की कई रपटें सामने आई हैं; जैसे - हिमाचल प्रदेश के चंबा में एक दसवीं कक्षा की छात्रा का शिक्षक द्वारा फ़ेल करने की धमकी देकर 1 साल तक बलात्कार; दिल्ली में दृष्टि-बाधित बच्चों के एक स्कूल में दान देने वाले विदेशी व्यक्ति द्वारा 3 छात्रों का यौन शोषण; गुड़गाँव के एक बड़े प्राइवेट स्कूल में  7 वर्षीय छात्र के साथ यौन हिंसा की कोशिश और हत्या आदि|
Text Box: बाल यौन शोषण पर सरकारी प्रतिक्रिया
• स्कूल के चप्पे-चप्पे पर CCTV लगाना
• अभिभावकों सहित सभी आने-जाने वालों पर रोकटोक बढ़ाना
• सभी कर्मचारियों का पुलिस वेरिफ़िकेशन  
व साइकोमेट्रिक टेस्ट कराना 
• छात्राओं के स्कूलों में किसी पुरुष की नियुक्ति न करना 
इन घटनाओं ने बाल यौन हिंसापर प्रशासन, मीडिया और लोगों का ध्यान तो खींचा लेकिन ज़्यादातर प्रतिक्रियाएँ असली समस्या से जूझने के बजाय सुरक्षाका भ्रम पैदा करती हैं| उदाहरण के लिए, इनमें स्कूलों में लैंगिक संवेदनशीलता बढ़ाने, क़ानूनसम्मत समितियाँ खड़ी करने व उनकी जानकारी फैलाने जैसे उपायों का ज़िक्र नहीं आया है।  
सुरक्षा के नाम पर सबसे ज़्यादा ज़ोर सीसीटीवी  पर दिया जा रहा है| इस पर इतनी सहमति इसलिए भी है क्योंकि  सीसीटीवी  लगाने में कोई सामाजिक-राजनैतिक मेहनत नहीं है – एक तरह से, जनता के पैसे को प्राइवेट कंपनियों को मुनाफ़ा पहुँचाने के लिए र्च करना है| क्या गारंटी है कि ‘बच्चों की सुरक्षा’ के नाम पर लगे इन कैमरों का इस्तेमाल प्रशासन द्वारा शिक्षकों को प्रताड़ित करने के लिए नहीं किया जाएगा या बच्चों व शिक्षकों की रिकॉर्डिंग का दुरुपयोग नहीं होगाइससे सीखने-सिखाने के माहौल पर विपरीत असर पड़ेगा| यह विचार भी कि स्कूल में नौकरी देने से पहले किसी व्यक्ति का साइकोमेट्रिक टेस्ट लेकर यह जाँच की जाए कि वह आगे चलकर बच्चों का शोषण तो नहीं करेगाबौद्धिक दरिद्रता दर्शाता है। जिस चीज़ की वैधता को लेकर  ख़ुद मनोविज्ञान में विवाद है  उस पर आँख मूँदकर विश्वास करना कितना सही है? छात्राओं के स्कूलों में पुरुष शिक्षकों को न रखने की नीति भी भले ही छात्राओं की सुरक्षा का आसान तरीक़ा प्रतीत होता हो, लेकिन क्या  सभी पुरुष शिक्षकों पर संदेह करना अन्यायपूर्ण नहीं है? ये सभी प्रस्ताव सरकार द्वारा अपना पल्ला झाड़ने के लिए, सनसनी के पीछे भागते  मीडिया को ख़ुश करने के लिए और बिना संवाद किए उठाए गए दम हैं| क्या एक जेल, होटल और स्कूल के सुरक्षा इंतज़ामों में कोई फ़र्क़ नहीं होना चाहिए?

