Sunday 1 April 2018

अनुवादित लेख: अंडमान का आश्रम


                                                                                                                                  अजय सैनी 


आज, सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले के खिलाफ जिसमें SC/ST एक्ट को कमज़ोर करने वाले निर्देश दिए गए हैं कई दलित-आदिवासी व सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ रहे संगठनों ने भारत बंद का आह्वान किया है I हम अपनी एकजुटता जताते हुए इस मौके पर एक अखबारी लेख का अनुवाद पेश कर रहे हैं जोकि न केवल हाशियाकृत वर्गों के प्रति हिंसा को दर्ज करता है, बल्कि संस्थाई क्रूरता के उदाहरण के तौर पर हमारे स्कूलों और शिक्षा से भी कई सवाल पूछता है..  
संपादक 

                                                                      

(अंग्रेज़ी अख़बार द हिन्दू की 25 मार्च की संडे मैगज़ीन में छपे लेख, The ashram in the Andamans, का अनुवाद)

आश्रम में शाम की पूजा के लिए सबकुछ तैयार है। लड़के पंक्तिबद्ध खड़े हैं, देखरेख करने वाले ने उनके धोती-कुर्तों की जाँच कर ली है और अब वो धैर्यपूर्वक पुजारी के, जोकि फ़ोन पर बात कर रहा है, निर्देशों का इंतज़ार कर रहे हैं। 
मैं आश्रम के मुख्य द्वार पर खड़ा सोच रहा हूँ कि पुजारी मुझे अंदर आने देगा या नहीं। मैं सकुचाते हुए प्रवेश करता हूँ मगर वो अपनेपन से मुस्कुराता है और एक ख़ाली कुर्सी की तरफ़ इशारा करता है। आश्रम दक्षिण अंडमान द्वीप पर स्थित है। 6 से 16 साल तक के तक़रीबन 80 'बेसहारा' या अनाथ लड़के यहाँ रहते हैं। यहाँ वो मुफ़्त आश्रय, भोजन, कपड़े, शिक्षा एवं धार्मिक अथवा आध्यात्मिक प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं।  
कुछ वर्ष पूर्व द्वीप के प्रशासन ने दो छोटे लड़के आश्रम को सौंपे थे। ये बच्चे अंडमानी जनजाति से थे जोकि अंडमान द्वीप समूह का एक ऐतिहासिक रूप से अलग-थलग समुदाय रहा है और 2013 में जिसकी कुल आबादी मात्र 57 थी। 
जल्दी-ही आश्रम ने लड़कों को वापस भेजने का फ़ैसला किया। "वो बाक़ी बच्चों से पूरी तरह अलग थे। हमने पाया कि उन्हें संभालना व अनुशासित करना बेहद मुश्किल था", पुजारी ने मुझे बताया। एक दिन ये बच्चे आश्रम के छात्रावास से नादारद मिले। आख़िरकार वो एक तालाब के किनारे मिले जहाँ वो बिना पकी मछली का मज़ा ले रहे थे। पुजारी ने ठाना कि वो ख़ुद ऐसे व्यवहार को 'सुधारेगा', मगर सब व्यर्थ था। 
उसने उनसे हिंदी में जवाबतलब किया, "कच्ची मछली भी कोई खाने की चीज़ है? क्या तुमने आश्रम के किसी भी लड़के को मछली को कच्चा खाते हुए देखा है?" बड़े लड़के ने प्रतिरोध के स्वर में जवाब दिया कि जब उन्हें पता चलेगा कि कच्ची मछली का स्वाद कितना अच्छा होता है तो सभी मछली को बिना पकाये ही खाने लगेंगे। 
छोटा अंडमानी लड़का महज़ 7 या 8 साल का था। आश्रम के खाने से उसका हाज़मा ख़राब हो जाता था। वो अक़सर दिन में अपनी पैंट गंदी कर देता था और रात में अपना बिस्तर गीला कर देता था। बाक़ी निवासी चिढ़ गए थे और आश्रम ने फ़ैसला किया कि वक़्त आ गया था कि द्वीप प्रशासन उन्हें वापस ले जाये। 

