Sunday 5 November 2017

बदलते समाज में बदला पुस्तकालय का स्वरुप

सनुज यादव 
लेखक केंद्रीय शिक्षा संस्थान में एम. एड के विद्यार्थी हैं 

मैं दिल्ली के ढाका गाँव में रहता हूँ । यह मुख़र्जी नगर से यह लगभग दो किलोमीटर दूर है, जो मुख्यतः सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कराने के लिए कोचिंग संस्थानों का गढ़ माना जाता है । पिछले कुछ समय से मैं यहाँ एक नए तरीके की संस्था का उदय देख रहा हूँ, जिसके मूल में केवल बाजारवाद है । यह है पुस्तकालय या लाइब्रेरी ।
वैसे तो पुस्तकालय को हम अपने विद्याथी(स्कूली) जीवन से सुनते आ रहे हैं और उसकी एक छवि हमने अपने मन में संजोये हुए हैं । पर जिस तरीके से बाज़ार ने इस संस्था का स्वरुप और संरचना में परिवर्तन ला रहा है यह मेरे लिए विचारणीय बिन्दु है । शिक्षा संकाय का विद्यार्थी होने के नाते ऐसे संस्थानों की संकल्पना में हो रहे बदलाव को जानना और उनमें हो रहे परिवर्तन को समझना मेरे लिए आवश्यक हो जाता है। एस.आर.रंगनाथन, जिन्हें भारत में पुस्तकालय विज्ञान के पिता के रूप में हम जानते हैं, उनके शब्दों में कहूँ तो “देश की सामाजिक,आर्थिक और राजनैतिक विकास में पुस्तकालयों का योगदान अहम होता है । ” परन्तु आज़ादी के बाद विकास के नाम पर जिस तरीके से सार्वजनिक पुस्तकालयों का गला घोटा जा रहा है ये एक चिंता का विषय है ।
आज हमारे आस-पास सार्वजनिक पुस्तकालय विरले ही देखने को मिलते हैं । जो हैं भी उनकी स्थिति काफी दयनीय है या वे आतिक्रमण का शिकार है । जब मुझे अपने कुछ दोस्तों से यह पता चला कि वे दिल्ली विश्वविद्यालय में नामांकन केवल कॉलेज की लाइब्रेरी की सुविधा(बैठकर पढने के लिए)लेने के लिए लेते है तो मुझे शुरुआत में उन दोस्तों पर गुस्सा आया पर जब इस पर विचार किया तो पाया कि अन्य सभी कारणों में एक कारण उनके घर के आस-पास सार्वजनिक पुस्तकालयों ना होना भी हो सकता है । इनकी जगह यह नए तथाकथित पुस्तकालय अपनी जगह बना रहे हैं, जो पुस्तकालय के नाम पर एयर कंडीशन, वाई-फाई सुविधा, लड़के-लडकियों के अलग स्टडी रूम, चाय-कॉफ़ी की सुविधा, कैमरे से निगरानी इत्यादि सुविधा देने का प्रचार करते हैं ।
क्या हम इन्हें सही मायने में लाइब्रेरी कह सकते हैं या नहीं ? मेरे अनुसार पुस्तकालय वह जगह होती है, जो आपको अपनी स्वेच्छा से पढने, लिखने,पुस्तकों के चुनाव की स्वतंत्रता, स्वछन्दता प्रदान करती है । विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय, शोध संस्थानों में पुस्तकालयों की भूमिका कितनी अहम है, यह हम सभी अच्छी तरह से जानते हैं । इनकी बढती संख्या से मेरे मन में दो सवाल उठते हैं । पहला, इन इलाकों में इस प्रकार के पुस्तकालयों की स्थापना के पीछे क्या सोच रही होगी ? मेरे विचार से जिस तेजी से शिक्षा का बाजारीकरण हुआ या हो रहा है, उस परिस्थिति में मुख़र्जी नगर और आस-पास के इलाको में दिल्ली के दूरदराज़ के इलाकों से आने वाले प्रतियोगियों की संख्या में अप्रत्याशित बढ़ोत्तरी हुई है, जिसका एकमात्र कारण सरकारी नौकरी पाने की लालसा है । वहाँ ऐसी निजी दूकान प्रतियोगियों को यह विश्वास दिला पाती हैं कि वह अगर वे उन सुविधाओं का उपभोग करें जो वे मुहैया करा रहे हैं, तब वह अपनी तय्यारी को अन्य प्रतियोगियों से अलग कर पाएंगे और अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकेंगे ।
ऐसी स्थिति में जब अर्थव्यवस्था ढलान पर है और नौकरियों की भारी कमी से हमारा देश जूझ रहा है, वहाँ पढने वाले छात्र-छात्राएँ सरकार से सार्वजनिक पुस्तकालयों की बदहाली पर बिना कोई सवाल किये इस नवउदित व्यवस्था का हिस्सा बनाते जा रहे हैं । उनकी आँखों के सामने सार्वजनिक पुस्तकालयों का दायरा सिकुड़ता जा रहा है ।
दूसरा अहम सवाल यह है कि इन तरीकों के पुस्तकालय किस तरह के ज्ञान का सृजन कर रहे है ? कर भी रहे हैं या नहीं ? आज हम सूचनाओं के दौर में जी रहे हैं । इन सूचनाओं से ज्ञान का सृजन और उस ज्ञान से बुद्धिमत्ता तक का सफ़र एक जटिल प्रक्रिया है । समाज में हरेक समुदाय के ज्ञान की सृजनशीलता को सराहना और उसको बाकियों से साझा करने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए पुस्तकालय एक सशक्त माध्यम है । परन्तु यह पुस्तकालय किताबों को छोड़कर सारी सुख-सुविधा दे रहे हैं तब ज्ञान का उत्पादन भी संकीर्ण मायने में ही रहता है । जिसका लाभ गिने-चुने लोगो को मिलता है । मेरी समझ में एक बेहतर समाज की संकल्पना वह हो सकती है, जब हम पुस्तकालय जैसे सामाजिक संस्था को उसके वास्तविक स्वरुप में बचा पाएंगे क्योंकि पुस्तकालय आधुनिक समाज की रीढ़ की तरह है और इस रीढ़ तोड़ने वाली व्यवस्था को बाज़ार के हवाले करने की साजिश को बेनकाब करना ही होगा । 


1 comment:

Unknown said...

कोई बुराई नहीं