बच्चों की  असुरक्षा उस आर्थिक नीति से भी जुड़ी है जिसके तहत एक तरफ़ सार्वजनिक स्कूलों में पदों पर नियमित भर्तियाँ नहीं की जातीं और दूसरी तरफ़ शिक्षा को मुनाफ़ाख़ोर निजी मैनेजमेंट के हवाले कर दिया जाता है| स्कूलों की विभिन्न सेवाओं को रोज़ अपने कर्मी बदलने वाली निजी संस्थाओं को आउटसोर्स करके और एनजीओ व ख़ैराती काम करने वालों को अनुग्रहित होने की हद तक खुली छूट देकर स्कूलों के माहौल को अनिश्चित बनाया जा रहा है।  
Text Box:  POCSO कानून के अनुसार  
POCSO अधिनियम (बच्चों  की सुरक्षा के लिए यौन अपराध अधिनियम 2012) के तहत बाल यौन हिंसा में न केवल अपराधी द्वारा किसी भी अंग या वस्तु से बालक/बालिका के विभिन्न अंगों के साथ बलात्कार को शामिल किया गया है, बल्कि बच्चों के निजी अंगों को छूने या अपराधी द्वारा ख़ुद को छुआने को यौन हमले के रूप में तथा शब्दों, इशारों,  प्रदर्शन, पीछा करने, घूरने, छवि को किसी भी माध्यम से पोर्नोग्राफ़ी के लिए इस्तेमाल करने को भी जघन्य अपराध के रूप में पहचाना गया है। यह क़ानून पुलिसकर्मी, फ़ौजी व  स्कूल जैसे संस्थानों में काम करने वालों पर अपराध सिद्ध होने पर सामान्य से अधिक कठोर दंड तय करता है। घटना को रिपोर्ट नहीं करने पर भी किसी शिक्षक को 6 महीने की और प्रधानाचार्य को एक साल की सज़ा हो सकती है। पीड़ित बच्चे की पहचान किसी भी तरह से उजागर करने पर भी सज़ा का प्रावधान है।

दरअसल यौन शोषण का एक मज़बूत आर्थिक-सामाजिक-राजनैतिक आधार है और इस आधार पर चोट किये बिना यौन शोषण को ख़त्म नहीं किया जा सकतापितृसत्तात्मक समाज में यौन शोषण महिलाओं को क़ाबू में रखने का सदियों पुराना तरीक़ा है| ऐसे समाज में महिलाओं और बच्चों को कमज़ोर वर्ग मानकर उनकी यौनिकता का इस्तेमाल ‘वस्तु’ की तरह किया जाता हैबाल यौन शोषण के संगठित अपराध के रूप में हर साल दमित तबक़ों की लाखों बच्चियों का वेश्यावृत्ति के व्यापार में धकेल दिया जाना भी हमारे समाज की एक हक़ीक़त है।
सुरक्षा के नाम पर बचपन से ही छात्राओं को पहरेदारी की सौग़ात मिलती है। बाक़ी समाज की तरह स्कूलों में भी लड़कियों को लड़कों से कहीं अधिक अनुशासनात्मक पाबंदी में रखा जाता है|
स्कूलों में बच्चों के ऊपर कई प्रकार की हिंसा मौजूद है और इन सबमें एक निरंतरता हैजैसे बच्चों के धर्म, संस्कृति, आर्थिक स्थिति, जाति, लिंग व परिवार आदि  पर टिप्पणियाँ करनाउनकी  'भलाई' के नाम पर उन्हें डाँटना-मारना आदि|  हमें यह जानने की मेहनत करनी होगी कि बच्चों के अपने तर्क और अनुभव क्या हैंउनके डर और सपने क्या हैंउन्हें कब अपमानित और कब सुरक्षित लगता हैनहीं तो हम किसी तानाशाह की तरह केवल उनके हितैषी होने का दम भरते रह जायेंगे|

हम अपील करते हैं कि.......
·         बाल यौन शोषण की किसी भी घटना को नज़रंदाज़ न करें और न्यायसम्मत क़दम उठायें। 
·          कक्षाओं में लोकतांत्रिक माहौल का निर्माण करें ताकि विद्यार्थी अपने ख़िलाफ़ हुए शोषण को खुलकर साझा कर पाएँ।
·         आपसी व्यवहार में व विद्यार्थियों के बीच महिला-विरोधी संस्कृति  का पुरज़ोर विरोध करें|
·         पोक्सो (POCSO 2012) और महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न (2013) जैसे क़ानूनों पर अपनी जागरूकता बढ़ाएँ और विभाग पर दबाव बनाएँ कि स्कूलों में इनके प्रावधान लागू किए जाएँ|
·         स्कूलों में सभी पदों पर नियमित भर्तियों के लिये संघर्ष करें और निजीकर-एनजीओकरण का विरोध करें| 




लोक शिक्षक मंच
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                                                                       अक्टूबर 2017