उसे जाना ही था  

अपने मोबाइल पर लड़के की एकमात्र फ़ोटो दिखाते हुए पुजारी उत्तेजना में कहता है, "देखो, यह रहा वो, अपने बर्थडे केक के साथ फ़ोटो के लिए पोज़ देते हुए। हम उसे प्यार करते थे, पर दुर्गंध असहनीय थी।" अपने छोटे साथी के जाने के बाद बड़ा लड़का अकेला और उदास रहने लगा। उसने रात में आश्रम से भागने के कई प्रयास किये और अंततः द्वीप प्रशासन उसे वापस ले गया। अचानक, हमारी बातचीत को किसी घटना से व्यवधान पहुँचता है। मैं मुड़ता हूँ और पाता हूँ कि देखरेख करने वाले ने अभी-अभी एक छोटे लड़के को मारा है। ऐसा प्रतीत होता है कि लड़के ने अपनी धोती ठीक से नहीं बाँधी थी। वो अब अपनी धोती सही करता है और दोबारा पंक्ति में लग जाता है।  
"इन्हें बहुत अनुशासन की ज़रूरत है", पुजारी शांत स्वर में कहता है। 
मैं स्कूल में लड़कों की शैक्षिक प्रगति के बारे  पूछता हूँ। वो बताता है, "इनमें से अधिकतर को पढ़ाया नहीं जा सकता है।"
मैं बहस करने की कोशिश करता हूँ। पुजारी पूछता है, "क्या आप जानते हैं कि ये लड़के कौन हैं? अंग्रेज़ों ने दो तरह के लोगों को काला पानी का निर्वास दिया था - स्वतंत्रता सेनानी और छँटे-हुए अपराधी। इनमें से अधिकांश लड़के इन अपराधियों के ही वंशज हैं। आख़िर हम ऐसे समूह से उम्मीद भी क्या कर सकते हैं?"
इतना कहने के बाद पुजारी लड़कों को आगे बढ़ने का इशारा करता है। बाल-प्रमुख दल को मंदिर तक ले जाता है जहाँ सभी दो आयु-वर्गों में क़ालीन पर बैठ जाते हैं। उनके बीच में कुछ पुजारी बैठते हैं, मगर विशेष प्रकार की पूजा चटाइयों पर। एक लड़का हारमोनियम और एक पुजारी तबला बजाता है। प्रमुख-पुजारी आरती प्रारंभ करता है और सभी उसमें शामिल हो जाते हैं। 
आरती ख़त्म होने के बाद प्रमुख-पुजारी प्रवचन शुरु करता है। छोटे लड़कों का ध्यान जल्दी-ही भंग हो जाता है। वो एक-दूसरे को छेड़ते हैं, अपना सर या काँख खुजाते हैं, नाक में उँगली डालते हैं, दाँतों से नाख़ून कुतरते हैं....

इनके भाग्य में श्रम करना ही बदा है 

जब पुजारी मुझे मंदिर के द्वार तक छोड़ने आता है तब मैं उससे इन लड़कों के भविष्य के बारे में पूछता हूँ। वो जवाब देता है, "16 की उम्र के बाद, ये घर जायेंगे और अपने परिवारों को आर्थिक सहयोग देना शुरु करेंगे। इनमें से सभी की क़िस्मत में दिहाड़ी मज़दूर बनना लिखा है। हमारी आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा से ये कम-से-कम अच्छे और ईमानदार मज़दूर तो बन पायेंगे।"
एक छोटा लड़का, जिसने हमारी बातचीत सुन ली है, संकोचवश सामने आता है और मुझे बताशे के दो टुकड़े देता है। वो पीछे क़दम हटाकर स्थिर खड़ा हो जाता है, मुझसे नज़रें चुराता हुआ। लड़का मेरे बचपन की एक याद ताज़ा कर देता है: एक गणित के अध्यापक ने मेरे पिता को सुझाव दिया था कि स्कूल में वक़्त 'बर्बाद' करने के बदले मैं खेत में काम करूँ। उस बोझिल संवाद का एक-एक पल मुझे अनंत काल का लगा था। 
मैं पुजारी को बताना चाहता हूँ कि अगर वो अपने पूर्वाग्रहों और अज्ञान को त्याग देगा तो ये लड़के 'ईमानदार मज़दूरों' के अलावा बहुत-कुछ बन सकते हैं। मगर मुझसे इतना ही हो पाता है कि एक अटपटी ख़ामोशी से अपनी बातचीत समाप्त कर दूँ।     

(लेखक टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज़ में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं।) 
(द हिन्दू से साभार) 

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